बिन बेटी सब सून!
II मुकेश कुमार II टिप्पणीकार मेरा मन बहुत बेचैन है. हर पल एक अनजाने-से डर का साया मंडराते रहता है. इस डर को आप तब और शिद्दत से महसूस कर पायेंगे, जब आप किसी प्यारी सी नटखट बहन के भाई होंगे, किसी अबोध नन्हीं परी के पिता होंगे, और उससे भी बड़ी बात कि आपके […]
II मुकेश कुमार II
टिप्पणीकार
मेरा मन बहुत बेचैन है. हर पल एक अनजाने-से डर का साया मंडराते रहता है. इस डर को आप तब और शिद्दत से महसूस कर पायेंगे, जब आप किसी प्यारी सी नटखट बहन के भाई होंगे, किसी अबोध नन्हीं परी के पिता होंगे, और उससे भी बड़ी बात कि आपके हृदय से संवेदना की लहर भी उठती हो. तभी आप समझ पायेंगे कि स्त्री के इन रूपों के बगैर पुरुष का संसार कितना रूखा-सूखा और बेढब है.
पुरुष का मन स्त्री के मन से सर्वथा भिन्न है. पुरुष में वह संयम और धैर्य कहां, जो एक स्त्री में पायी जाती है. परंतु, इसका यह मतलब नहीं कि आप अपनी हैवानियत का नंगा नाच कहीं भी दिखाने लगें! बेशक किसी को देखकर आपकी भावनाएं सुलगती हों, आप कल्पनालोक में विचरण करने लगते हों, लेकिन तभी इस चुपख्याली के बीच आपको किसी अपने का ख्याल आये, जिससे आपकी सुलगती जमीन पर एक शीतलता खुद पसर जाये और आप अपने आपे में लौट आयें, एक जिम्मेदार और संवेदनशील इंसान से इतनी सी उम्मीद तो बनती ही है. है कि नहीं? वरना इच्छाओं का क्या है, इंसान अगर खुद को संयम और आत्मनियंत्रण न रखें, तो कब का स्वाहा हो जायें.
एक कहावत थी- जवान बेटी के बाप को नींद नहीं आती. लेकिन, आज माहौल बदल चुका है और इस कहावत का अर्थ भी. अब कहना होगा- एक बेटी के परिवार को पूरी जिंदगी चैन की नींद नहीं आती. हमने नारे खूब लगाये- जंगल बचाओ, नदी बचाओ और अब बेटी बचाओ. लेकिन बड़ा बदलाव सिर्फ नारों से नहीं, हौसलों से होता है. यही कारण है कि हम आज न जंगल बचा पाये, न नदी और अब हम बेटियों को भी कहां बचा पा रहे हैं.
कुछ पैदा होने से पहले ही मार दी जाती हैं, तो कुछ पैदा हो जाने के बाद घुटकर मरती हैं. ऐसा क्यों?
निर्भया या फिर इसकी जैसी और भी कई गुमनाम बच्चियां, जो गुम हो गयीं इस कुत्सित खेल में. हवस का यह कैसा नशा है, जिसमें कुछ भी नजर नहीं आता, उम्र कैसी भी हो, बस वह मादा होनी चाहिए. आग जंगल की तरह पकड़ रही है, पर सब चुप हैं. कुछ भी ठीक नहीं, पर सब मजे में हैं. सिर्फ इसलिए कि वह आपकी कोई नहीं थी और आप चादर तान कर सो जाते हैं.
लेकिन, यह निश्चिंतता नहीं, बल्कि अकर्मण्यता है. इससे पहले कि घर के बच्चे आपसे बलात्कार या रेप का मतलब पूछें, बच्चियां टीवी-अखबारों को देखकर सहमी सी रहें, हमें और सरकार दोनों को जागना होगा. कानून का शिंकजा मजबूत तो हो ही, साथ ही ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार भी जरूरी है.
कोई भी व्यक्ति अपराध होने से पहले अपना सुराग जरूर छोड़ता है. इसलिए ऐसे मनोवृत्ति वाले लोगों की पहचान कर उनकी मोरल काउंसेलिंग की जाये, तो कुछ जिंदगियां बर्बाद होने से जरूर रोकी जा सकती हैं.