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संतन को कहा सीकरी सों काम?

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II रामबहादुर राय II वरिष्ठ पत्रकार rbrai118@gmail.com मध्य प्रदेश के लिए यह चुनावी वर्ष है. जिन पांच संतों (कहना चाहिए मठाधीशों- नर्मदानंद महाराज, हरिहरानंद महाराज, कंप्यूटर बाबा, भय्यू महाराज एवं पंडित योगेंद्र महंत) को एमपी सरकार ने राज्य मंत्री का दर्जा दिया है. इसे लेकर सबके अपने-अपने पक्ष हो सकते हैं. पहली बात तो यह […]

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II रामबहादुर राय II
वरिष्ठ पत्रकार
rbrai118@gmail.com
मध्य प्रदेश के लिए यह चुनावी वर्ष है. जिन पांच संतों (कहना चाहिए मठाधीशों- नर्मदानंद महाराज, हरिहरानंद महाराज, कंप्यूटर बाबा, भय्यू महाराज एवं पंडित योगेंद्र महंत) को एमपी सरकार ने राज्य मंत्री का दर्जा दिया है. इसे लेकर सबके अपने-अपने पक्ष हो सकते हैं. पहली बात तो यह है कि इन संतों को इस तरह के किसी दर्जे की जरूरत नहीं है. दरअसल, अयोध्या आंदोलन के बाद से संत और राजनीति का घालमेल हुआ, जिसके चलते आज संत भी राजनीति में हैं और राजनीति भी संतों के चरण में जा रही है.
इसी बीच, सेक्यूलर की लंबरदार पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी जब एक संत के दरवाजे जाकर उनके चरण चूम रहे हैं, तब भाजपा के एक मुख्यमंत्री शिवराज का संतों के दबाव में आ जाना कोई आश्चर्य नहीं है. वैसे भी, शिवराज पहले से ही संतों के यहां जाते रहे हैं.
मुद्दा यह है कि नर्मदा की परिक्रमा पहले शिवराज सिंह चौहान ने की और एक बड़ा अभियान चलाया कि नर्मदा के किनारे करोड़ों पेड़ लगाये जायेंगे. धर्मगुरु जग्गी वासुदेव ने भी इसी तरह का प्रयोग दक्षिण में किया और नदी की सफाई के लिए एक अभियान चलाया. उसके बाद संत भी इसमें आ गये. संतों ने नर्मदा घोटाला रथ यात्रा शुरू कर दी, जिसे इस चुनावी वर्ष में झेल पाना शिवराज सिंह के लिए मुश्किल था.
इसलिए लचीलापन दिखाते हुए उन्होंने पांच संताें को राज्य मंत्री का दर्जा दे दिया. पांच संतों में एक नाम ऐसा है, जो मध्य प्रदेश में बहुत मशहूर हैं- भय्यू जी महाराज. इनका संबंध संघ व भाजपा से है और इनका प्रभाव क्षेत्र एवं प्रतिष्ठा बहुत व्यापक है.
शिवराज सिंह चौहान के इस निर्णय को आप सीधे-सीधे गलत भी नहीं कह सकते और सही भी नहीं कह सकते. यह निर्णय एक तरह से उचित भी है और अनुचित भी. उचित कैसे है? तो अगर कोई यह जांच करना चाहता है कि नर्मदा के किनारे पेड़ लगे या नहीं, कितना पैसा खर्च हुआ, तो इसके लिए उस व्यक्ति के पास कोई अधिकार होना चाहिए.
कोई अाधिकारिक व्यक्ति ही कलक्टर को बुलाकर यह पूछ सकता है कि नर्मदा किनारे पेड़ लगाने में कितना पैसा खर्च हुआ? हमारे यहां तो नियम-कानून यही बने हुए हैं कि किसी कलक्टर से पूछताछ का अधिकार सामान्य नागरिक का नहीं है. हां, वह आरटीआई डालकर यह पूछ सकता है. लेकिन, अगर किसी को कलक्टर को तलब करना हो, तो वह राज्य मंत्री, कैबिनेट मंत्री कर सकता है. इस नाते इन संतों को राज्य मंत्री का दर्जा दिया जाना उचित जान पड़ता है.
अब अनुचित कैसे है? दरअसल, भारतीय लोकतंत्र में समाज नाम की जो शक्ति है, उसी की एक प्रतिनिधि संस्था है- सरकार. ऐसे में शिवराज सिंह का यह फैसला इस मायने में अनुचित है कि समाज की प्रतिनिधि संस्था (सरकार, मुख्यमंत्री, या विधानसभा के रूप में) सिर्फ एक छोटी-सी इकाई भर है, पूरा समाज नहीं है.
अब चूंकि संत हमारे समाज का प्रतिनिधि हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य मंत्री का दर्जा लेकर संतों ने संत समाज को छोटा किया और चुनावी मजबूरियों में शिवराज ने इस बात को स्वीकार कर लिया. इससे मध्य प्रदेश में एक भयादोहन की राजनीति पैदा होगी. यह राजनीति मध्य प्रदेश के चुनाव में किसका नुकसान-फायदा करेगी, यह वक्त बतायेगा. लेकिन, इसको अगर बोलचाल में कहें, तो यह ‘ब्लैकमेलिंग की पॉलिटिक्स’ है और जाने-अनजाने संत इस पॉलिटिक्स के शिकार हो गये हैं.
संतों का हमारे समाज में स्थान उच्चता का स्थान है और वे जहां विराजमान होते हैं, वह जगह कुछ ऊंचे पर बनायी जाती है. इसका अर्थ यह है कि वे संत-महंत हैं और सैकड़ों साल की परंपरा के अनुसार, समाज में संत श्रेष्ठ हैं और उनकी इस श्रेष्ठता का सम्मान करने के लिए उनको ऊंची जगह दी जाती है.
वहीं उसके वस्त्र का जो रंग है, वह उसके त्याग का प्रतीक है. अब त्याग का प्रतीक एक संत जब समाज पर दबाव डालेगा कि उसे मंत्री का दर्जा दिया जाये, तो यह अनुचित बात तो होगी ही.
नर्मदा के किनारे पेड़ लगे या नहीं लगे, कितने पैसे खर्च हुए, इसे लेकर संत आगे बढ़ते और इस पर राजनीति नहीं होती, तो मुझे लगता है कि उसका ज्यादा असर पड़ता. राज्य मंत्री बनने के बाद अब अगर कोई जांच कराते भी हैं, तो उस जांच का कोई परिणाम नहीं निकलेगा और न ही उस जांच का कोई प्रभाव ही होगा. बल्कि, माना यह जायेगा कि आगामी चुनाव की चालबाजियों का ही यह एक हिस्सा है.
इस बात का सरकार पर कोई असर पड़े या न पड़े, लेकिन संत समाज पर इसका असर पड़ना तय है. चुनावी वर्ष में संतों को नाराज न करने के लिए राजनीति में जो घालमेल हो रहा है, उसके मद्देनजर यही कहा जा सकता है कि शिवराज सिंह ने संतों के सामने साष्टांग दंडवत कर लिया है.
अब सवाल यह है कि क्या वास्तव में ये संत हैं? एक संत हुए हैं- कुंभनदास. इनको मुगल दरबार में ले जाने की बड़ी कोशिश हुई, लेकिन वह नहीं गये.
तब मुगल राजधानी फतेहपुर सीकरी थी. कुंभनदास ने कहा- संतन को कहा सीकरी सों काम? आवत जात पनहियां टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।। यानी एक संत को राजा के दरबार से क्या काम? आने-जाने में जूता भी टूटेगा और राम के भजन में विघ्न भी पड़ेगा. अब कहां वे कुंभनदास और कहां ये कंप्यूटर बाबा? अब इसे वक्त का खेल कहिए या हमारी संसदीय राजनीति का चमत्कार कहिए!
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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