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फ्रांस-अमेरिका हमले के मायने

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पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार फ्रांस तथा अमेरिका में आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका के रक्षा मंत्रालय का एक पूर्व अधिकारी यह बयान देने को बाध्य हुआ है कि कतर, तुर्की तथा पाकिस्तान को आतंकवादी राज्य घोषित करने में अब अमेरिका को देर नहीं करनी चाहिए. इस बयान पर टिप्पणी करने के पहले दो तीन बातें […]

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पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
फ्रांस तथा अमेरिका में आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका के रक्षा मंत्रालय का एक पूर्व अधिकारी यह बयान देने को बाध्य हुआ है कि कतर, तुर्की तथा पाकिस्तान को आतंकवादी राज्य घोषित करने में अब अमेरिका को देर नहीं करनी चाहिए. इस बयान पर टिप्पणी करने के पहले दो तीन बातें विचारणीय हैं. जो हमले हुए हैं, मात्र उनके आधार पर किसी राष्ट्र राज्य को इनके लिए जिम्मेदार ठहराना तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता. जिसे अंग्रेजी में अकेले खूंखार भेड़िये का आक्रमण (लोन वुल्फ अटैक) कहा जाता है, यह घटना वैसी ही लगती है.
मानसिक रूप से बीमार, किसी भी मुसलमान द्वारा सांप्रदायिक अपराध को अंजाम देनेवाली हरकत ‘अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद’ नहीं कही जा सकती. इससे अपने देश में अनावश्यक सांप्रदायिक तनाव ही बढ़ेगा फायदा किसी को कुछ नहीं हो सकता. यदि वास्तव में अमेरिका इतना चिंतातुर है, तो पेंटागन के पूर्व अधिकारी को नहीं ट्रंप प्रशासन के किसी पीठासीन अधिकारी को जिम्मेदारी के साथ बना देना चाहिए.
कैंपसों में या सिनेमा हॉल अथवा किसी शॉपिंग मॉल आदि में सिरफिरे किशोरों या तनावग्रस्त नस्लवादियों द्वारा स्वचालित राइफलों से अंधाधुंध गोली-बारी भी पहली बार नहीं हो रही है. जब कनाडा या जर्मनी में इस तरह की वारदात होती है, तो अभियुक्त के मजहब के आधार पर किसी साजिश को जिम्मेदार ठहराने की जल्दबाजी मैर्केल या त्रूदो नहीं करते.
दूसरी बात जो अधिक पेचीदा है, वह यह कि यदि अमेरिका इन देशों को आतंकवादी घोषित कर भी देता है, तो इनके आचरण पर क्या फर्क पड़ेगा. बहुत वर्ष पहले रीगन दुष्ट राज्यों को अपने तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए जानलेवा जोखिम बतला चुके थे.
तब से अब तक इन उद्दंड राष्ट्र राज्यों की सूची में फेरबदल होता रहा है, पर किसी भी के गले में नकेल डालने में इस महाशक्ति को कामयाबी हासिल नहीं हो सकी है. यह बात इस्लामी देशों पर ही लागू नहीं होती. सबसे ताजा उदाहरण उत्तरी कोरिया का है, जिसको अनुशासित करने में न तो अार्थिक प्रतिबंध काम आये हैं अौर न ही सामूहिक राजनयिक प्रयास.
जहां तक भारत का प्रश्न है, उसकी नजर हमेशा की तरह इस बार भी यही टटोल रही है कि क्या अब पाकिस्तान को अमेरिका के गुस्से का शिकार बनना पड़ेगा अौर क्या इसका लाभ हमें हो सकेगा. इन पंक्तियों के लेखक का मानना है कि यह सोचना बचपना है कि सिर्फ इस बार के ‘हमलों’ के कारण अमेरिका अपने साठ साल के सैनिक संधि मित्र को सजा देगा अपने से विमुख करेगा.
अमेरिका की अफगान तथा मध्य एशियाई संवेदनशील सामरिक रणनीति के संदर्भ में पाकिस्तान की अहमियत बनी रहेगी. ट्रंप हों या कोई अन्य अमेरिकी राष्ट्रपति वह इस बात को भी नजंरदाज नहीं कर सकता कि चीन की पाकिस्तान के साथ मैत्री को देखते कोई ऐसा कदम न उठाया जाये, जो दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एवं पूर्व-एशिया में अमेरिका के मुकाबले चीन को मजबूत करे.
इससे भी कम संभावना इस बात की है कि कतर या तुर्की को आतंकवादी राज्य घोषित किया जाये. भले ही तुर्की में लगातार इस्लामी कट्टरपंथी बढ़ रही है, पर वह सरकार कुल मिलाकर पश्चिम को रास आनेवाली तानाशाही है.
साम्यवाद विरोध आज महत्वपूर्ण विचारधारा भले ही न रह गयी हो, पुतिन के रूस के साथ एर्डोगान के किसी भी तरह के गठजोड़ की संभावना अमेरिका विकसित नहीं होने दे सकता. कतर की तुलना में इस्लामी आतंकवादी नौजवानों को प्रेरित-प्रोत्साहित करने का काम अमेरिका का मित्र सऊदी अरब कहीं अधिक करता रहा है. उसके प्रति जितनी उदार सहनशीलता अमेरिका दिखलाता रहा है उसके मद्देनजर इसे प्रतीकात्मक ही कहा जा सकता है.
इराक, सीरिया, लीबिया में सत्ता के परिवर्तन के बाद अमेरिका को लगभग सभी इस्लामी देश अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते हैं. शिया ईरान से लेकर सुन्नी पाकिस्तान तक कोई भी उसे मित्र नहीं मानता.
क्या अमेरिका एक बार फिर तमाम मुसलमानों के खिालफ ईसाई क्रूसेडनुमा धर्मयुद्ध छेड़ने का दुस्साहस कर सकता है? क्या उस वक्त जब वह अफगान दलदल से बमुश्किल निकल रहा है? कहीं अधिक संभावना इस बात की है कि पेंटागन के पूर्व अधिकारी के बयान की मदद से हवा का रुख भांपने की कोशिश की जा रही हो.
अमेरिका की तुलना में अकेले या गिरोहबंद कट्टरपंथियों को खतरा फ्रांस या जर्मनी देशों को कहीं ज्यादा है, जहां बड़ी संख्या में सीरियाई तथा तुर्की या अफ्रीकी मूल के शरणार्थी पहुंचे हैं अौर जिनकी वजह से सामाजिक समरसता तथा सांस्कृतिक पहचान का संकट विकट है.प्रतिक्रियास्वरूप नस्लवाद का पुनर्जन्म हो रहा है. हाल के चुनावों में उग्र दक्षिणपंथी पार्टी के मतों में जबर्दस्त बढ़त इसी का लक्षण है.
बहरहाल हमें हर छोटी बड़ी घटना का विश्लेषण अपने राष्ट्रहित के संदर्भ में ही करना चाहिए. हर वक्त पाकिस्तान को दूसरों की मदद से पंगु बनाने या घायल करनेवाली मानसिकता से बचना चाहिए. इस घड़ी रोहिंग्या हों या बांग्लादेश में भारत विरोधी इस्लामी कट्टरपंथी तत्व या फिर मालदीव में सक्रिय हमारे बैरी लास वेगास या मार्सेल्स के खून-खराबे की तुलना में ज्यादा परेशानी का सबब होना चाहिए.
जाने कितने लंबे समय से भारत यह कोशिश कर रहा है कि हाफिज सईद और दाऊद इब्राहीम जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों को पनाह देने के लिए पाकिस्तान को आतंकवादी राज्य घोषित किया जाये. चीन के वीटो के कारण ऐसा नहीं हो सका है. भारत की सरकार और समझदार नागरिकों को यह सच कबूल करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि पाकिस्तान के साथ हमारी लड़ाई हमारे लिए कोई और लड़नेवाला नहीं है.
अमेरिका अपने हितों की रक्षा करने में समर्थ है और उसको रिझाने की उतावली में भारत ने ईरान के साथ आर्थिक संबंधों को क्षतिग्रस्त होने दिया है. ऐसी अदूरदर्शिता दोबारा नहीं होनी चाहिए. सतर्क रहने की जरूरत है, बौखलाने की नहीं.

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