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… तब भी भारत बचा रहेगा

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पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक बीते 10 जुलाई को दहशतगर्दों ने अमरनाथ यात्रियों को ले जा रही एक बस पर अमानवीय हमला किया, जिसमें छह महिलाओं समेत सात व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी. ऐसा हमला पंद्रह वर्षों बाद हुआ और इसका खास उद्देश्य सांप्रदायिक तनाव पैदा करना तथा घाटी की बुरी स्थिति को […]

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पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
बीते 10 जुलाई को दहशतगर्दों ने अमरनाथ यात्रियों को ले जा रही एक बस पर अमानवीय हमला किया, जिसमें छह महिलाओं समेत सात व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी. ऐसा हमला पंद्रह वर्षों बाद हुआ और इसका खास उद्देश्य सांप्रदायिक तनाव पैदा करना तथा घाटी की बुरी स्थिति को बदतर करना था. सभी सियासी दलों समेत हिंदू और मुसलिम सभी आम कश्मीरियों ने इस हमले की कड़ी निंदा की.
ऐसे घिनौने आपराधिक कृत्यों को अंजाम देनेवाले दहशतगर्दों को यह तो पता चल ही गया कि अमरनाथ धाम कश्मीरियत का प्रतीक है, जहां मुसलिम एवं हिंदू समुदायों द्वारा पोषित एक धार्मिक परंपरा को अक्षुण्ण रखने में दोनों की साझी प्रतिबद्धता है. हालांकि इस तीर्थ का मूल बहुत प्राचीन है, पर यह जगजाहिर है कि हालिया दौर में बूटा मलिक नामक एक मुसलिम गड़ेरिये ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले इसे फिर से खोज निकाला था और आज भी इस मंदिर के चढ़ावे का एक हिस्सा बूटा के वंशजों को मिला करता है. प्रतिवर्ष इस तीर्थ की यात्रा करनेवाले लाखों हिंदू जम्मू और कश्मीर के पर्यटन उद्योग के तहत मुसलिमों को होनेवाली आय का जरिया हैं.
यह सच है कि एक कटिबद्ध आतंकी के विरुद्ध कोई भी अचूक सुरक्षा कवच नहीं हो सकता. कश्मीर के मामले में तो यह और भी ज्यादा लागू होता है, जहां पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित और धन तथा साजो-सामान से लैस किये गये जेहादियों को सीमा-पार से भेजा जाता है, जिन्हें स्थानीय बाशिंदों में भी कई गुमराह समर्थक मिल जाते हैं. यही वजह है कि इस यात्रा के लिए प्रतिवर्ष बड़े पैमाने पर विस्तृत सुरक्षा इंतजामात किये जाते हैं.
जुलाई-अगस्त में की जानेवाली 48 दिनों की इस वार्षिक यात्रा पर पिछला हमला वर्ष 2000 में हुआ था, जब पाकिस्तान समर्थक हिजबुल मुजाहिदीन ने 21 यात्रियों, 7 मुसलिम दुकानदारों तथा सुरक्षा बलों के 3 अधिकारियों की हत्या कर दी थी. वर्ष 2001 में आतंकियों ने इन यात्रियों के एक आश्रयस्थल पर दो हैंडग्रेनेड फेंक और अंधाधुंध गोलीबारी कर 13 यात्रियों की हत्या कर दी. अगस्त 2002 में लश्कर-ए-तैयबा के एक लड़ाके समूह अल-मंसूरियत के दहशतगर्दों ने इन यात्रियों पर उनके नुनवां स्थित आधार शिविर के समीप हमला कर 9 तीर्थयात्रियों तथा कई मुसलिमों समेत 30 व्यक्तियों को जख्मी कर दिया था.
इस यात्रा में प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में शरीक होनेवाले निहत्थे यात्रियों को यदि हमारे सुरक्षा बल पिछले पंद्रह वर्षों से सुरक्षित रखने में सफल रहे, तो यह कदापि कोई मामूली उपलब्धि नहीं है. इसके बावजूद, अगर फिर एक बार ऐसा हमला हो गया, तो क्यों यह पूछा जाना गलत है कि क्या इसे रोका जा सकता था?
क्या कहीं योजना एवं पूर्वानुमान का अभाव अथवा उसमें की गयी किसी कोताही या कि खुफिया सूचनाओं के गैरसटीक आकलन का तत्व मौजूद था, जिससे आतंकियों का यह हमला मुमकिन हो सका? मसलन, ऐसी रिपोर्टें हैं कि अनंतनाग के एसएसपी द्वारा जून के अंतिम सप्ताह में जारी एक खुफिया चेतावनी में ऐसे हमले की आशंका व्यक्त की गयी थी. क्या इस चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया गया, या इस चेतावनी की शब्दावली ही इतनी अस्पष्ट सी थी कि उस पर ठोस अमल मुश्किल था?
लोकतंत्र में पदासीन व्यक्तियों के उत्तरदायित्व से संबद्ध ऐसे सवाल करना बिलकुल ही उचित है. अल्पकालिक सियासी फायदे के लिए ऐसी त्रासदियों को राजनीतिक रंग दिया जाना एक अलग बात है. पर, क्या भविष्य में इस घटना की पुनरावृत्ति रोकने की मंशा से यह जांच करने की मांग करना कि ऐसा हमला कैसे संभव हो सका, ताकि वाजिब सबक लिये जा सकें और यदि कोई किसी चूक का दोषी हो, तो उसका दायित्व तय किया जा सके, एक राष्ट्रविरोधी कदम है?
मैं तो ऐसा नहीं समझता, पर केंद्र की भाजपा सरकार तथा राज्य की भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार दोनों में बैठे कई लोगों ने इसे इसी रूप में लिया. इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि कई मीडिया चैनलों ने भी इसी नजरिये की हिमायत की. जिस किसी ने भी यह प्रश्न करने की गुस्ताखी की कि क्या ऐसा हमला रोका जा सकता था, राष्ट्रीयता के नाम पर उसके विरुद्ध उन्मादी आक्षेपों की बौछार सी कर दी गयी.
साफ कहूं, तो सत्ता पक्ष की ओर से हुई किसी भी चूक को ढांपने के लिए राष्ट्रीयता की दुहाई देने की प्रवृत्ति ने अपनी हदें पार कर ली हैं.
विपक्ष के कई लोग एक रचनात्मक भूमिका अदा करना चाहते हैं और उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक सरीखी सरकार द्वारा उठायी गयी कई सुरक्षा पहलकदमियों की खुलकर तारीफ भी की है, हालांकि यह और बात है कि उसके बाद भी पाकिस्तान द्वारा युद्धविराम के उल्लंघन तथा दहशतगर्दी की वारदात में कोई कमी नहीं आ सकी है. इस खास मामले में तो भाजपा के सहयोगी दल शिवसेना ने भी जम्मू-कश्मीर में लगातार आतंकी हमलों को रोकने में विफलता के लिए वहां के बेअसर भाजपा-पीडीपी गठबंधन तथा भाजपा की केंद्रीय सरकार की आलोचना करने में कोई कंजूसी न की. तो क्या शिवसेना भी राष्ट्रविरोधी है?
और यदि अभी केंद्र तथा राज्य में गैरभाजपा सरकारें होतीं, तो उनकी तात्कालिक आलोचना में भाजपा कोई कम कटु हुई होती? तब तो उसने उसकी इसी आलोचना के प्रतिकार की किसी कोशिश को राष्ट्रविरोधी करार दिया होता. राजनीति में ऐसे दोहरे प्रतिमान केवल तभी तक चल सकते हैं, जब तक उनका ऐसा चरित्र उजागर नहीं हो जाता.
बहरहाल, इस बुरी तथा दर्दनाक घटना में सलीम मिर्जा एक वास्तविक नायक बन कर उभरा, जो उस बस का चालक था, जिसे आतंकियों ने अपना निशाना बनाया. यह उसकी ही हिम्मत तथा प्रत्युत्पन्नमति थी, जिसने बस के बाकी कई तीर्थयात्रियों की जिंदगी बचा ली.
जब उसकी बहादुरी को साधुवाद दिया जा रहा था, तो उसने सिर्फ इतना ही कहा कि ‘खुदा ने मुझे लोगों की जानें बचा लेने की ताकत दी.’ इस सादे-से बयान में ही वह वजह अंतर्निहित है कि क्यों इसे तोड़ने की सभी कोशिशों के बाद भी भारत बचा रहेगा.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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