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जीएसटी की मार

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क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार हाल ही में कई परेशानियों के कारण दो दिन के भीतर चार डाॅक्टरों के पास जाना हुआ. इनमें एक आयुर्वेदाचार्य, एक दांत विशेषज्ञ, एक होमियोपैथ और एक एलोपैथ थे. इन सबसे टेलीफोन पर समय लिया गया था. क्योंकि इन दिनों डाॅक्टरों के पास इतनी भारी भीड़ रहती है कि अगर आपने […]

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क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
हाल ही में कई परेशानियों के कारण दो दिन के भीतर चार डाॅक्टरों के पास जाना हुआ. इनमें एक आयुर्वेदाचार्य, एक दांत विशेषज्ञ, एक होमियोपैथ और एक एलोपैथ थे. इन सबसे टेलीफोन पर समय लिया गया था. क्योंकि इन दिनों डाॅक्टरों के पास इतनी भारी भीड़ रहती है कि अगर आपने पहले से समय नहीं लिया है, तो वे आपको नहीं देखते हैं.
वहां पहले से ही इतने मरीज होते हैं कि डाॅक्टरों के देखने का समय खत्म हो जाता है, मरीज नहीं निपटते और फिर उन्हें अगले दिन या किसी दिन आना पड़ता है. इतनी भीड़ देख लगता है कि क्या सचमुच बीमारियां इतनी बढ़ गयी हैं, लोग ज्यादा बीमार पड़ रहे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि डाॅक्टरों के पास ज्यादा भीड़ बताती है कि लोगों में अपने स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है.
खैर जिन चार डाॅक्टरों का ऊपर जिक्र किया, उनमें सबसे पहले हम दांत वाले डाॅक्टर के पास गये थे. वहां घुसते हुए एक नोटिस पर नजर पड़ी.
उस पर लिखा था कि जीएसटी के कारण डाॅक्टर साहब की फीस बढ़ाकर चार सौ रुपये कर दी गयी है. वहां से निकलकर हम एलौपेथ के पास गये. उन्हें दिखाकर जब फीस देने उनके सहायक के पास पहुंचे, तो पता चला कि उन डाॅक्टर साहब की फीस अब पांच सौ से छह सौ हो गयी है. हम आखिर क्या करते. बढ़ी फीस के कारण अब तक पहले के मुकाबले तीन सौ रुपये ज्यादा दे चुके थे.
अगले दिन वैद्य जी के पास जाना हुआ, तो उन्होंने कोई फीस नहीं ली, मगर हमने देखा कि आयुर्वेदिक दवाओं की कीमत पहले के मुकाबले काफी बढ़ चुकी थी. वहां से लौटकर शाम को होमियोपैथ के डॉक्टर के पास जाने का नंबर आया, लेकिन वहां भी बढ़ी फीस देनी पड़ी.
सब जगह हमने नकद में भुगतान दिया था. डाॅक्टर न तो कार्ड से पैसे लेते हैं और न ही लिये गये किसी पैसे की कभी रसीद ही देते हैं. जीएसटी के नाम पर हर एक ने अपनी फीस तो बढ़ा दी है, लेकिन इससे बेचारा मरीज या जिसे हम उपभोक्ता कहते हैं, वह तो हर जगह लुटने लगा है.
विडंबना है कि जीएसटी से लोगों की जेब पर भारी मार तो पड़ी ही है, मगर सरकार की जेब में भी कुछ नहीं गया. साथ ही जिस नकदी के लेन-देन को नोटबंदी के बाद मृतप्राय और समाप्त होने की बात कही जा रही थी, वह कहीं खत्म होता नजर नहीं आया. ऐसा लगा कि सरकार के दावों की पोल खुलती जा रही है और अब सरकारों ने इस तरफ से जैसे अपनी आंखें भी मूंद रखी हैं.
एक जरूरी बात और, अब वैकल्पिक चिकित्सा भी एलोपैथी की देखादेखी न केवल बेहद महंगी होती जा रही है, बल्कि आम आदमी की पहुंच से यह भी दूर हो रही है.

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