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नानी का नेमतखाना

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नाजमा खान पत्रकार बचपन में अक्सर अम्मी मेरी आंखों में ढेर सारा काजल लगा दिया करती थीं, जिसकी वजह से मेरी आंखें कंचे की तरह बड़ी लगने लगती थीं. मैं अपनी कंचे जैसी आंखों से उस ‘चीज’ को टुकुर-टुकुर ताक रही थी. मेरे दिल्ली वाले घर में वो ‘चीज’ नहीं थी. मैं गर्मियों की छुट्टियों […]

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नाजमा खान

पत्रकार

बचपन में अक्सर अम्मी मेरी आंखों में ढेर सारा काजल लगा दिया करती थीं, जिसकी वजह से मेरी आंखें कंचे की तरह बड़ी लगने लगती थीं. मैं अपनी कंचे जैसी आंखों से उस ‘चीज’ को टुकुर-टुकुर ताक रही थी. मेरे दिल्ली वाले घर में वो ‘चीज’ नहीं थी. मैं गर्मियों की छुट्टियों में अपने ननिहाल गयी थी, वहीं मैंने इस ‘चीज’ को देखा था. मैंने गौर किया था कि गरीब या गांव के जरूरतमंद जब नानी से मिलने आते, तो नानी उस ‘चीज’ में रखे खाने-पीने का सामान उन्हें देती थी. जो न तो खैरात थी, न ही भीख.

मैं करीब आठ-नौ साल की थी. मैं नानी के आंगन वाली रसोई में जब भी जाती, उस ‘चीज’ को बेहद गौर से देखती. लेकिन, फिर अम्मी का रौद्र रूप याद आ जाता.

मैं पानी पीने के बहाने आंगन में गयी और पानी पीते-पीते मैं उस ‘चीज’ के पास जा खड़ी हुई और उसके भीतर झांकने की कोशिश करने लगी. बहुत दिलकश लग रही थी वह मुझे, कि तभी पीछे से मामी आ गयीं और मैं यूं सकपका गयी, जैसे कोहीनूर की चोरी करते हुए पकड़ी गयी हूं.

कुछ ही दिन बाद मैं वापस ददिहाल पहुंची और अम्मी से पूछा कि मामी के आंगन में रखी वह क्या ‘चीज’ है, जिसमें तरह-तरह के खाने-पीने का सामान रखा जाता है. अम्मी ने पूछा क्या अलमारी? या फिर फ्रीज खरीदा गया है? मैं उन्हें ठीक से अपनी बात समझा नहीं पा रही थी.

दोबारा जब हम ननिहाल गये, तो आंगन में मैंने अम्मी की साड़ी का कोना पकड़ा और उन्हें उस ‘चीज’ के पास ले जाकर खड़ा कर दिया. अम्मी हंसने लगीं और बोलीं कि यह ‘नेमतखाना’ है. इसमें बचा हुआ खाना या खाने-पीने का सामान रखा जाता है.

इससे घर में बरकत रहती है. अम्मी ने उसे खोलकर दिखाया. जालीदार दरवाजे वाली इस छोटी सी फ्रीजनुमा अलमारी में दो तीन शेल्फ थे, जिन पर बहुत सा खाने-पीने का सामान रखा हुआ था. नेमतखाना मुझे बहुत प्यारा लगा. मैंने अम्मी से पूछा अम्मी ये हमारे दिल्ली वाले घर में क्यों नहीं है? अम्मी ने कोई जवाब नहीं दिया.

जिस वक्त की यह बात है, उन दिनों शहरों में भी बहुत कम ही घरों में फ्रीज होते थे. हम गर्मियों की रातों में छत पर सोया करते थे और अम्मी बचे हुए खाने को छत पर ही पानी की टंकियों पर रख दिया करती थीं.

वक्त बदला, घर में फ्रीज आया. फ्रीज होने के बावजूद कई बार अब भी खाना बर्बाद हो जाता है, चिड़ियों को डाला जाता है. महंगाई बढ़ी तो अम्मी ने भी खाना पूछकर बनाना शुरू कर दिया, ताकि खाने की कम बर्बादी हो.

बड़े होने पर मैंने अम्मी से मजाक में ही कह दिया, अम्मी आप खाना पूछकर बनाती हो और नानी तो नेमतखाने में रखने के लिए खाना ज्यादा बनवाती थी, ताकि जरूरतमंदों को दिया जाये. काश की हर घर, हर शहर में ‘नानी के नेमतखाने’ रखे जायें, ताकि हम जरूरतमंदों की तरफ मदद का हाथ बढ़ा सकें.

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