13.6 C
Ranchi
Sunday, February 9, 2025 | 04:51 am
13.6 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

युवा वोट तय करेंगे भारत का भविष्य

Advertisement

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com चुनाव आयोग के आंकड़े के हवाले से खबर है कि 2019 के आम चुनावों में 29 राज्यों में 18 से 22 साल तक की उम्र के वे युवा, जो पहली बार मतदान करेंगे और 282 लोकसभा सीटों पर प्रत्याशियों के भाग्यविधाता बनेंगे. इन नव-युवाओं की औसत […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
चुनाव आयोग के आंकड़े के हवाले से खबर है कि 2019 के आम चुनावों में 29 राज्यों में 18 से 22 साल तक की उम्र के वे युवा, जो पहली बार मतदान करेंगे और 282 लोकसभा सीटों पर प्रत्याशियों के भाग्यविधाता बनेंगे.
इन नव-युवाओं की औसत से बड़ी तादाद वाले राज्य- बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, महाराष्ट्र और राजस्थान की रुझानें नयी लोकसभा की शक्ल का फैसला करेंगी. संभावना है कि उनके मतदान का आधार क्षेत्रीय हितस्वार्थों के डायनामिक्स: रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार के जमीनी पैमानों पर टिका होगा, किसी राष्ट्रीय मुद्दे या दार्शनिक विजन पर नहीं.
उन्नत देशों में उच्च शिक्षा परिसर युवाओं की रुझान मापने का जरिया होते हैं. पर हमारे यहां उन परिसरों तक अधिकतर युवा अभी नहीं पहुंच पा रहे हैं, जहां भारत माता के अनेक स्वघोषित पुत्रों के कुछ जुनूनी जत्थे चेन्नई, हैदराबाद से लेकर दिल्ली और इलाहाबाद तक विश्वविद्यालयीन परिसरों में एक खास तरह की स्क्रिप्ट ले आये हैं.
राजनीतिक-सामाजिक असहिष्णुता या जातिव्यवस्था जैसे विषयों पर चर्चा शुरू हुई नहीं कि वे ‘भारत माता की जय’ के उग्र नारे लगाते हुए तमाम असहमति जतानेवालों को कम्युनिस्ट, देशद्रोही और भारत माता के विरोधी करार देते हुए माहौल को हिंसक बना देते हैं. पढ़ाई-लिखाई से उनको खास वास्ता नहीं. वे जानते हैं कि बात हाथापाई पर उतार दी गयी, तो राष्ट्रवाद या देशभक्ति पर पढ़े-लिखे दिमागों के बीच कोई तर्कशील विमर्श असंभव बन जायेगा. दूसरी तरफ वे युवा हैं, जो सरकारी स्कूलों से निकले हैं.
उनमें से अधिकतर गरीबी की वजह से यूनिवर्सिटी जा नहीं सकते या फिर लद्धढ़ पढ़ाई की वजह से अच्छे विश्वविद्यालय की बजाय निजी शिक्षा संस्थानों में आ जाते हैं, ताकि कैंपस उनको प्लेसमेंट दिलवा दें. बेरोजगारी का मुंह है कि सुरसाकार बनता जा रहा है. सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरियों के साक्षात्कारों में अक्सर अर्हताहीन पाये गये ये दोनों ही वर्ग ठगा हुआ महसूस करते हैं.
इस पीढ़ी की नब्ज सत्तारूढ़ पार्टी जानती है, इसलिए उसकी हरचंद कोशिश है कि छीजती किसानी, घटती उत्पादकता और बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाकर इन युवाओं का मनोबल न गिराया जाये. आंकड़ों से वे देश को तेज रफ्तार तरक्की करता दिखा रहे हैं.
दो विश्वयुद्धों और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े अपने लंबे निजी अनुभव और शोध से संविधान निर्माताओं ने भली तरह जान लिया था कि श्वेत चमडी को श्रेष्ठतर माननेवालों की गढ़ी पश्चिमी लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य की तस्वीर, जमीन पर उतरकर कई बार बाहर से लाये या बुलाये गये अश्वेत अल्पसंख्य समुदायों और जातीय गुटों के प्रति काफी आक्रामक और असहिष्णु बन जाती है.
सैकड़ों साल बाद भी उसमें अन्य मूलों के लोगों को विजातीय मानने के फासीवादी बीज छुपे रहते हैं. वे आर्थिक या दूसरी तरह की घरेलू असुरक्षा के क्षणों में अचानक बाहर आकर सत्ता को अन्य जातीय गुटों के विरोध में लामबंद करने लगते हैं.
आज भारत माता की रक्षा के नाम पर सेना की एक धर्म विशेष की प्रतीकात्मकता लिये हुए छवि को धर्मनिरपेक्ष मानी गयी सेना की पहचान बनाया जा रहा है.
लेखक और पत्रकार ही नहीं सेना के अनुभवी सेवानिवृत्त जनरल तक इस तरह युद्ध को एक जुनूनी धार्मिक उत्सव बनाने के विरोध में आवाज उठा रहे हैं. पर जवाब में बातचीत की बजाय धमकियों, गालियों का सिलसिला चिंताजनक है. चुनावी स्वार्थों के लिए इस युवा पीढ़ी को चुनावी राजनीति के कड़वाहट भरे पहरुए बनाने में किसका भला है?
क्या यह अजीब नहीं कि देश में पिछले पांच साल में लाखों किसानों ने और तकनीकी शिक्षा के उच्च केंद्रों तथा ट्यूशन-कोचिंग के सैकड़ों छात्रों ने भविष्य को अंधेरा मानकर आत्महत्या कर ली. उनकी अकाल मौतों को लेकर शहरी या ग्रामीण युवा सड़क पर नहीं उतरे, लेकिन जातिगत आरक्षण और गोकशी पर उनके जत्थे डंडे-तलवारें लेकर सड़कों पर उमड़ आये.
यह युवा भीड़ हिंसक हो गयी है. उसे इसकी आदत सुनियोजित तरीके से डाली गयी है. हमारा लोकतंत्र लगातार एकमुखापेक्षी और केंद्रीकृत बन रहा है, जहां महान नेता युवाओं से इकतरफा बात करते हैं, उनको सफल खिलाड़ी, सफल बाबू, सफल परीक्षार्थी योद्धा बनने के गुर देते हैं, बिना यह पूछे कि युवा खुद क्या चाहते हैं? उनके अपने मन में क्या सवाल क्या शंकाएं कुलबुला रही हैं?
यह अजीब है कि अगर हिंसक युवा सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा के हुए, तो उनको भीतर ले जाकर पुचकारती है और बाहर निकलकर उनकी शिक्षा और शिक्षकों को दोष देती है. दूसरी तरफ वह पुलिस से कहती है कि सरकार पर प्रश्नचिह्न लगाने की जुर्रत कर रहे छात्रों को गिरफ्तार कर थाने ले जाये और उन पर ऐसी धाराएं लगाये, जिनका बाद में कोई कानूनी आधार नहीं बनता है और कुछ दिन बाद वे पिट-पिटा के जेल से छूट जाते हैं.
मतदान की पूर्व संध्या पर युवाओं के भीतर यह छटपटाहट किसी गहरी मनोवैज्ञानिक वजह से नहीं उमड़ रही है. वह इसलिए हो रही है कि उनकी स्थायी तकलीफें- बेरोजगारी, शिक्षण संस्थाओं की कमी, सरकारी शिक्षा प्रणाली में लगातार सरकारी दखलंदाजी से उसका कबाड़ीकरण बड़ी चुनावी रैलियों में कांटे का मुद्दा बनकर नहीं उभर रहा है.
कश्मीर या पूर्वोत्तर छोड़ भी दें, तो भी तीन तलाक, सबरीमला मंदिर प्रवेश, सीबीआई की उठापटक, हथियारों की खरीद के कथित घोटाले सामने लाने-छिपाने में व्यस्त सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों उनको खुद अपने परिप्रेक्ष्य में उदासीन दिख रहे हैं. जब बड़े मर्यादाओं का दामन छोड़ दें, तो भी युवाओं की मर्यादा कायम रहेगी, यह मानना एक भोला सपना ही तो है.
फिर भी, युवा वोट ही इस बार तय करेगा कि अगले पांच सालों तक भारत का राजनीतिक नक्शा कैसा होगा. इसी पीढ़ी ने देखा है कि चार बरस तक गुम-सुम आज्ञाकारी बनता गया देश आज किस तरह विद्रोही बन चला है. सवाल यह है कि कायर या प्रलापी? उनका मूल व्यक्तित्व क्या है?
या दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? युवा वोट कई नये दरवाजे खोल सकता है और उनको बंद भी कर सकता है. उसका वोट न देना भी एक तरह का वोट ही होगा, क्योंकि नतीजे उसे भी अपने बहुआलोचित माता पिताओं के साथ झेलने ही होंगे. बेहतर हो कि वह अकर्म से दुनिया को बदतर बनाने की बजाय सकर्मक तरीके से अपनी सदी के भारत का नया चेहरा गढ़ना और उसमें छुपे खतरों से जूझना शुरू करे.

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें