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बिना खड्ग बिना ढाल

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मनोज श्रीवास्तव स्वतंत्र टिप्पणीकार जबसे गांधीजी की जाति पर चर्चा चली है, तब से छोटे-बड़े सभी व्यापारी वर्ग की भुजाएं फड़क उठी हैं. अभी तक व्यापारी को लालची, लोभी ही चित्रित किया जाता रहा है. फिल्म हो या लेखन, सभी में एक लाला होता है, जिसे बहुत ही कंजूस, कपटी और स्वार्थी दिखाया जाता है. […]

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मनोज श्रीवास्तव
स्वतंत्र टिप्पणीकार
जबसे गांधीजी की जाति पर चर्चा चली है, तब से छोटे-बड़े सभी व्यापारी वर्ग की भुजाएं फड़क उठी हैं. अभी तक व्यापारी को लालची, लोभी ही चित्रित किया जाता रहा है. फिल्म हो या लेखन, सभी में एक लाला होता है, जिसे बहुत ही कंजूस, कपटी और स्वार्थी दिखाया जाता है. गरीबों का खून चूसनेवाला, उनकी जमीन-जायदाद हड़पनेवाला, ब्याजखोर और नितांत अमानवीय! ऐसे चित्रण से भरे समाज में पहली बार गर्व की लहर दौड़ गयी है.
कभी किसी इतिहासकार ने विदेशी आक्रांताओं के विरोध में ‘बनिया वर्ग’ को दिखाया ही नहीं. उन्हें सिर्फ कमजोर या अवसरवादी ही दिखाया या लिखा गया, इस कारण इस वर्ग में भी यह धारणा बन गयी कि वे लड़ने-भिड़ने के लिए बने ही नहीं, बस हर हाल में समझौतावादी छवि बना कर बैठ गये. ग्राहक उन्हें दो बातें सुना जाये, भला-बुरा कह जाये, उन्हें कोई फर्क नहीं.
बस मुस्कुरा कर बात टाल देते हैं. यही बिजनेस की चतुराई और कुशलता है, जिसमें अहिंसा ही मूल मंत्र है. अब इस अहिंसा को कोई कपट माने तो माने, पर व्यापारी खुद को चतुर कहलवाना सम्मानसूचक समझता है. यदि किसी व्यापारी को भोला-भाला या सीधा-सादा बोल दिया जाये, तो उसे अपने व्यापार योग्यत्ता पर शक होने लगता है. ऐसे नेक व्यापारियों को व्यापार जगत में कोई ज्यादा उम्मीद की नजरों से नहीं देखा जाता.
देश चाहे जातिवाद-विरोध का ढोंग करे, लेकिन देशभर में जातिवादी संघ-संगटन भरे हुए हैं. प्रत्येक जातियों ने अपने-अपने राष्ट्र-नायक बांट रखे हैं. प्रतिवर्ष उनकी जन्म-पुण्यतिथि को गाजे-बाजे के साथ गांव-गांव में मनाते हैं और अभिमान से दर्शाते हैं कि देखो हमारे जाति नायक नहीं होते, तो तुम लोग आज भी हाथ बांधे खड़े रहते. ऐसे में जिन जातियों के पास नायक नहीं है, उनके लिए मन मसोसने के सिवा कोई चारा नहीं दिखता है. अपनी जाति के नायकों के नाम आर्मी, सेना बना कर लोग दूसरों पर अपनी प्रभुत्ता सिद्ध करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं.
पहली बार इस वर्ग को अपनी आर्मी बनाने का अवसर मिला है. अब वह भी गांधीजी के फोटो के साथ उनकी जयंती-पुण्यतिथि पर साल में दो बार जुलूस निकाला करेगी कि बिना खड्ग बिना ढाल सिर्फ तराजू पकड़ कर भी दुश्मन को हराया जा-सकता है.
चूंकि फिरंगी व्यापारी थे, तो व्यापारी को भगाने के लिए बनिये का दिमाग ही काम करेगा. वैसे भी कांटे को कांटा ही निकालता है और जहर को जहर ही काट सकता है. ये किवदंतियां कालांतर में उनके नायक के पक्ष में व्यापारी वर्ग द्वारा तर्क के रूप में प्रयोग होने लगेंगी, तब सबकी चुप्पी हो जायेगी.

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