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क्या शीत युद्ध की स्थिति बन रही है?

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प्रो सतीश कुमार सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा singhsatis@gmail.com पिछले चार वर्षों में चौथी बार अमेरिका और रूस ने एक-दूसरे के विरुद्ध शीत युद्ध जैसी कूटनीतिक तल्ख माहौल को जन्म दिया है. साल 2014 में साइबेरिया पर रूसी आक्रमण के बाद सीरिया और जासूसी कांड के बाद परमाणु हथियारों से संबंधित ‘आइएनएफ संधि-1987’ दोनों देशों के […]

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प्रो सतीश कुमार
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा
singhsatis@gmail.com
पिछले चार वर्षों में चौथी बार अमेरिका और रूस ने एक-दूसरे के विरुद्ध शीत युद्ध जैसी कूटनीतिक तल्ख माहौल को जन्म दिया है. साल 2014 में साइबेरिया पर रूसी आक्रमण के बाद सीरिया और जासूसी कांड के बाद परमाणु हथियारों से संबंधित ‘आइएनएफ संधि-1987’ दोनों देशों के बीच विवाद का कारण बनी है.
कुछ ही दिन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चेतावनी दी है कि जब तक रूस और चीन अपने हथियारों पर अंकुश नहीं डालते, तब तक अमेरिका भी अपने आण्विक हथियारों काे बढ़ाता रहेगा. ट्रंप ने साफ कर दिया है कि अमेरिका आइएनएफ संधि से अलग हो जायेगा. इस संधि पर उसने शीत युद्ध के दौरान हस्ताक्षर किये थे.
आइएनएफ को मध्यम दूरी की परमाणु शक्ति के रूप में जाना जाता है. शीत युद्ध के दौरान यूरोप और अमेरिका के बीच मध्यम दूरी के आण्विक प्रक्षेपास्त्रों की बाढ़ आ गयी थी. जीवन संकट में दिखने लगा था. ऐसे में गोर्बाचेव जैसे नायक का 1985 में रूस का नेता बनना दुनिया में हथियारों की कटौती का बड़ा कारण बना.
गोर्बाचेव और अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के बीच 1 दिसंबर, 1987 को संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसका अनुपालन जून 1988 से शुरू हुआ. वर्ष 1999 तक 2700 से ज्यादा मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट किया गया. शीत युद्ध की बेचैनी से राहत देने के सबसे कारगर और सार्थक पहल के रूप में इस संधि को जाना जाता है. इस प्रयास के लिए गोर्बाचेव और रोनाल्ड रीगन को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया था.
अमेरिका-रूस के बीच आइएनएफ संधि द्विपक्षीय थी. लेकिन बाद में यूरोप के कई अन्य देश भी इस संधि के अंग बन गये थे. संधि में एक-दूसरे के हथियारों को नष्ट करने और उसकी तह तक जाकर जांच करने की आजादी थी.
दो दशकों तक संधि पर सवाल नहीं किये गये. कारण, अमेरिका विश्व राजनीति को अपने तरीके से चलाता रहा. शीत युद्ध के बाद दुनिया में दो तरह के सैनिक संगठन सक्रिय थे, पहला ‘वारसा पैक्ट’ और दूसरा ‘नाटो’. वारसा पैक्ट बंद हो गया, लेकिन नाटो का वटवृक्ष फैलता रहा. रूस को चारों ओर से घेरने की हर कोशिश को अमेरिका अंजाम देता रहा. साल 2000 में पुतिन रूस के राष्ट्रपति बने और शीत युद्ध के बाद रूस के सिर से अपमानजनक स्थिति की काली छाया को हटाने का काम शुरू हुआ. इसी प्रयास में रूस कई ऐसे हथियारों का निर्माण करता है, जो संधि के अनुसार प्रतिबंधित था.
अमेरिका ने रूस को इसकी पहली सूचना 2010 में दी और 2017 में उसने रूस को चेतवानी दी. जब बात चेतवानी से भी नहीं बनी, तब अमेरिका ने इस संधि से खुद को अलग करने की धमकी दे डाली.
तीन महत्वपूर्ण प्रश्न हैं. पहला, क्या यह अमेरिका की सिर्फ धमकी है या इसमें कुछ सच्चाई भी है? दूसरा, अगर अमेरिका ऐसा करता है, तो रूस का निर्णय क्या होगा? तीसरा, क्या चीन भी इस संधि में शामिल हो सकता है और इस पर भारत की सोच क्या होगी?
अमेरिका की नजर में रूस कम चीन ज्यादा खतरनाक है. चीन इस संधि का हिस्सा नहीं है, इसलिए अमेरिका इस कोशिश में है कि यह संधि टूट जाये और इसका निर्माण फिर से हो, जिसमें चीन को भी शामिल किया जाये.
अगर ऐसा हुआ, तो चीन के 95 हथियार इस संधि के घेरे में आ जायेंगे. रूस भी चीन को इसमें खींचना चाहता है. अमेरिकी धमकी को रूस एक षड्यंत्र मानता है. रूस की नजर में अमेरिका पुनः विश्व व्यवस्था पर कब्जा करना चाहता है, इसलिए यह नाटक कर रहा है.
यह बात उल्लेखनीय है कि इस संधि के बाद भी दुनिया बहुत सुरक्षित नहीं थी. जिन हथियारों पर प्रतिबंध लगे थे, उससे ज्यादा खतरनाक हथियार दुनिया में उपलब्ध थे. लेकिन सोच थी दुनिया को हथियारों से मुक्त करने की. रूस की निगाह में यूरोप से ज्यादा महत्वपूर्ण पूर्वी एशिया और एशिया पैसिफिक है, जो समुद्री रास्तो में पड़ता है.
इस संधि में जमीनी प्रक्षेपास्त्रों तक की ही बात है. पनडुब्बी इस दायरे में नहीं आता है. अमेरिका के लिए अपने नये समीकरण में इस संधि के बनने और बिगड़ने से बहुत अंतर नहीं पड़ेगा. लेकिन, शीत युद्ध जैसा माहौल बन सकता है, जो अच्छा नहीं होगा. इसमें कुछ पेचदगी भी है. पहला, संधि को बहुपक्षीय बनाना है. चीन के अलावा नार्थ कोरिया, जापान और भारत को भी शामिल करने की बात उठ सकती है.
अमेरिका और चीन के बीच में सामरिक तनातनी तो है ही, रूस भी चीन के बढ़ते कद से सशंकित है. चूंकि रूस और चीन के बीच युद्ध हो चुका है, तो इसकी संभावना बन सकती है कि चीन और रूस पुनः एक-दूसरे के सामने हों. अगर चीन को इसमें शामिल करने का दबाव बना, तो चीन इस घेरे में जापान और भारत को भी शामिल करने का दबाव बनायेगा.
फिलहाल तो रूस के साथ भारत अपने पुराने समीकरण को सुधारने के प्रयास में जुट गया है. जापान और पैसिफिक देश मुख्यतः चीन की दादागिरी से परेशान हैं. इसलिए उनकी कोशिश चीन की शक्ति पर अंकुश लगाने की है.
ऐसे में, इस नयी संधि को केवल आइएनएफ संधि से जोड़कर नहीं समझा जा सकता है. यह नये विश्व व्यवस्था के बदलते समीकरण का द्योतक है. न केवल पूरा यूरोप, बल्कि पूरे एशिया के तमाम देश इस नये परिवर्तन से प्रभावित होंगे. भारत के लिए भी यह परिवर्तन बहुत खास है. जाहिर है, अमेरिका का आगामी कोई भी निर्णय हर देश के लिए कुछ नया सोचने का कारण बनेगा.

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