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इस समय प्रेमचंद

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार यह समय उपद्रवी, उन्मादी, विचारबंदी, अंधास्था, धर्मांधता, स्वार्थपरता, क्षुद्रता, संकीर्णता, छद्म राष्ट्रप्रेमियों का है. बेलगाम घोड़े जिस तरह हिनहिना रहे हैं, पगलाये दौड़ रहे हैं, काबू में रखनेवालों को कुचल रहे हैं, उनकी गति और दिशा तय है. यह समय कुतर्कों, अफवाहों के साथ मिथ्यावादियों का भी है. इस समय हम अपने […]

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रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
यह समय उपद्रवी, उन्मादी, विचारबंदी, अंधास्था, धर्मांधता, स्वार्थपरता, क्षुद्रता, संकीर्णता, छद्म राष्ट्रप्रेमियों का है. बेलगाम घोड़े जिस तरह हिनहिना रहे हैं, पगलाये दौड़ रहे हैं, काबू में रखनेवालों को कुचल रहे हैं, उनकी गति और दिशा तय है. यह समय कुतर्कों, अफवाहों के साथ मिथ्यावादियों का भी है.
इस समय हम अपने पूर्वजों, पुरखों में से किसके पास जाएं, जिन्होंने ब्रिटिश भारत में इस ‘स्वतंत्र’ भारत की कल्पना कर ली थी, अपनी दूरगामी जन दृष्टि के तहत आगामी समय की आहटें भी सुन ली थीं. निस्संदेह भारतीय लेखकों में प्रेमचंद अकेले हैं, जिनके यहां आज के सभी सवालों को हम देख सकते हैं. प्रेमचंद का पाठ हमारे समय का भी पाठ है, क्योंकि समय कैलेंडर में जितना भी बदल गया हो, तिथि, वर्ष, दशक, शताब्दी के बदल जाने के बाद भी समय ठिठका हुआ है. आज प्रेमचंद हमें बार-बार इसलिए याद आते हैं और आते रहेंगे, क्योंकि यह समय प्रतिगामियों, पुराणपंथियों, विवेकहीनों का है. प्रेमचंद परिवर्तनकामी थे, प्रगतिशील थे.
उन्होंने हमें विवेक दृष्टि दी, तार्किकता दी, हमें एक दिशा प्रदान की. हिंदी और भारतीय समाज को मूढ़ता, विवेकहीनता, स्वार्थपरता, क्षुद्रता, सांप्रदायिकता, जड़ता, अशिक्षा, धर्मांधता से हटा कर उन्होंने उसे विवेकवान, दृष्टि-संपन्न, विचारवान, प्रगतिशील, शिक्षित और समझदार बनाने का अकेले जो काम किया, वह उनके समय से आज तक किस भारतीय लेखक, विश्वविद्यालय और राजनीतिक दल ने किया है? ‘गबन’ (1930) में देवीदीन और ‘आहूति’ (1930) में रूपमणि ने आज के ‘स्वराज्य’ की कल्पना नहीं की थी. अंगरेजों ने यूनिवर्सिटी में टैंक रखने की कभी बात नहीं कही.
प्रेमचंद ने लोकतंत्र, स्वराज, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता, गौ-प्रेम, गोकशी, देशद्रोह, दलित, गरीब, किसान, मजदूर, राष्ट्रभक्त, समाचार-पत्र, पत्रकार, वकील, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, छूआछूत, पुरोहित, ब्राह्मणवाद, हिंदू, मुसलमान, सांप्रदायिकता, इसलाम, सहिष्णुता, भेद-नीति, धर्म, इतिहास, लीडर, नौकरशाही, पुलिस, अदालत, कचहरी, न्यायपालिका, रिजर्व बैंक, बजट, किसान, ऑर्डिनेंस आदि पर जाे बातें कही हैं, उन्हें हम देखें और आज के समय को देखें, तभी हमें प्रेमचंद का और नेताओं, राजनीतिक दलों, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, साहित्यकारों, संपादकों आदि के महत्व का पता चलेगा. आज पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ऑर्डिनेंस के पक्ष में नहीं हैं. प्रेमचंद ने ऑर्डिनेंस की आलोचना की थी, उनका उद्देश्य ‘दमन’ माना था. उन्होंने कांग्रेस पर, उसकी नीतियों, सभाओं-सम्मेलनों, कार्यप्रणालियों पर काफी लिखा, आज गिरगिटी राजनीति पर कम लिखा जाता है. प्रेमचंद की नजर चारों ओर थी- पत्तों की खरखराहट तक. उन्होंने डालियों पर नहीं, जड़ों पर प्रहार किया. जड़ें आज अधिक मजबूत हैं. उन पर कम प्रहार हो रहे हैं.
प्रेमचंद ने ‘राष्ट्र’ को ‘केवल एक मानसिक प्रवृत्ति’ कहा है. ‘राष्ट्रवाद’ उनके अनुसार ‘वर्तमान युग का शाप’ है. ‘जहां शासन-संगठन के विरोध में जबान खोलना बड़ा अपराध है, जिसकी सजा मौत है, वहां शांति कहां? विचारों को शक्ति से कुचल कर बहुत दिनों तक शांति की रक्षा नहीं की जा सकती.’
‘राष्ट्र’ को उन्होंने स्वार्थ से भरी गुटबंदी कहा, ‘जिसने संसार को नरक बना रखा है.’ राष्ट्रीयता को उन्होंने ‘वर्तमान युग का कोढ़’ कहा और आज चारों ओर राष्ट्रवाद का जाप हो रहा है. वह ‘बेकारी’ को ‘आतंकवाद का मूल कारण’ मानते थे. ‘गाय’ को केवल ‘आर्थिक दृष्टि’ से महत्वपूर्ण मानते थे. 1924 में ‘जमाना’ में उन्होंने लिखा था- ‘गोकशी के मामले में हिंदुओं ने शुरू से ही अब तक एक अन्यायपूर्ण ढंग अख्तियार किया है.
जो इंसान की तुलना में गाय को महत्व देते हैं, उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला नहीं समझी.’ डेमोक्रेसी की आड़ में सारी शक्ति अपने हाथ में कर लेने की उन्होंने आलोचना की थी और ऐसे लोग (या नेता) वे थे ‘जिनके पास धन था, जो जनता को सब्जबाग दिखा सकते थे.’ हिंदुओं को उन्होंने ‘ज्यादा राजनीतिक सहिष्णुता’ से काम लेने की जरूरत’ बतायी. वह धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल के विरोधी थी. ‘दुर्भाग्य से धर्म को राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लिया गया है.’ वह ‘नये-नये सूबों की सनक’ (1932) के खिलाफ थे. ‘प्रांतीयता की मनोवृत्ति राष्ट्रीय मनोवृत्ति की विरोधिनी है.’ प्रेमचंद ने ‘पुलिस के गुंडापन’ और ‘सरकार के प्रचंड दमन’ पर विचार किया.
कानून को केवल जनता पर ही नहीं, सरकार पर भी लागू किये जाने को कहा. उनकी दृष्टि में नेता वही है, ‘जिसके कर्म और वचन में कोई अंतर न हो.’ राजनीति को उन्होंने बेईमानी से जोड़ा. उनकी शिकायत उन लोगों से थी, ‘जो पढ़े-लिखे हैं.’ अपने समय की सांप्रदायिकता में उन्होंने थोड़ी ‘सहिष्णुता’ देखी थी और राजनीति प्रधान सांप्रदायिकता के युग के आगमन की घोषणा की थी.
उन्होंने मुसलमानों की इस शंका को रेखांकित किया था कि ‘हिंदू संगठित होकर उनको हानि पहुंचा सकते हैं.’ प्रेमचंद ने यह बताया कि इसलाम तलवार के बल पर नहीं फैला. साल 1924 में उन्होंने लिखा था , ‘हिंदुओं में इस वक्त सहिष्णु नेताओं का अकाल है.’ इस समय प्रेमचंद के मार्ग पर बढ़ कर ही भारत आगे बढ़ सकेगा.

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