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प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी का विश्लेषण : इस्राइल के पक्ष में झुकता भारत

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आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए विदेश यात्रा कोई नई बात नहीं है, वे लगातार विदेश यात्रा करते रहते हैं. हाल में वह अमेरिका, नीदरलैंड और पुर्तगाल की यात्रा कर वापस लौटे हैं. अब वह इस्राइल की यात्रा पर जाने वाले हैं. लेकिन उनकी इस्राइल की यात्रा अन्य […]

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आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए विदेश यात्रा कोई नई बात नहीं है, वे लगातार विदेश यात्रा करते रहते हैं. हाल में वह अमेरिका, नीदरलैंड और पुर्तगाल की यात्रा कर वापस लौटे हैं. अब वह इस्राइल की यात्रा पर जाने वाले हैं. लेकिन उनकी इस्राइल की यात्रा अन्य यात्राओं से अलग है.
दरअसल इस्राइल की उनकी यात्रा एक तरह से भारत की सार्वजनिक घोषणा है कि फिलीस्तीन के साथ प्रगाढ़ रिश्तों की बात पुरानी हो गयी और भारत इस्राइल के साथ रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू करने जा रहा है. हालांकि उनकी यात्रा की जमीन काफी समय से तैयार हो रही थी. इसके पहले कई केंद्रीय मंत्रियों ने इस्राइल का दौरा किया था और यहां तक कि राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी इस्राइल गये थे और रिश्तों को आगे बढ़ाया था. इसे भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद एक अहम कूटनीतिक बदलाव के रूप में भी देखा जा रहा है.
दरअसल, भारत ने अब तक इस्राइल के साथ अपने रिश्तों को दबा-छुपा कर रखा है. जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने इस्राइल की यात्रा की थी, तो वह जार्डन और फिलीस्तीन होते हुए तब इस्राइल पहुंचे थे. एक तरह से इसमें संदेश था कि भारत इस्राइल से संबंध बढ़ा तो रहा है, लेकिन फिलीस्तीन के संबंधों के बिना पर नहीं. मुझे भी राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के साथ फिलीस्तीन ऑथारिटी और इस्राइल यात्रा का अवसर मिला. आपको बता दूं कि प्रणव मुखर्जी फिलीस्तीन ऑथारिटी में रात गुजारने वाले पहले भारतीय राष्ट्रपति हैं. रमल्ला में रात गुजारने वाले दुनिया के गिने चुने राष्ट्रध्यक्षों में से वे एक हैं. अन्यथा नेता हेलिकॉप्टर से रमल्ला आते हैं और कुछ घंटे गुजारने के बाद वापस चले जाते हैं. अब तो संघर्ष के कई नये मैदान सामने आ गये हैं, अन्यथा यह स्थान दशकों तक अंतरराष्ट्रीय संघर्ष का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करता था.
अब तक परंपरा यही रही है कि जो भी शीर्ष भारतीय नेता इस्राइल जाता है, वह फिलीस्तीनऑथारिटी में जरूर जाता रहा है. यहां तक कि इस्राइल के अमेरिका जैसे पक्षकार भी, कुछ घंटों के लिए ही सही फिलीस्तीनी नेताओं से मिल जरूर लेते थे. प्रधानमंत्री मोदी की केवल इस्राइल से संदेश साफ है कि भारतीय कूटनीति का पलड़ा किस ओर है. हालांकि माना जा रहा है कि ऐसे आरोप से बचने और संतुलन साधने के लिए पिछले दिनों फिलीस्तीन ऑथारिटी के राष्ट्रपति महमूद अब्बास की भारत यात्रा आयोजित की गयी. वह अपनी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मिले.
इस दौरान पुराने बातें दोहरायी गयीं कि भारत और फिलीस्तीन के रिश्तों की बुनियाद पुरानी है. भारत आत्मनिर्भर, स्वतंत्र, अपने पैरों पर खड़े फिलीस्तीनको देखना चाहता है, वगैरह. लेकिन फिलस्तीनी भी भारत की विदेश नीति में आये बदलाव को समझ गये हैं. एक दौर था जब भारत फिलस्तीनियों का बहुत करीबी दोस्त था. फिलस्तीनी राष्ट्र के निर्माण के संघर्ष में भारत ने पूरा साथ दिया है. लेकिन भारत में फिलस्तीनियों के लिए यह समर्थन लगातार कम होता जा रहा है.
कुछ समय पहले जब गजा में टकराव बढ़ा था और इस्राइली बमबारी में बड़ी संख्या में फलस्तीनी मारे गये थे तो संसद में विपक्षी दलों ने गजा पर एक प्रस्ताव पारित करने की मांग की तो मोदी सरकार का कहना था कि गजा की स्थिति पर बहस देश के हित में नहीं है क्योंकि दोनों ही पक्षों से भारत के दोस्ताना संबंध हैं. भारी विरोध के बाद संसद में बहस तो हुई, लेकिन सरकार ने किसी तरह का प्रस्ताव पास करने से साफ इनकार कर दिया.
यह मौका था जब मोदी सरकार ने फिलीस्तीनऔर इस्राइल के साथ रिश्तों को लेकर स्पष्ट संकेत दे दिये थे. अब तक भारत इस्राइल के साथ अपने संबंधों को छुपा कर रखता आया है ताकि अरब देशों से भारत के संबंधों पर असर न पड़े. मौजूदा वक्त में भारत इस्राइल से सैन्य साज-सामग्री खरीदने वाला सबसे प्रमुख देश है. रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ही नहीं डेयरी, सिंचाई, ऊर्जा और बहुत से तकनीकी क्षेत्रों में इस्राइल भारत के साथ साझेदारी कर रहा है.
दरअसल प्रधानमंत्री मोदी इस्राइल के साथ गहरे रिश्तों के हिमायती रहे हैं जबकि विदेश मंत्रालय के नीति निर्माताओं में यह द्वंद रहा है कि इस्राइल का कितना साथ दिया जाये. भारतीय विदेश मंत्रालय की पुरानी मान्यता है कि एक देश के साथ गहरे रिश्तों की कीमत 50 अरब मुल्कों की नाराजगी लेकर करना बहुत महंगा सौदा है.
सामान्य मामलों में स्थिति यह है कि यदि आपके पासपोर्ट पर इस्राइल का वीजा लग जाते तो अनेक अरब देशों से वीजा के आपके दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं. माना जाता है कि विदेश मंत्रालय के अधिकारी राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के इस्राइल दौरे के दौरान जॉर्डन और फिलीस्तीन का दौरा जुड़वाने में कामयाब रहे थे. दूसरी ओर इस्राइली दबी जुबान में शिकायत करते रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी तो रिश्तों को मधुर बनाना चाहते हैं लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारी इसमें बाधा बने हुए हैं.
दरअसल मध्य-पूर्व में लाखों भारतीय काम करते हैं और भारत तेल आयात के मामले में भी उन पर निर्भर है. ऐसी स्थिति में भारत अरब देशों की नाराजगी मोल नहीं ले सकता. साथ ही प्रधानमंत्री मोदी इस्राइल के साथ अपने संबंधों को दबा छुपाकर भी नहीं रखना चाहते.
इस्राइली प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा को लेकर बेहद उत्साहित हैं. उन्हें अमेरिका के अलावा एक अन्य दोस्त की तलाश है जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनके साथ खड़ा हो सके. ऐसे में भारत के समक्ष चुनौती संतुलन साधने की है. यही वजह है कि अभी तक सार्वजनिक तौर से भारत बयान देता आया हैं कि फिलीस्तीन के संबंध में भारत की विदेश नीति बदली नहीं है और न ही भारत इस्राइल की तरफ झुका है. लेकिन हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा भारत-इस्राइल रिश्तों को सार्वजनिक करने की दिशा में एक अहम कदम है.

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