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असली मुद्दा है बिहार के हितों की रक्षा

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आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर अरसे से नीतीश कुमार-लालू प्रसाद के बीच चल रही खींचतान का आखिरकार अंत हो गया. नीतीश कुमार ने भाजपा के सहयोग से एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उनके पुराने जोड़ीदार सुशील कुमार मोदी फिर उपमुख्यमंत्री बन गये. पिछले दो तीन महीनों से सुशील मोदी, लालू […]

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आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
अरसे से नीतीश कुमार-लालू प्रसाद के बीच चल रही खींचतान का आखिरकार अंत हो गया. नीतीश कुमार ने भाजपा के सहयोग से एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उनके पुराने जोड़ीदार सुशील कुमार मोदी फिर उपमुख्यमंत्री बन गये. पिछले दो तीन महीनों से सुशील मोदी, लालू प्रसाद और उनके परिवार के खिलाफ वार पर वार किये जा रहे थे. रोजाना एक नया दस्तावेज पेश कर रहे थे. इससे गठबंधन में असहजता उत्पन्न होती जा रही थी. लेकिन, असल समस्या यह नहीं थी. 2005 के बाद बिहार ने गवर्नेंस के क्षेत्र में एक लंबी छलांग लगायी थी. 2017 आते-आते उसकी रफ्तार धीमी पड़ गयी.
इसमें शिक्षा, बुनियादी ढांचा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुधार के कार्यक्रम जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र शामिल हैं. आंकड़ों में भी यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थी. इसको लेकर बिहार के लोगों में बेचैनी थी. 2005 से लेकर 2013 तक यही जदयू-भाजपा गठबंधन इस मोरचे पर बेहद सफल रहा था. लोग उम्मीद कर रहे थे कि जदयू-राजद गठबंधन बिहार के हितों की रक्षा करेगा और पुराने दौर में ले जायेगा. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. राजद लगातार स्पीड ब्रेकर की भूमिका में था.
जदयू-राजद सरकार में स्वास्थ्य, शिक्षा और सड़क क्षेत्र के काम जो पिछले एक दशक से फोकस में रहे थे, वे पटरी से उतर गये. बुनियादी कामों का जिनसे बदलाव दिखाई देता है, उन विभागों का काम ढीला पड़ गया. मंत्रियों पर तो भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे, लेकिन काम की दिशा भटक गयी, उनकी रफ्तार धीमी पड़ गयी. मेरा मानना है कि जदयू-भाजपा की सरकार है या जदयू-राजद की सरकार, सवाल इससे कहीं बड़ा है.
असली चिंतन का विषय है कि बिहार को कैसे आगे ले जाया जाये. विकास की धारा जो टूट गयी है, उसे फिर से कैसे जोड़ा जाये. राजनीति के तो अपने गुणा-भाग हैं, लेकिन असली मुद्दा है कि बिहार के हितों की रक्षा कैसे की जाये. कैसे बिहार के लोगों तक आर्थिक समृद्धि पहुंचायी जाये और सामाजिक समरसता बरकरार रखी जाये. पुराने दौर को याद करें, तो बिहार की आर्थिक प्रगति राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गयी थी.
नीतीश कुमार और सुशील मोदी की जोड़ी ने बिहार को कुशासन से कैसे बाहर निकाला था, इसकी मिसाल पेश की जाती थी. इसके बाद ही नीतीश कुमार सुशासन के प्रतीक माने जाने लगे थे. बिहार की जनता फिर इसकी जरूरत महसूस करने लगी थी.
नीतीश ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक महत्वपूर्ण बात और कही कि प्रतिक्रिया की राजनीति नहीं चल सकती. उन्होंने लालू प्रसाद का नाम तो नहीं लिया, लेकिन उनका स्पष्ट इशारा लालू प्रसाद की ओर था. यह एक मानसिकता का भी मुद्दा है. देखा जाये, तो लालू प्रसाद की राजनीति के एकदम उलट नीतीश कुमार हैं. दोनों के देखने-परखने का तरीका एकदम भिन्न है. इन परिस्थितियों में नीतीश कुमार के पास दो ही विकल्प थे- चुनाव में जाएं या फिर भाजपा का हाथ थाम लें. उन्होंने भाजपा के साथ का रास्ता चुना. चुनाव के रास्ते पर कोई पार्टी जाना नहीं चाहती. लालू प्रसाद भी चुनाव में जाने को तैयार नहीं हैं और न ही भाजपा चुनाव मैदान में उतरना चाहती है.
सबसे अहम बात है कि इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा विरोधी राष्ट्रीय महागठबंधन को सबसे बड़ा झटका लगा है. उसकी तो जैसे हवा ही निकल गयी है. उसके नेता के रूप में केवल नीतीश कुमार में ही संभावना थी. लेकिन, कांग्रेस के साथ दिक्कत यह थी कि वह उन्हें विपक्ष का चेहरा बनाने को तैयार नहीं थी. 2019 में मोदी के मुकाबले कोई शख्स खड़ा हो सकता था, तो वह नीतीश कुमार ही थे. कांग्रेस की अकर्मण्यता एक बार फिर उजागर हुई है. नीतीश कुमार तेजस्वी के इस्तीफे को लेकर सोनिया-राहुल से मिले थे, लेकिन कांग्रेस ने कुछ नहीं किया.
( अगर महागठबंधन को बचाने के लिए कांग्रेस सक्रिय भूमिका निभाती, तो शायद यह स्थिति नहीं आती. अब 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन तो खड़ा होगा, जिसमें कांग्रेस, ममता, लालू और वामपंथी शामिल होंगे. लेकिन, जमीनी स्तर पर उसका कोई वजूद मजबूत होगा, ऐसा नहीं दिखता. एक तरह से विपक्ष ने नीतीश कुमार को खोकर 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को वॉक ओवर दे दिया है.

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