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ये ‘प्रवेश द्वार’ नहीं ‘परलोक द्वार’ है

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नरक तो मैंने कभी देखा नहीं, पर सरकारी अस्पतालों को देख कर यही लगता है कि नरक जहां भी होगा, सरकारी अस्पताल जैसा ही होगा. मेरा तो मानना है कि अगर किसी अपराधी को सरकारी अस्पताल की व्यवस्था दिखा कर यह बता दिया जाये कि ‘नरक’ बिल्कुल ऐसा ही होता है और अपराधियों को भगवान […]

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नरक तो मैंने कभी देखा नहीं, पर सरकारी अस्पतालों को देख कर यही लगता है कि नरक जहां भी होगा, सरकारी अस्पताल जैसा ही होगा. मेरा तो मानना है कि अगर किसी अपराधी को सरकारी अस्पताल की व्यवस्था दिखा कर यह बता दिया जाये कि ‘नरक’ बिल्कुल ऐसा ही होता है और अपराधियों को भगवान नरक में ही रखते हैं, तो यकीन मानिए वह व्यक्ति अपराध करना छोड़ देगा.

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जैसे रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है, हरि अनंत हरि कथा अनंता, उसी तरह सरकारी अस्पताल की भी कथा अनंत है. अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के दृश्य दिखाते सरकारी अस्पताल पर विस्तार से लिखने बैठूं, तो उम्र कम पड़ेगी. कम शब्दों में कहा जाये, तो सरकारी अस्पताल यानी चीखते-कराहते मरीज, गिड़गिड़ाते-भटकते परिजन और लाचार व्यवस्था का जीवंत उदाहरण. मैं खुद भी मानता हूं कि ईंट-पत्थरों से बनी ऐसे सरकारी अस्पतालों में काम करनेवाले ज्यादातर लोगों का कलेजा भी पत्थर का ही होता है. यहां बेहतर इलाज, अच्छी सेवा, नियमित दवाइयां और पौष्टिक खाना मिले, जिससे आपका बीमार मरीज स्वस्थ हो जायेगा, इसकी तो कल्पना करना भी दिन में सपने देखने जैसा है. दुनिया के कुछेक ‘अतिभाग्यशाली’ लोगों को शायद किसी अस्पताल में यह सुविधा मिल जाये. सामान्यत: सरकारी अस्पतालों में मरीज और उनके परिजन डाक्टरों को ढूंढ़ते या लंबी लाइनों में खड़े होकर व्यवस्था को कोसते ही मिलते हैं.

हालांकि कुछ अनुभवी ‘अस्पताल विशेषज्ञ’ लोग हैं, जो जानते हैं कि कहां-कहां पैसे खर्च कर इस सरकारी सेवा का लाभ उठाया जा सकता है. एक तरफ देश में जितनी तेजी से महंगाई बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से बीमारियां भी बढ़ रही हैं और इनके इलाज का खर्च सुनते ही दिन में तारे दिखने लगते हैं. मजबूर होकर आम आदमी सरकारी अस्पताल के दरवाजे तक पहुंचता है. यह जानते हुए कि यह अस्पताल का प्रवेश द्वार नहीं, बल्कि ‘परलोक द्वार’ है. यहां मरीज को डाक्टर के भरोसे नहीं, भगवान के भरोसे भरती होता है. बच गया तो ‘राम-राम’ करते हुए बाहर आ गया, नहीं तो ‘राम नाम सत्य है’ होना तय है. किसी ने सच ही कहा है कि फांसी के फंदे से झूल कर या सल्फास खाकर मरनेवाले कायर नहीं, बल्कि मूर्ख होते हैं. बेहतर है कि आप बीमार पड़े, फिर अस्पताल जायें और सदा-सदा के लिए छुट्टी पायें. न पुलिस का झंझट और न पोस्टमार्टम का झमेला. किसी ने ठीक ही कहा है –

न डाक्टर, न दवाई / स्वयं बीमार व बदहाल

रोगी डरता जिसे देख कर / वही है सरकारी अस्पताल

दरअसल सरकारी अस्पताल खुद ही बीमार हैं. यहां काम करनेवाले छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े डाक्टर तक ‘रिश्वत’ नामक रोग से ग्रसित हैं. पता नहीं सरकारी अस्पतालों के अच्छे दिन कब आयेंगे?

पंकज कुमार पाठक

प्रभात खबर, रांची

pankaj.pathak@prabhatkhabar.in

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