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‘लिंचिंग’ कहानी पढ़ने के बाद

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com आज से दो महीने पहले 26 जून को हमारे समय के बड़े कथाकार-नाटककार असगर वजाहत ने अपने फेसबुक वॉल पर अपनी एक लघु कहानी ‘लिंचिंग’ पोस्ट की सुबह 10 बज कर 26 मिनट पर. दो महीने से यह कहानी सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुई. इसका अंग्रेजी अनुवाद भी वायरल हुआ. […]

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रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

ravibhushan1408@gmail.com

आज से दो महीने पहले 26 जून को हमारे समय के बड़े कथाकार-नाटककार असगर वजाहत ने अपने फेसबुक वॉल पर अपनी एक लघु कहानी ‘लिंचिंग’ पोस्ट की सुबह 10 बज कर 26 मिनट पर. दो महीने से यह कहानी सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुई.

इसका अंग्रेजी अनुवाद भी वायरल हुआ. इस कहानी में बूढ़ी औरत को उसके पोते सलीम की ‘लिंचिंग’ की जानकारी कुछ लड़कों ने दी. ‘उसके काले, झुर्रियों पड़े चेहरे और धुंधली मटमैली आंखों में कोई भाव न आया. उसने फटी चादर से अपना सिर ढक लिया.’ बुढ़िया अंग्रेजी के तीन शब्दों- ‘पास’, ‘जॉब’ और ‘सैलरी’ से परिचित है. ‘सैलरी’ शब्द सुनते ही उसकी नाक में तवे पर सिकती रोटी की सुगंध आ जाया करती थी.

‘लिंचिंग’ का अर्थ वह नहीं जानती. वह समझती थी कि अंग्रेजी के शब्द अच्छे होते हैं और ‘लिंचिंग’ की खबर भी एक अच्छी खबर है. उसने लड़कों से कहा, ‘अल्लाह उनका भला करे.’ लड़के चौंक पड़े. उनमें यह बताने की हिम्मत नहीं थी कि लिंचिंग क्या होती है. बुढ़िया के लिए यह एक अच्छी खबर थी.

उसने लड़कों को दुआ देना चाहा, ‘अल्लाह करे तुम सबकी लिंचिंग हो जाये… ठहरो मैं मुंह मीठा कराती हूं’. लिंचिंग कहानी क्या सचमुच इतनी ही है या उसका अर्थ-विस्तार और अर्थायाम इतना व्यापक है कि एक छोटे स्तंभ में उन सब पर विचार नहीं किया जा सकता?

मुक्तिबोध ने ‘भूत का उपचार’ कहानी (1957, प्रकाशित 1968) में लिखा है- ‘कहानी बढ़ सकती थी, बशर्ते कि मैं मूर्खता को कला समझ लेता.’ हिंदी में लंबी कविता के बाद जिस बड़े पैमाने पर लंबी कहानियां लिखी गयी हैं और लिखी जा रही हैं, उन पर विचार मुक्तिबोध की पंक्ति का स्मरण क्या गलत है?

पिछले वर्ष प्रकाशित अपने कहानी संग्रह- ‘भीड़तंत्र’ की भूमिका में असगर ने ‘कहानी के क्लासिकी फॉर्म’ को लगभग छोड़ देने की बात कही है. लिखा है- ‘मेरी कहानियां यूरोपीय कहानी के ढांचे से अलग हो चुकी हैं.’ असगर वजाहत एक ‘एक्टिविस्ट’ कथाकार-नाटककार हैं, वे कहानी की समस्त परिभाषाओं को ‘अधूरी’ मानते हैं. क्योंकि समय के अनुसार परिभाषाएं छोटी पड़ती जाती हैं.

समय सब कुछ को, साहित्य-रूपों को भी नये सिरे से परिभाषित करता है और यह कथाकारों-कथालोचकों का दायित्व है कि वे अपनी रचना और आलोचना में इसे किस तरह प्रस्तुत करते हैं. ‘रचनाकार पर अपने उद्देश्य’ के दबाव की जो बात असगर ने कही है, वह सबसे बड़ी है. हमारे समस्त लेखन और कर्म का वास्तविक उद्देश्य क्या है? कहानी में कहानी-कला की रक्षा भी बड़ी बात है. इस हिंसक और भयावह समय में पुराने ढंग अधिक कारगर नहीं हो सकते.

पहले इस ‘लिंचिंग’ शब्द को देखें. क्या यह मात्र एक शब्द है? शब्दकोश में पड़े ‘लिंच’ शब्द का उछल कर और तनकर हमारे समक्ष खड़े होने का अपना एक इतिहास है. ‘लिंचिंग’ और ‘लिंच लॉ’ (कानून) जैसे पद अमेरिका के वर्जीनिया के राजनीतिज्ञ और क्रांतिकारी चार्ल्स लिंच (1736-1796) से जुड़े हैं, जो अमेरिकी क्रांति-युद्ध (19 अप्रैल, 1775- 3 सितंबर, 1783) के दौरान ब्रिटिश राज्य समर्थकों को वर्जीनिया के अनियमित कोर्ट में सजा देनेवालों में प्रमुख थे.

उनके नाम से ही ‘लिंचिंग’ और ‘लिंच लॉ’ जुड़ा. ‘दि रीयल जज लिंच’ पर लेख भी लिखे गये. अपनी मास्टर थीसिस में फ्रैंकलिन गौर्डन गौडफे ने चार्ल्स लिंच को ‘लिंच लॉ’ पद का प्रवर्तक माना है. चार्ल्स लिंच के भाई जॉन लिंच ने बाद में वर्जीनिया में जेम्स नदी के किनारे ‘लिंच बर्त्र’ नामक स्वतंत्र शहर की स्थापना की. उन्नीसवीं सदी के अंत में अमेरिकी गृह-युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘लिंचिंग’ (भीड़ द्वारा की गयी हत्या) की संख्या बढ़ी.

साल 2006 में क्रिस्टोफर वालड्रेप की पुस्तक आयी- ‘लिंचिंग इन अमेरिका : ए हिस्ट्री इन डॉक्यूमेंट्स’. भारत में भीड़ हत्या और भीड़तंत्र पर हिंदी में शायद ही कोई पुस्तक हो. असगर के कहानी-संग्रह पर समाज वैज्ञानिकों का ध्यान जाना चाहिए, क्योंकि ‘भीड़तंत्र’ लोकतंत्र की असफलता का चिह्न और तंत्र है. भारत में क्या ‘लिंचिंग’ की घटनाओं में वृद्धि नहीं हुई है?

ग्राहम स्टेंस और उनके दो पुत्रों- फिलिप और टिमोथी को एक साथ 22 जनवरी, 1999 को ओड़िशा के मनोहरपुर गांव में एक उग्र भीड़ द्वारा जिंदा जला देने की घटना भारत में ‘लिंचिंग’ की पहली घटना है.

आठ सितंबर 1920, 28 जुलाई 1920 और 23 फरवरी 1921 के ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने ‘भीड़शाही’ पर विचार किया, भीड़ के आतंकवाद को लोकतंत्र की भावना के प्रसार में ‘अधिक बाधक’ माना और ‘भीड़ की मनमानी’ को ‘राष्ट्रीय बीमारी का लक्षण’ भी कहा है. ‘दि क्विंट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2015 से अब तक भीड़ ने भारत में 94 लोगों की हत्या की है.

निर्मल वर्मा ने ‘लंदन की एक रात’ कहानी में ‘लिंचिंग’ का संभवत: पहली बार प्रयोग किया. उसकी पृष्ठभूमि विदेशी है. असगर की ‘लिंचिंग’ इस देश की है. इस कहानी का एक साथ सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक पाठ आवश्यक है. बुढ़िया मुसलमान है.

उसकी आंखें भावविहीन क्यों हैं? क्यों हैं चेहरे पर झुर्रियां? ‘अल्लाह करे तुम सबकी लिंचिंग हो’, क्या यह महज एक वाक्य है? कहानी के व्यापक संकेत हैं. अर्थ ध्वनियां हैं. बूढ़ी और पोते के बीच की दूसरी पीढ़ी (बुढ़िया का बेटा) कहां है? ये दोनों किस भारत के नागरिक हैं?

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