श्रम के भूमंडलीकरण की जरूरत
कृष्ण प्रताप सिंह,वरिष्ठ पत्रकार kp_faizabad@yahoo.com विडंबना देखिए कि भूमंडलीकरण के भरपूर व्याप जाने के बावजूद दुनिया के कई देशों में मजदूर दिवस सरकारी छुट्टी का दिन है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के संस्थापक सदस्य भारत में नहीं. ऐसा क्यों है? दरअसल, 19वीं शताब्दी के नौवें दशक तक मजदूर अत्यंत कम व अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह […]
कृष्ण प्रताप सिंह,वरिष्ठ पत्रकार
kp_faizabad@yahoo.com
विडंबना देखिए कि भूमंडलीकरण के भरपूर व्याप जाने के बावजूद दुनिया के कई देशों में मजदूर दिवस सरकारी छुट्टी का दिन है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के संस्थापक सदस्य भारत में नहीं. ऐसा क्यों है? दरअसल, 19वीं शताब्दी के नौवें दशक तक मजदूर अत्यंत कम व अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे. सन् 1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने राबर्ट ओवेन की अगुआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठायी और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया, तो नारा था-आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम. उसके संघर्षों के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पायी थी कि इंग्लैंड के महिला व बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गयी थी. आॅस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को स्टोनमेंशन और मेलबोर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और मेलबर्न विश्वविद्यालय से पार्लियामेंट हाउस तक प्रदर्शन किया, तो 1866 में जेनेवा कन्वेंशन में इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन ने भी इस हेतु अपनी आवाज बुलंद की.
लेकिन, निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आयी, जब अमेरिका के शिकागो में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदर्शन किया और वहां की पुलिस, नेशनल गार्ड व घुड़सवार दस्ते उनके ऐसे बर्बर दमन पर उतर आये कि शिकागो की धरती रक्त से लाल हो गयी. तभी से उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है.
इस रूप में यह दिन श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को पुनर्स्थापित करने और शोषण के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाने का है. इसके मूल में कार्ल मार्क्स व फ्रेडरिक एंगेल्स का वह दर्शन है, जिसमें श्रम को मानव समाज के निर्माण की मूल प्रेरणा व संचालक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है और उसके व्यक्तिगत स्वरूप के बजाय सामाजिक स्वरूप पर जोर दिया जाता हैै.
लेकिन, भूमंडलीकरण के चोले में आयी नवउपनिवेशवादी नीतियों के ‘सफल’ पच्चीस सालों बाद हमारे देश के कई ‘सयाने’ लोग कहते हैं कि अब जब मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गये, न वे श्रमिक रहे, न वह श्रमिक एकता और कथित रूप से कुछ ज्यादा ही कुशल श्रमिकों का एक हिस्सा अपनी निजी उपलब्धियों व महत्वाकांक्षाओं के फेर में पड़कर योग्यता व प्रतिस्पर्धा के नाम पर मजदूर आंदोलन के मूल्यों से गद्दारी पर आमादा है, तो इस दिवस का क्या औचित्य है?
खासकर जब कार्ल मार्क्स के ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारे के बरक्स उन्मत्त पूंजी दुनिया में कहीं भी उपलब्ध सस्ते श्रम के शोषण का नया इतिहास रचने पर आमादा है और विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबावों के बीच अनेक पिछड़े देशों की चुनकर आनेवाली सरकारें भी उसी की राह चल पड़ी हैं.
इस आईने में देखें, तो मजदूर आंदोलनों के नेतृत्वों की समझदारी और रणनीतिक व सांगठनिक कौशलों पर सवाल उठाने का भी मन होता है. लेकिन, क्या इस एक पराजय से मजदूरों के दिन या उनके आंदोलनों की प्रासंगिकता खत्म हो गयी है? नहीं, आज भी न वर्ग-संघर्षों का इतिहास बदला है, न श्रम, उत्पादन व पूंजी का मूल संबंध बदला है. आज जब मजदूरों को अनेक आधारों पर विभाजित कर उन्हें नये अत्याचारों व असुरक्षाओं के हवाले किया जा रहा है, ऐसे में प्रगतिशील और क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों की पहले से ज्यादा आवश्यकता है.
यह समझने की भी जरूरत है कि मजदूर आंदोलन लगातार गलतियां करके समाजवादी दर्शन की उन उम्मीदों को नाउम्मीद न कर डालते, जिनके तहत समझा गया था कि वे क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों की अगुआई करनेवाले हिरावल दस्ते के रूप में काम करेंगे, तो आज हाल इतना बुरा नहीं होता. इस बुरे हाल को अच्छा करना है, तो उन्हें अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचना और शंकरगुहा नियोगी की इस सीख को मानना होगा कि मजदूर संगठन सिर्फ आठ नहीं, चौबीस घंटों के लिए होने चाहिए, ताकि उनकी बहुआयामी सक्रियता संभव हो सके.
मजदूर आज बड़े संघर्षों से हासिल सुरक्षाएं गंवाकर बर्खास्तगी व छंटनी आदि के शिकार हो रहे हैं, ठेके पर काम करने या वीआरएस लेकर घर बैठ जाने को मजबूर हैं, तो इसलिए कि निरंकुश बड़ी पूंजी का एकतरफा भूमंडलीकरण जहां ‘देयर इज नो आॅल्टरनेटिव’ के घातक प्रचार के सहारे अपनी जड़ें लगातार गहरी करता जा रहा है, वहीं श्रम के भूमंडलीकरण की कहीं कोई चर्चा ही नहीं है!
यकीनन, निर्बंध पूंजी के बरक्स निर्बंध श्रम की मांग के लिए यही सही समय है. पूंजी के भूमंडलीकरण के प्रवर्तक अमेरिका तक का मन अब, अपने अंतर्विरोधों के ही कारण सही, उससे उचाट हो रहा है और वह ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा दे रहा है. अमेरिका द्वारा अमेरिकियों के नये संरक्षणवाद के पीछे उसका अचानक उभर आया राष्ट्रवाद ही नहीं, श्रम के भूमंडलीकरण के अंदेशों से डरा हुआ अमेरिकी मन भी है. उससे पूछा ही जाना चाहिए कि बड़ी पूंजी के निर्बंध प्रवाह के लिए राष्ट्रों व राज्यों की सीमाओं व सत्ताओं के भरपूर अतिक्रमणों के बाद श्रम को निर्बंध होने से रोकने की लड़ाई वह नये संरक्षणवाद के ‘पुराने हथियार’ से कैसे जीतेगा?