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‘पद्मावत’ की पाठशाला

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II कुमार प्रशांतII गांधीवादी विचारक भारतीय सिनेमा, भारतीय सेंसर बोर्ड, भारतीय प्रशासन अौर राज्य व केंद्र की सरकारों ने मिलकर शायद ही कभी देश के चेहरे पर इस कदर धूल मली होगी! जब अापको अपने चेहरे की नहीं, मुखौटों की फिक्र होती है, तब चेहरों पर ऐसे ही कालिख पुत जाती है. संजय लीला भंसाली […]

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II कुमार प्रशांतII

गांधीवादी विचारक

भारतीय सिनेमा, भारतीय सेंसर बोर्ड, भारतीय प्रशासन अौर राज्य व केंद्र की सरकारों ने मिलकर शायद ही कभी देश के चेहरे पर इस कदर धूल मली होगी! जब अापको अपने चेहरे की नहीं, मुखौटों की फिक्र होती है, तब चेहरों पर ऐसे ही कालिख पुत जाती है.

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ कमाई अच्छी कर रही है. विरोध से ही तो फिल्म का इतना प्रचार हुअा कि भंसाली को दूसरा कोई ‘प्रमोशन’ करना नहीं पड़ा. इसके लिए करणी सेना को भंसाली धन्यवाद तो दे ही सकते हैं. भंसाली की वे सारी फिल्में सफल बनीं हैं अौर चली हैं, जिनके पीछे कोई नजरिया नहीं था. बस कहानी थी, अच्छी किस्सागोई थी अौर उसकी भव्यतर प्रस्तुति थी. भंसाली माल पहचानते भी हैं अौर बेचना भी जानते हैं.

लेकिन, अाप उनकी फिल्मों में वैसा कुछ खोजने लगेंगे, जो उनका हेतु ही नहीं है, तो गलती अापकी है, भंसाली की नहीं. ‘पद्मावती’ तो खुद ही जायसी की कल्पना के पंखों पर सवार होकर हम तक पहुंची है. अब उसमें किंवदंतियों, किस्सों व िसनेमाई अाजादी की छौंक डालकर भंसाली ने जो परोसा है, हमें उसी दायरे में फिल्म देखनी भी चाहिए अौर अपनी राय भी बनानी चाहिए.

हमने, जिन्होंने ‘पद्मावती’ का हिंसक विरोध करनेवाली ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ की मनमानी का विरोध किया था, उसे गलती से भी फिल्म का या फिल्म में कही बातों का समर्थन नहीं माना जाना चाहिए.

हम तो हर भंसाली के उस अधिकार का समर्थन कर रहे थे (अब भी करते हैं!) कि जिसे कुछ लिखना, बनाना, गाना, नाचना, रंगना या बोलना है. उस पर सरकार की रोक नहीं होनी चाहिए.

उसे कोई व्यक्ति, पार्टी या गुट अातंकित करे, इसे देखना व रोकना सरकार की जिम्मेदारी है; बल्कि जो ऐसा न करे, वह सरकार ही नहीं है! किसी भी भंसाली का यह अधिकार दरअसल व्यक्ति का नहीं, लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है; कहूं कि अगर यह अधिकार अक्षुण्ण नहीं है, तो हम लोकतंत्र की लाश के रखवाले भर हैं, क्योंकि लोकतंत्र की तो हत्या तभी कर दी हमने, जब किसी को उसकी अभिव्यक्ति से रोकने या मारने का काम किया.

जब राजस्थान में चल रही शूटिंग में घुसकर ‘करणी सेना’ ने भंसाली पर पहला हमला किया था, तब से अाज तक भंसाली का एक भी बयान कोई मुझे दिखलाये कि जहां वे हिम्मत के साथ इन लोगों का विरोध करते हों. वे तो पहली वारदात के बाद से ही घिघियाती अावाज में सबको यही भरोसा दिलाते अा रहे हैं कि हमने कुछ भी ऐसा नहीं बनाया है कि जिससे राजपूती अान-बान-शान (हिंदुत्व ब्रिगेड) में खम पड़ता हो.

वे कहते ही रहे- करणी सेना मेरी फिल्म का सेंसर बोर्ड बन जाये! इसे कहते हैं- कायरों के कृत्य का कायराना समर्थन! ‘हम कलाकार हैं, हमें राजनीति से क्या लेना?’ जैसे वाक्यों से खुद को हर जिम्मेदारी से अलग कर लेना कला के व्यापारियों की ढाल है. राजनीतिक पोशाक पहनकर अलोकतांत्रिक-असामाजिक कृत्यों को अंजाम देनेवाले एकाधिक संगठन हैं, जो भंसाली जैसों की खुराक से ही जिंदा रहते हैं.

इसी बीच खबर अायी कि जयपुर लिट फेस्टिवल में इस बार प्रसून जोशी हिस्सा नहीं लेंगे. क्यों? साहित्य के नाम पर सजे बाजार में बिकाऊ माल न पहुंचे, तो बाजार कैसे चले! लेकिन प्रसून जोशी ने बड़ी शालीनता से कहा कि वे नहीं चाहते हैं कि फेस्टिवल की गरिमा कम हो, अशांति हो, साहित्यकारों अौर साहित्यप्रेमियों को तकलीफ हो, इसलिए वे जयपुर नहीं जायेंगे.

प्रसून जोशी वहां ऐसा क्या करनेवाले थे कि समारोह की गरिमा कम हो जाती? ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ के नये सहसवारों में शान से शामिल प्रसून जोशी को इनाम में जिस सेंसर बोर्ड की अध्यक्षता मिली है, वही उनके गले की फांस बन गयी. ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ जो हासिल करना चाह रहा था, वह तो सेंसर बोर्ड का अधिकार ही था न! फिर क्या पुलिस, क्या कानून, क्या संविधान, क्या संविधानसम्मत संस्थाएं अौर क्या प्रसून जोशी, सब ठेंगे पर!

मुख्यमंत्रियों ने ऐलान करना शुरू कर दिया कि वे अपने राज्य में ‘पद्मावती’ के प्रदर्शन की इजाजत नहीं देंगे. केंद्र तो किसी गिनती में नहीं था, क्योंकि ऐसी मनमानी की शुरुअात ही तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी, जब उन्होंने अामिर खान की फिल्म पर इसलिए बंदिश लगा दी थी, क्योंकि अामिर ने गुजरात दंगों की निंदा की थी अौर नर्मदा अांदोलन का समर्थन किया था.

तब की केंद्र में मनमोहन सरकार ने अपनी कमर सीधी की होती, तो गुजरात की मनमानी के वक्त ही ऐसा इलाज निकल अाता कि किसी ‘पद्मावती’ की ऐसी हालत नहीं होती. लेकिन, सत्ता कई स्तरों पर, कई तरह की कायरता फैलाती है. सत्ता की कायरता उन सबकी कायरता को चालना देती है, जो भीड़ की अाड़ लेकर बहादुरी का स्वांग करते हैं.

देश में जब असहिष्णुता का मामला चल रहा था, तब अनुपम खेरों, प्रसून जोशियों का जमावड़ा चीख रहा था कि नरेंद्र भाई के शासन में कहीं असहिष्णुता है ही नहीं. तब असहिष्णुता अवैध शब्द था. फिर हमने देखा कि ये सारे बहादुर सरकारी कुर्सियों पर जा बैठे. प्रसून जोशी को अब उसी अवैध असहिष्णुता का सामना करना पड़ा है अौर अगर वे जयपुर लिट फेस्टिवल में गये होते, तो वे इसी असहिष्णुता के शिकार हो सकते थे. असहिष्णुता अमानवीयता का दूसरा नाम है. प्रसून जोशियों, अनुपम खेरों को शायद यह एहसास हो कि जब भीड़ की असहिष्णुता हमला करती है, तब व्यक्ति कितना अकेला अौर असहाय हो जाता है- फिर चाहे उसका नाम पहलू खान हो कि प्रसून जोशी!

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