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योजना आयोग के भविष्य का सवाल

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अपने प्रथम स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 64 वर्ष पुराने योजना आयोग के भविष्य पर जारी अटकलों को विराम देते हुए उसकी जगह एक नयी संस्था के निर्माण की महत्वपूर्ण घोषणा की. उनका तर्क है कि देश की आंतरिक और वैश्विक परिस्थितियां बदल गयी हैं. आर्थिक गतिविधियों में केंद्र सरकार के अलावा […]

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अपने प्रथम स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 64 वर्ष पुराने योजना आयोग के भविष्य पर जारी अटकलों को विराम देते हुए उसकी जगह एक नयी संस्था के निर्माण की महत्वपूर्ण घोषणा की. उनका तर्क है कि देश की आंतरिक और वैश्विक परिस्थितियां बदल गयी हैं. आर्थिक गतिविधियों में केंद्र सरकार के अलावा अब राज्य सरकारें व निजी क्षेत्र भी महत्वपूर्ण हिस्सेदार हैं. ये तर्क अपनी जगह सही हैं.

बीते कुछ दशकों, खासकर उदारीकरण के बाद, से विकास के स्वरूप व प्राथमिकताओं में परिवर्तन हुआ है. राज्य सरकारें अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को नया आयाम देने का प्रयास कर रही हैं. आर्थिक सुधारों ने निजी क्षेत्र के उद्योगों और उद्यमियों का वृहत विस्तार किया है.

वैश्वीकरण की बढ़ती सघनता से राष्ट्रीय अर्थव्यव्स्था का बाह्य आर्थिक जगत से संबंध गहन हुआ है. ऐसे में योजना आयोग जैसी कोई शक्तिशाली केंद्रीय संस्था विकास-प्रक्रिया का समुचित नियमन नहीं कर सकती है. राज्य सरकारें आयोग पर कठोर रवैया अपनाने और उनकी उचित मांगों की उपेक्षा करने के आरोप लगाती रही हैं.

योजना आयोग की आलोचना उसके कामकाज के पुराने र्ढे और निर्माणाधीन योजनाओं के प्रति लापरवाही के लिए भी होती रही है. बीते कुछ वर्षो में आयोग अपने मुख्य कार्यालय में दो शौचालयों की मरम्मत, पूर्व उपाध्यक्ष के विदेश दौरों पर करोड़ों रुपये खर्च करने और रोज 28 रुपये से अधिक खर्च करनेवाले लोगों को गरीब नहीं मानने जैसे मसलों के कारण भी विवादों में रहा है. ऐसे में योजना आयोग जैसी अति-केंद्रीयकृत संस्था की जगह एक समावेशी संस्था बनाने का प्रधानमंत्री का निर्णय उचित हो सकता है, लेकिन कुछ विपक्षी पार्टियों की यह मांग भी सही है कि इस संबंध में अंतिम निर्णय से पहले संसद को भरोसे में लिया जाना चाहिए. अपने 15 अगस्त के संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा भी है कि वे बहुमति के बल पर नहीं, बल्कि सहमति के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं. योजना आयोग जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था के अवसान और नयी संस्था के गठन का निर्णय यदि प्रधानमंत्री कार्यालय की जगह संसद में और देशव्यापी बहस के निष्कर्ष पर आधारित हो, तो इसका स्वरूप बेहतर और व्यापक हो सकता है.

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