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नेहरू-नीति बदलने को तैयार हैं मोदी!

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असल सवाल तो यह है कि मौजूदा भारत सरकार जिस रास्ते निकल पड़ी है, क्या उसमें अब पाकिस्तान से कोई बातचीत होगी ही नहीं, क्योंकि कश्मीर को भावनात्मक तौर पर उठा कर ही पाकिस्तानी सियासत आगे बढ़ती रही है. वक्त बदल चुका है. वाजपेयी के दौर में 22 जनवरी, 2004 को दिल्ली के नार्थ ब्लॉक […]

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असल सवाल तो यह है कि मौजूदा भारत सरकार जिस रास्ते निकल पड़ी है, क्या उसमें अब पाकिस्तान से कोई बातचीत होगी ही नहीं, क्योंकि कश्मीर को भावनात्मक तौर पर उठा कर ही पाकिस्तानी सियासत आगे बढ़ती रही है.

वक्त बदल चुका है. वाजपेयी के दौर में 22 जनवरी, 2004 को दिल्ली के नार्थ ब्लॉक तक हुर्रियत नेता पहुंचे थे और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात की थी. मनमोहन सिंह के दौर में हुर्रियत नेताओं को पाकिस्तान जाने का वीजा दिया गया. लेकिन 2014 में मोदी सरकार को किसी भी हालत में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस बर्दाश्त नहीं है. पाकिस्तान से किसी भी बातचीत के बीच कश्मीरी अलगाववादियों को बर्दाश्त करने की स्थिति में मोदी सरकार नहीं है. तो क्या भारत ने कश्मीर को लेकर हुर्रियत का दरवाजा हमेशा के लिए बंद करने का फैसला लिया है, और अब पाकिस्तान ने कभी कश्मीर राग अलग से छेड़ा भी तो क्या मोदी सरकार हर बातचीत से पल्ला झाड़ लेगी? असल में, यहीं से साफ तौर पर पाकिस्तान से बातचीत को लेकर इस नये हालात ने दो सवाल खड़े किये हैं. पहला, पाकिस्तान से बातचीत के केंद्र में कश्मीर नहीं रहेगा. और दूसरा, भारत की प्राथमिकता पाकिस्तान से ज्यादा कश्मीर को लेकर दिल्ली की समझ साफ करना है.

यहां कश्मीर को लेकर पारंपरिक सवालों को खड़ा किया जा सकता है. क्योंकि शिमला समझौता हो या नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह का दौर, पाकिस्तान से की गयी हर बातचीत के बीच में कश्मीर किसी उलङो मुद्दे की तरह दिल्ली और इसलामाबाद को उस दिशा में ढकेलता ही रहा, जहां कश्मीरी नेता या तो दिल्ली का गुणगान करें या पाकिस्तान के रवैये को सही बतायें. तो नया सवाल यही है कि क्या नेहरू के दौर में जो सवाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर पर नेहरू-नीति के विरोध के जरिये जतायी थी, उसी रास्ते पर मोदी सरकार चल पड़ी है?

1989 में जब कश्मीर में सीमापार से आतंक की नयी परिभाषा लिखी जा रही थी, तब गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी के अपहरण के सामने दिल्ली को झुकना पड़ा था. उसी वक्त चुनाव में हिजबुल चीफ सलाउद्दीन की हार के बाद हालात बिगड़े, संसदीय चुनाव से दूर रह कर हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने सियासत की नयी परिभाषा गढ़ने की नींव डाली और उसी दौर में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी. तब दिल्ली सरकार खामोशी से तमाशा देख रही थी, लेकिन भाजपा ने तब कश्मीरी पंडितों की त्रसदी के जरिये धारा 370 को उठाया. लेकिन 1989 से लेकर 2004 तक भाजपा धारा 370 और कश्मीरी पंडितों को लेकर खामोश रही, क्योंकि सत्ता उसके अनुकूल कभी बनी नहीं.

अब भाजपा अपने बूते दिल्ली की सत्ता पर काबिज है. फिर कश्मीर का मुद्दा उसके लिए पाकिस्तान से बातचीत में उठाने से कहीं ज्यादा धारा 370 और कश्मीरी पंडितों से जुड़ा है. तो बड़ा सवाल है कि अब दिल्ली कश्मीर के अलगाववादियों को कैसे मान्यता दे सकती है! क्योंकि इसी दौर में आरएसएस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार बाकायदा धारा 370 को लेकर इस मुहिम पर निकले हुए हैं कि जब मौलिक अधिकारों को ही धारा 370 से खत्म किया जा रहा है और भारत से इतर कश्मीर को देखने का नेहरू-नजरिया ही बीते 67 बरस से पाकिस्तान को बातचीत में जगह देता रहा है, तो फिर इस नजरिये को माननेवालों को भारत छोड़ देना चाहिए. यानी हुर्रियत के बनने के दो दशक के बाद पहली बार दिल्ली कश्मीर को लेकर बदलने के खुले संकेत दे रही है कि कश्मीर भी भारत के बाकी प्रांतों की तरह है.

अब सवाल पाकिस्तान का है कि क्या उसने यह जानते हुए दिल्ली में कश्मीरी अलगाववादियों को बातचीत का न्यौता दिया. चाहे इसके परिणाम 25 अगस्त को होनेवाली विदेश सचिवों की बैठक के रद्द होने के हों. वैसे यह भी कम दिल्चस्प नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण के दौरान नवाज शरीफ से मिलाये गये हाथ के वक्त ही कश्मीरियों को बातचीत में शामिल ना करने का जिक्र विदेश मंत्रलय के अधिकारियों ने पाकिस्तान के अधिकारियों को दे दी थी. तो फिर इसके बाद भी विदेश सचिवों की मुलाकात से हफ्ते भर पहले दिल्ली में पाक उच्चायोग सक्रिय क्यों हुआ? पाकिस्तान के हालात बताते हैं कि नवाज शरीफ ने सोच-समझ कर यह दांव खेला. क्योंकि अपनी सत्ता के खिलाफ सड़क पर उतरे हजारों लोगों से ध्यान बंटाने के लिए ही वे कश्मीर मुद्दे को तुरुप का पत्ता मान बैठे. तो, क्या इमरान खान और कादरी के लांग मार्च में फंसे नवाज शरीफ ने भी कश्मीरी मुद्दा जान-बूझ कर उठाया. जो भी हो, असल सवाल तो यह है कि मौजूदा भारत सरकार जिस रास्ते निकल पड़ी है, क्या उसमें अब पाकिस्तान से कोई बातचीत होगी ही नहीं, क्योंकि कश्मीर को भावनात्मक तौर पर उठा कर ही पाकिस्तानी सियासत आगे बढ़ती रही है. कश्मीरियों की गैरमौजूदगी में पाकिस्तान भारत से क्या बात करेगा, यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तान जो कह रहा है वह भारत के ठीक उलट है. पाकिस्तान कश्मीर को विवादास्पद मानता है. भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भी अपना मानता है. पाकिस्तान हुर्रियत से मुलाकात को सही ठहराता है. भारत कश्मीरी अलगाववादियों को कोई जगह देना नहीं चाहता. पाकिस्तान सीजफायर तोड़ने का आरोप भारत पर लगा रहा है, जबकि भारतीय सीमा पर उसकी सीमा से लगातार गोलीबारी जारी है.

सवाल यह है कि अब मोदी सरकार क्या करेगी. क्योंकि दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय से महज तीन किमी की दूरी पर पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके भारत के हर दावे को गलत करार दिया है. जिन आरोपों के कटघरे में पाकिस्तान को मोदी सरकार खड़ा करती आयी है, उसी कटघरे में पाकिस्तान ने भारत को खड़ा करने की कोशिश की है.

सवाल इसलिए भी बड़ा है, क्योंकि इस मसले को लेकर भारत-पाकिस्तान की हर बातचीत में अमेरिका की दिलचस्पी रही है. अगर सितंबर में अमेरिका भारत को पाकिस्तान से बातचीत के लिए कहता है, तो सरकार क्या करेगी. क्योंकि इस मसले को लेकर जिस रास्ते पर मोदी सरकार है, उससे देश में एक भरोसा जगा है कि कश्मीर को लेकर नेहरू-नीति उलटने को तैयार हैं मोदी. यानी संघ के एक प्रचारक (वाजपेयी) ने प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस हुर्रियत के लिए संविधान के दायरे को तोड़ कर इंसानियत के दायरे में बातचीत करना कबूला, वहीं एक दूसरे प्रचारक (मोदी) ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कश्मीर को हिंदू राष्ट्रवाद के तहत लाने का बीड़ा उठाया है. अब यह तय है कि आजादी के बाद पहली बार कश्मीर को लेकर दिल्ली एक ऐतिहासिक मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां से आगे का रास्ता धुंधला है.

पुण्य प्रसून वाजपेयी

वरिष्ठ पत्रकार

punyaprasun@gmail.com

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