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बिहार का सॉफ्ट पावर

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मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com हाल में दुनियाभर के देशों ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कला और संस्कृति की शक्ति को सॉफ्ट पावर के रूप में स्वीकार किया है. लेकिन, इस विचार के जनक के रूप में मगध सम्राट अशोक को माना जाना चाहिए. कलिंग युद्ध की विभीषिका को देखकर अशोक बैचेन हो गये […]

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मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
हाल में दुनियाभर के देशों ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कला और संस्कृति की शक्ति को सॉफ्ट पावर के रूप में स्वीकार किया है. लेकिन, इस विचार के जनक के रूप में मगध सम्राट अशोक को माना जाना चाहिए. कलिंग युद्ध की विभीषिका को देखकर अशोक बैचेन हो गये और राज्य विस्तार के लिए युद्ध नीति का त्याग किया.
राज्य के विस्तार के बदले फिर उन्होंने विचारों के विस्तार की नीति बनायी और मगध के उत्तरी-पूर्वी भाग में लोगों को भेजा. नेपाल, म्यांमार, भूटान, चीन, बांग्लादेश, जापान आदि देशों में बुद्ध के विचारों का विस्तार हुआ.
उसके बाद इन देशों से लाखों लोग अध्ययन के लिए भारत आते रहे और आज भी हमारा संबंध उनसे बना हुआ है. सम्राट अशोक का सॉफ्ट पावर किसी राष्ट्र को गुलाम बनाकर उसका शोषण करने से अलग, विश्व कल्याण के लिए था.
भारत को अपने ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ यानी भारत के उत्तरी-पूर्वी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए सॉफ्ट पावर को ही अपना आधार बनाना चाहिए. इस नयी सामरिक नीति के लिए भौगोलिक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण जगह बिहार का पूर्णिया जिला है. बिहार के इस भूभाग के अंतरराष्ट्रीय महत्व पर कभी ध्यान नहीं दिया गया. पूर्णिया भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्यों को हिंदी प्रदेश से तो जोड़ता ही है, यह उत्तरी-पूर्वी देशों का भी द्वार है.
पूर्णिया के इसी सामरिक महत्व के कारण यहां भारतीय वायु सेना का एक सक्षम केंद्र बनाया गया था. लेकिन, अब यहां वायु सेना केंद्र की जगह एक सांस्कृतिक केंद्र बनाये जाने की जरूरत है, ताकि उत्तरी-पूर्वी राज्यों और इस इलाके के पड़ोसी देशों के साथ भारत का संबंध सुदृढ़ हो सके.
भारत के ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ के तहत जिस अंतरराष्ट्रीय सड़क यातायात मार्ग की कल्पना की गयी है, उसकी सफलता के लिए भी जरूरी है कि पूर्णिया को एक सांस्कृतिक-बौद्धिक केंद्र के रूप में स्थापित किया जाये.
सॉफ्ट पावर के केंद्र के रूप में उभरने के लिए पूर्णिया की संस्कृति में अपार संभावनाएं हैं. सबसे पहले तो यह समझ लेना उचित होगा कि पूर्णिया बिहार का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र है. यहां कई भाषाओं का संगम है और उनमें से अनेक भाषाओं में महत्वपूर्ण साहित्य की रचना हुई है. उदाहरण के लिए यहां संस्कृत, हिंदी, बंगला, उर्दू, फारसी, मैथिली, सूरजापुरी, नेपाली, आदि कई भाषाओं का संगम आप देख सकते हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि पूर्णिया में एक अंतरराष्ट्रीय वार्षिक साहित्य महोत्सव हो, जिनमें भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों और पड़ोसी देशों की भाषाओं के विद्वानों, लेखकों, कवियों को बुलाया जाये. पूर्णिया की अपनी समृद्ध साहित्यिक परंपरा रही है, इसलिए इस तरह का महोत्सव सर्वथा उचित होगा.
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के अलावा यहां कई बड़े साहित्यकार हुए हैं जैसे, अनूपलाल मंडल, जनार्दन झा ‘द्विज’, सतीनाथ भादुड़ी, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, मदनेश्वर मिश्र आदि. शायद कम लोगों को मालूम है कि बंकिमचंद चैटर्जी के उपन्यास ‘आनंद मठ’ की पृष्ठभूमि भी पूर्णिया रही है. बड़ी बात यह है कि आज भी साहित्य की परंपरा मरी नहीं है और चंद्र किशोर जायसवाल जैसे अनेक लेखक पूर्णिया की धरती को धन्य कर रहे हैं.
अनेक भाषाओं में ऐसे साहित्यकार अभी हैं, जिनके बारे में हमें ठीक से मालूम नहीं है. पूरे उत्तरी-पूर्वी हिस्से के साहित्य और साहित्यकारों के बीच संवाद की शुरुआत पूर्णिया से की जा सकती है. इस संवाद के लिए यहां वार्षिक साहित्य सम्मेलन के अलावा एक बहुभाषी अनुवाद केंद्र स्थापित किया जा सकता है.
इसमें कोई शक नहीं है कि कला, साहित्य और संगीत के मामले में पूर्णिया इस राज्य का सबसे महत्वपूर्ण जिला रहा है. यहां शास्त्रीय संगीत की महत्वपूर्ण परंपरा फली-फूली है. शायद राज्य का एक मात्र शहर है, जहां कलाभवन नाम की संस्था शहर के बीच शोभायमान है.
यहां अनेक तरह के लोकगीतों और नाटकों की परंपरा है. उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के तत्वावधान में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशीष घोष ने अपने शोध में पाया कि भारत के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में बिहुला नृत्य की एक समृद्ध परंपरा है. यह परंपरा इस भौगोलिक क्षेत्र को पूर्णिया के माध्यम से भारत के हिंदी पट्टी से जोड़ती है. इसलिए ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि पूर्णिया में देश के सॉफ्ट पावर का महत्वपूर्ण केंद्र होने की क्षमता है.
पिछले कुछ दशकों में पूर्णिया बिहार के एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य केंद्र के रूप में भी उभरा है और इसमें चिकित्सा पर्यटन केंद्र बनने की क्षमता भी है. पड़ोसी देशों से लोग चिकित्सा के लिए यहां आते हैं. यदि सरकार सुनियोजित ढंग से चिकित्सा की सुविधाओं को विकसित करे, तो पूर्णिया एक अंतरराष्ट्रीय आकर्षण की जगह बन सकती है. और भारत उत्तर-पूर्वी देशों के लिए चिकित्सा को सॉफ्ट पावर के रूप में उपयोग में भी ला सकता है.
खास बात यह है कि अब पूर्णिया के बुद्धिजीवी इस बात को लेकर जागरूक हो रहे हैं. आप लोगों को इस विषय पर मंथन करते सुन सकते हैं. अभी-अभी ऐसे ही मंथन के परिणामस्वरूप ‘सब-हिमालयन रीसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की गयी है, जिसके उद्देश्य में बताया गया है कि यह संस्था सीमांचल क्षेत्र की समस्याओं के अलावा उत्तरी-पूर्वी राज्यों और भारत के पड़ोसी देशों की समस्याओं पर शोध का केंद्र होगा.
ज्ञातव्य है कि इस क्षेत्र में प्रकृति की बड़ी कृपा के बावजूद सीमांचल के चार जिले- पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज और अररिया- देश के सबसे गरीब जिलों में भी आते हैं. यह भी एक विरोधाभास है, जिसकी व्याख्या जरूरी है.
सबसे बड़ी चुनौती है इन बातों को आम लोगों तक ले जाने की, ताकि राजनेताओं और अधिकारियों को भी इस पर काम करने लिए बाध्य किया जा सके. इस शोध केंद्र ने बिना किसी सरकारी सहयोग के अपने ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी ली है. यह भी रोचक है कि पूर्णिया में जनसहयोग की बड़ी परंपरा रही है.
पूर्णिया महाविद्यालय-विश्वविद्यालय, महिला महाविद्यालय, जिला स्कूल, गर्ल्स स्कूल, आदि आदि अनेक संस्थाएं हैं, जिनके निर्माताओं ने अपना नाम उससे जोड़ना उचित नहीं समझा. यहां तक कि विद्या विहार विद्यालय, या विहार तकनीकी संस्था जैसे निजी संस्थाओं ने भी इसमें किसी व्यक्ति का नाम नहीं जोड़ा.
उम्मीद है कि भविष्य में ऐसी अनेक संस्थाएं सामने आयेंगी, जो पूर्णिया को सॉफ्ट पावर के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में स्थापित करेंगी. किसी समय राज्य और केंद्र सरकार की आंखें भी खुलेंगी और तब पूर्णिया की संभावना का भरपूर उपयोग राष्ट्रहित में हो पायेगा.

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