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शांति से ही सधेंगे हित

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II मोहन गुरुस्वामी II वरिष्ठ टिप्पणीकार mohanguru@gmail.com चीन के साथ भारत के विशिष्ट संबंधों के संदर्भ में भारत की जीडीपी वृद्धि दर चीन से आगे निकल जाने पर हमारे द्वारा खुशी और संतोष का इजहार स्वाभाविक है. मगर, एक अहम तथ्य की प्रायः अनदेखी कर दी जाती है कि दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब विकास […]

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II मोहन गुरुस्वामी II
वरिष्ठ टिप्पणीकार
mohanguru@gmail.com
चीन के साथ भारत के विशिष्ट संबंधों के संदर्भ में भारत की जीडीपी वृद्धि दर चीन से आगे निकल जाने पर हमारे द्वारा खुशी और संतोष का इजहार स्वाभाविक है. मगर, एक अहम तथ्य की प्रायः अनदेखी कर दी जाती है कि दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब विकास के दो भिन्न दौर में हैं.
बारह लाख करोड़ डॉलर के साथ चीन की जीडीपी भारत की 2.4 लाख करोड़ डॉलर से लगभग साढ़े चार गुना ज्यादा है. भविष्य में चीन की जो भी दिशा होगी, वह विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं पर बड़ा असर डालेगी. इसकी तुलना में उस पर भारत का असर अथवा भारत द्वारा उससे उठाये फायदे महज मामूली ही रहे हैं.
अपनी आर्थिक वृद्धि की गति धीमी होकर 6.6 प्रतिशत पर पहुंच जाने के बावजूद चीन वैश्विक वृद्धि में सात से आठ सौ अरब डॉलर जोड़ रहा है, जबकि 7 प्रतिशत की अपनी तेज वृद्धि के बावजूद भारत उसमें सिर्फ 160 अरब डॉलर का ही योग कर पा रहा है. चीन जैसी स्थिति में आने के लिए भारत को अगले दशक अथवा उससे भी अधिक वक्त तक लगातार 9-10 प्रतिशत वृद्धि दर की दौड़ लगानी होगी, जिसकी कोई संभावना नहीं है.
अलबत्ता, हमारी जनसांख्यिक विशेषताएं हमारे पक्ष में हैं, मगर हमारे लिए अभी यह सिद्ध कर पाना शेष है कि हम उसके लाभ भी ले सकते हैं. करीब 1.3 अरब की आबादी के साथ चीन ने अब अपनी जनसंख्या स्थिर कर ली है और इस वजह से वह तेजी से बुढ़ा रही है. नतीजतन, इसका आर्थिक विकास अनिवार्य रूप से धीमा होता जायेगा. भारत के लिए जनसंख्या स्थिरता की यह संभावना साल 2050 तक बनेगी, जब हमारी आबादी 1.6 अरब पर पहुंच चुकी होगी. भारत की युवा आबादी अभी लंबे वक्त तक इसकी आर्थिक वृद्धि सुनिश्चित करती रहेगी.
इसलिए यदि भारत सात प्रतिशत की वर्तमान वृद्धि दर पर भी बना रहता है, तो साल 2050 तक यह चीन से आगे निकल जायेगा. यह और बात है कि भविष्य को लेकर भारत के तमाम दावे अब तक असत्य ही निकले हैं, जबकि चीन ने निराशावादियों को हमेशा ही निराश किया है.
दरअसल, चीन की असल समस्या तो अमेरिका तथा यूरोपीय संघ को उसके घटते निर्यात से पैदा होनेवाली है, क्योंकि खासकर अमेरिका उसके साथ अपना व्यापार घाटा पाटने को कटिबद्ध है. सस्ता श्रम आधारित उत्पाद भी अब वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देशों की ओर खिसक रहे हैं. चीन तथा भारत के भूगोल तथा हालिया इतिहास ने दोनों के संबंध कठिन कर दिये हैं, जिसके अशांत जल में अमेरिका अपने हितों की मछलियां पकड़ा करता है.
नर्म राजनय की चीनी रणनीति ने पूरे हिंद महासागरीय क्षेत्र के रणनीतिक माहौल को बदल कर रख दिया है, जहां वह तेजी से विभिन्न देशों को उदार शर्तों पर बड़ी ऋण राशियां देकर सड़कों, रेलों, बंदरगाहों, बांधों और ऊर्जा संयंत्रों जैसे ढांचागत क्षेत्रों में निवेश करने के अलावा सैन्य सहायता तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में राजनीतिक समर्थन देते हुए उनकी सद्भावना जीत रहा है.
चीन सिर्फ क्षेत्रफल तथा आबादी ही नहीं, बल्कि सैन्य-शक्ति की दृष्टि से भी बड़ा है. यह भी एक वजह है कि बाकी दुनिया उससे उसकी शर्तों पर समझौते किया करती है. पिछले दो दशकों से चीन का रक्षा बजट दो अंकों की वृद्धि दर बरकरार रखते हुए वर्ष 2000 के 30 अरब डॉलर से बढ़कर 2016 में 215 अरब डॉलर तक पहुंच गया. भारत इस बजट की बराबरी कभी नहीं कर सकता और हमें संख्याओं के इस खेल में पड़ने की जरूरत है भी नहीं. किंतु दूसरी ओर, हमें चीन के खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर भी नहीं देखना चाहिए. पूर्ववर्ती सोवियत संघ के विपरीत चीनी नेताओं को अपने आंतरिक नियंत्रण की चिंता किसी बाहरी नियंत्रण से कहीं अधिक रहती है.
पिछले ही साल चीन का आंतरिक सुरक्षा बजट पहली बार उसके सैन्य व्यय से आगे निकल गया. ऐसा मानने का औचित्य भी है कि अपनी आबादी के बढ़ते बुढ़ापे के कारण उसे स्वास्थ्य देख-रेख के कार्यक्रमों को सैन्य व्यय से वरीय प्राथमिकता देनी ही होगी.
भारतीय नियोजकों को चीन और पाकिस्तान की धुरी आशंकित करती रहती है, क्योंकि भारत का दोनों के साथ संघर्ष हो चुका है. उसी तरह चीनी नियोजकों को भविष्य की आर्थिक शक्ति के रूप में भारत की संभावनाएं तथा इसके साथ ही हिंद महासागर तटवर्ती राष्ट्रों को प्रभावित कर पाने के सामर्थ्य की चिंता सताती रहती है, क्योंकि जब अधिसंख्य चीनी आबादी छड़ी के सहारे चलेगी, उसके बहुत बाद तक भी भारत ऊंची वृद्धि दर पर बना रहेगा.
अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया तथा भारत की चौकड़ी द्वारा चीन के दबंग रवैये के मुकाबले के काफी चर्चे रहे हैं.लेकिन, हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि बाकी तीनों देशों के विपरीत भारत चीन का पड़ोसी है और दोनों के बीच एक लंबी और विवादास्पद सीमा-रेखा मौजूद है. इसलिए दोनों के मध्य सतत संघर्ष तथा तनाव की स्थिति बरकरार नहीं रह सकती, क्योंकि इससे दोनों का बड़ा नुकसान होगा. शांति तथा परस्पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता निश्चित रूप से अधिक टिकाऊ विकल्प होंगे.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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