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अब एक साथ चुनाव की जरूरत

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सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार sure-darkishore@gmail.com कर्नाटक तख्ता पलट प्रकरण ने भी देश में लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की जरूरत रेखांकित कर दी है. कांग्रेस नीत गठबंधन के 16 विधायकों के सदन की सदस्यता से इस्तीफे के बाद ही कुमारस्वामी सरकार का जाना तय हो गया था. विश्वास प्रस्ताव पर ऐतिहासिक रूप […]

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सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
sure-darkishore@gmail.com
कर्नाटक तख्ता पलट प्रकरण ने भी देश में लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की जरूरत रेखांकित कर दी है. कांग्रेस नीत गठबंधन के 16 विधायकों के सदन की सदस्यता से इस्तीफे के बाद ही कुमारस्वामी सरकार का जाना तय हो गया था.
विश्वास प्रस्ताव पर ऐतिहासिक रूप से लंबी चर्चा के बावजूद उन विधायकों की घर वापसी नहीं करायी जा सकी. याद रहे कि दो निर्दलीय विधायकों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. इस थोक दल-बदल का एक कारण पैसा व पद भी हो ही सकता है. पर, मूल कारण कुछ और है.
पक्ष परिवर्तन करनेवाले विधायकों की मुख्य चिंता यह रही कि वे अगला चुनाव कैसे जीतेंगे. क्योंकि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के जनाधार के वापस लौटने के फिलहाल संकेत नहीं हैं. ऐसी ही चिंता गोवा में भी देखी गयी, जहां 15 में से 10 कांग्रेस विधायकों ने पार्टी छोड़ दी.
कांग्रेस में वे अपना कोई राजनीतिक भविष्य नहीं देख रहे थे. एक तरफ कांग्रेस और उसके सहयोगी दलांे की हालत ठीक नहीं है, दूसरी ओर निकट भविष्य में भाजपा व राजग के समक्ष किसी तरह की राजनीतिक चुनौती खड़ी करने की स्थिति में प्रतिपक्ष नजर नहीं आता. ऐसे में वैसे विधायक क्या करेंगे, जिनका सबसे बड़ा लक्ष्य विधायक बनना होता है.
यदि 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ-साथ कर्नाटक विधानसभा के भी चुनाव संपन्न हो गये होते तो राज्य सरकार के गिरने की नौबत नहीं आती.
हालांकि, ताजा राजनीतिक तख्ता पलट से भाजपा को भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. ऐसे विधायकों के बल पर जब आप सरकार बनायेंगे, जिनकी लाॅयल्टी किसी पार्टी के प्रति नहीं, बल्कि अपने राजनीतिक कैरियर के प्रति हो, उनके साथ आप कितने दिनों तक सरकार चला पायेंगे? संभव है कि किसी कारणवश अगली भाजपा सरकार की आयु भी छोटी हो जाये और कर्नाटक में फिर से विधानसभा चुनाव कराना पड़ जाये. अधिक चुनाव यानी अधिक खर्च और सरकारी कामकाज में अधिक व्यवधान.
फिर क्यों नहीं ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की ओर देश लौट जाये? याद रहे कि बार-बार चुनाव के कारण चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती है, जिससे कुछ समय के लिए विकास रुकता है. चुनाव पर अधिक खर्च होते हैं और सरकारी सेवक चुनाव कार्य में व्यस्त हो जाते हैं. उससे भी जनता के काम बाधित होते हैं. पर आश्चर्य है कि कांग्रेस ने भी एक राष्ट्र, एक चुनाव का विरोध कर दिया है.
जबकि जब एक साथ चुनाव हो रहे थे, तो उन दिनों के कांग्रेस के ही नामी-गिरामी नेता सत्ता के शीर्ष पर थे. साल 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही होते थे. पर 1971 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ पुरानी व्यवस्था समाप्त हो गयी. साल 1971 के बाद दो बार ऐसे अवसर आये, जब लोकसभा के चुनावों के तुरंत बाद राज्यों के भी चुनाव करवा दिये गये. यह तर्क दिया गया कि राज्य सरकारों ने जनादेश खो दिया है.
आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1977 में लोकसभा का चुनाव हुआ. जनता पार्टी ने लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया. उस चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी तक भी चुनाव हार गये थे.
जनता पार्टी ने तर्क दिया कि चूंकि कांग्रेस ने जनता का विश्वास खो दिया है, इसलिए उन राज्य विधानसभाओं के भी चुनाव होने चाहिए, जहां कांग्रेस की सरकारें हैं. इंदिरा गांधी ने जब लोकसभा चुनाव की घोषणा की, उसके तत्काल बाद जेपी ने कह दिया था कि यदि जनता पार्टी को केंद्र में बहुमत मिल गया, तो हम विधानसभाओं के भी चुनाव करा देंगे. आपातकाल से पहले जेपी आंदोलन की मुख्य मांग भी थी कि बिहार विधानसभा को भंग करके नये चुनाव कराये जायें.
जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बन गयी, तो उसने जेपी के वायदे को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी. मोरारजी सरकार ने नौ कांग्रेस शासित राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने की राष्ट्रपति से सिफारिश की. उन दिनों उपराष्ट्रपति बीडी जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे. उन्होंने मोरारजी सरकार की सिफारिश को लागू करने में विलंब कर दिया. उन दिनों राजनीतिक हलकों में यह अपुष्ट चर्चा थी कि यदि विधानसभाओं को भंग करने की अधिसूचना राष्ट्रपति जारी नहीं करेंगे, तो मोरारजी देसाई सरकार इस्तीफा दे देगी.
इसी मुद्दे पर दोबारा चुनाव होगा. इसके बाद जत्ती साहब ने अधिसूचना जारी करने का आदेश जारी कर दिया. नौ राज्यों में चुनाव हुए. वहां भी जनता पार्टी की जीत हुई. ऐसा ही अवसर 1980 में आया था. चरण सिंह की सरकार के गिरने के बाद जनवरी, 1980 में लोकसभा के चुनाव हुए.
इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गयीं. एक बार फिर यह सवाल उठा कि जिन राज्यों में जनता पार्टी की सरकारें हैं, उनके साथ केंद्र की कांग्रेसी सरकार कैसा सलूक करे? इतिहास दोहराया गया.एक बार फिर नौ राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गयीं.वहां विधानसभाओं के चुनाव हुए. वहां भी केंद्र की तरह ही कांग्रेस की ही सरकारें बनीं. यानी जो जनादेश केंद्र के लिए था, वैसा ही जनादेश राज्यों के लिए भी रहा. फिर अलग-अलग चुनावों का औचित्य ही क्या है? क्यों बार-बार चुनाव हो और अधिक खर्च किये जायें.
साल 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा कर एक राष्ट्र दो चुनाव की परंपरा कायम की गयी, जो आज तक जारी है. उसे एक बार फिर पटरी पर लाने के लिए मौजूदा मोदी सरकार प्रयत्नशील है. एक साथ चुनाव कराने पर अतिरिक्त स्थायी चुनावी उपकरणों की खरीद पर कुछ अधिक खर्च जरूर आयेगा, पर वे उपकरण दशकों तक काम आयेंगे.
राजनीतिक दलों के खर्च कम हो जायेंगे. एक आकलन के अनुसार इस साल के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने करीब 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किये. अलग से विधानसभा चुनाव पर इतने ही खर्च करने पड़ेंगे. यानी, एक साथ चुनाव पर दलों का खर्च आधा हो जायेगा. राजनीतिक दलों का खर्च यानी जनता के पैसों का ही इस्तेमाल. जहां तक क्षेत्रीय जनभावनाओं के प्रतिबिंबित होने का सवाल है, वह तो 1967 में भी प्रतिबिंबित हुए ही थे.
साल 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में तो कांग्रेस की सरकार बन गयी, पर सात राज्यों में गैर-कांग्रेस सरकारें बनीं. एक साथ हुए उस आखिरी चुनाव के बाद अन्य दो राज्यों में दल-बदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गयीं और वहां भी गैर-कांग्रेसी सरकारें बन गयी थीं. इसलिए यह कहना सही नहीं है कि अलग-अलग चुनाव होने से क्षेत्रीय आकांक्षाएं दब जायेंगी.

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