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दुख के बाद का सुख

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क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार आज आखिरी श्राद्ध है. पूर्णिमा से लेकर पितृ अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष होता है. इस अवसर पर अपने गुजरे हुए पितरों को याद किया जाता है. जिस हिंदी तिथि के दिन उनका स्वर्गवास हुआ, उसी दिन उनकी याद में उनका पसंदीदा भोजन बनाकर पंडित को खिलाया जाता है. कौओं को भी […]

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क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
आज आखिरी श्राद्ध है. पूर्णिमा से लेकर पितृ अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष होता है. इस अवसर पर अपने गुजरे हुए पितरों को याद किया जाता है. जिस हिंदी तिथि के दिन उनका स्वर्गवास हुआ, उसी दिन उनकी याद में उनका पसंदीदा भोजन बनाकर पंडित को खिलाया जाता है.
कौओं को भी भोजन खिलाया जाता है. इन दिनों में एक तरह से इस उपेक्षित पक्षी की बन आती है. बहुत से लोग भोजन मंदिर में भी देकर आते हैं. हर पितृ की पसंद का बिना पका भोजन भी दान किया जाता है. शायद बुजुर्गों को पता होगा कि जब जीते जी कोई किसी को याद नहीं करता, उसकी पसंद का खयाल नहीं रखता, तो जाने के बाद कोई क्यों याद रखे. कहावत तो मशहूर है ही कि आंख ओझल सो पहाड़ ओझल.
इसीलिए बुजुर्गों ने ऐसी व्यवस्था की होगी कि धर्म-कर्म से जोड़कर ही अपने पुरखों को ही नहीं, उनके खाने-पीने आदि की रुचियों को भी याद कर लिया जाये.
उदाहरण के तौर पर इस लेखिका के पिता जी को गुजरे पैंतालीस साल और मां को गुजरे पंद्रह साल हुए. लेकिन, श्राद्ध के अवसर पर पिता जी की पसंद की काली उड़द की दाल और मूली का सलाद जरूर बनाया जाता है. यही बात मां के श्राद्ध के दिन होती है. श्राद्ध कर्म में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है. दादा का श्राद्ध होता है, तो दादी का भी.
इसके अलावा चूंकि ये पंद्रह दिन शोक का अवसर है, इसलिए घर में कोई उत्सव नहीं मनाया जाता, शादी ब्याह नहीं होता, नये कपड़े खरीदे और पहने नहीं जाते. घर का नया सामान नहीं लिया जाता. घर की रंगाई-पुताई नहीं होती.
चूंकि पंद्रह दिन का लंबा शोक होता है, इसीलिए इसके तत्काल बाद शुरू होनेवाली दुर्गा पूजा का महत्व और अधिक बढ़ जाता है. बाजारों में लहराते लाल दुपट्टे नवरात्रि आने की सूचना देते हैं. यही नहीं दिवाली की आहट भी सुनायी देने लगती है. इन उत्सवों के लिए कोई मार्केटिंग या ब्रांडिंग नहीं करनी पड़ती.
बल्कि बाजार को मालूम है कि लोग श्राद्ध के बाद नवरात्रि में अधिक खरीदारी करते हैं, इसलिए तरह-तरह की छूट, सेल आदि के आॅफर्स से बाजार पट जाता है. अखबारों और प्रचार के अन्य माध्यमों में ग्राहकों को पटाने की होड़ लग जाती है. यही नहीं रंगाई, पुताई से लेकर बढ़ई, दर्जी आदि जैसे कारीगरों की मांग भी बेतहाशा बढ़ जाती है. इसे त्योहारों का मौसम भी तो इसीलिए कहते हैं कि हर कोई अपनी-अपनी तरह से सेलिब्रेट करना चाहता है, उत्सव मनाना चाहता है.
दुख के बाद सुख का दबे पांव और धूम धड़ाके से चले आना ही शायद प्रकृति और मनुष्यता के जीवित रहने का एक नियम है.

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