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आत्महत्या और हत्या के बीच

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार सौ साल पहले (1917) साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ के वार्षिक विशेषांक में गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘भारतीय किसान’ शीर्षक लेख में लार्ड कर्जन को उद्धृत किया था- ‘भारतीय किसान राजनीति नहीं जानते, पर उसके बुरे-भले फलों को भोगते हैं…’ कर्जन ने किसानों को ‘देश की हड्डियां और नसें’ कहा था. कृषि उन्नति मेला […]

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रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

सौ साल पहले (1917) साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ के वार्षिक विशेषांक में गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘भारतीय किसान’ शीर्षक लेख में लार्ड कर्जन को उद्धृत किया था- ‘भारतीय किसान राजनीति नहीं जानते, पर उसके बुरे-भले फलों को भोगते हैं…’ कर्जन ने किसानों को ‘देश की हड्डियां और नसें’ कहा था. कृषि उन्नति मेला 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के भाग्य को गांवों और किसानों से, कृषि-क्रांति से जोड़ा था. यह कहा था- ‘कृषि क्षेत्र को एक अलग नजरिये से विकसित करने की दिशा में यह सरकार प्रयास कर रही है.’ मध्य प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और उन पर सरकार गोलियां चला रही है. किसानों के प्रति राज्य की भूमिका अनर्थकारी है.

गांधी ने किसानों की आवाज को देश में सबसे ऊपर माना था. आज उसकी आवाज कौन सुन रहा है? तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर 14 मार्च, 2017 से 41 मार्च 2017 से 41 दिन तक धरना-प्रदर्शन किया. 170 किसानों का यह प्रदर्शन पहले के सभी प्रदर्शनों से भिन्न था.

मीडिया ने ध्यान दिया, पर उनकी भेंट प्रधानमंत्री से नहीं हुई. किसानों के पास धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के सिवा सरकार का ध्यानाकर्षण कराने का और कोई उपाय नहीं है. यह वर्ष चंपारण सत्याग्रह शताब्दी का है. प्रेमचंद ने 1932 में लिखा था, ‘हमारे स्कूल और विद्यालय, हमारी पुलिस और फौज, हमारी अदालतें और कचहरियां, सब उन्हीं की कमाई के बल पर चलती है.’ आज भले ये सब किसानों की कमाई के बल पर न चलती हों, पर सब उनके उपजाये-उगाये अन्न-फल खाते हैं. किसान सब का पेट भरता है.

किसानों ने नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में आत्महत्या की है. क्या किसानों की आत्महत्या में राज्य की कोई भूमिका नहीं है? 1995 से 2015 के बीस वर्ष में 3,18,528 किसानों ने आत्महत्या की है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रति वर्ष 12 हजार से अधिक किसान आत्महत्या करते हैं. खेती में विदर्भ जैसे पिछड़े क्षेत्र हों या मंदसौर-नासिक जैसे समृद्ध क्षेत्र, सभी जगह किसान आत्महत्या कर रहे हैं. मई 1991 के बाद भारत बदल चुका है.

1950-51 में राष्ट्रीय आय में खेती और उससे जुड़े अन्य पेशों-पशुपालन, वानिकी, मछलीपालन आदि का हिस्सा 53.1 प्रतिशत था, जो चालीस वर्ष बाद 1990-91 में घट कर 29.6 प्रतिशत और 2011-12 में मात्र 13.8 प्रतिशत हो गया, जबकि देश की 58 प्रतिशत आबादी इसी कार्य में है. कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता निरंतर कम हो रही है. विश्व बैंक ने 1996 में 40 करोड़ ग्रामीणों को 2015 तक शहरों में बसाने की बात कही थी. 2001 से 2011 के बीच 90 लाख किसानों ने गांव छोड़ दिया. प्रतिदिन लगभग दो हजार किसान शहर आ रहे है.

1991 के बाद किसानों की हालत सर्वाधिक बिगड़ी है. बीते 25-26 वर्ष में गैरबराबरी अधिक बढ़ी है. किसानों ने जिन्हें विधायक और सांसद बनाया, उनकी आर्थिक समृद्धि ने छलांगें लगायी हैं. सरकारी कर्मचारियों की वेतन-वृद्धि और खाद्यान्न पदार्थों की मूल्य वृद्धि में जमीन-आसमान का अंतर है. खेती अब कहीं अधिक घाटे का सौदा है. सीधा सा प्रश्न है कि सरकार और व्यवस्था पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और कॉरपोरेटों का हित चाहती है या किसानों का हित? किसानों का अपना राजनीतिक दल कौन है? उसकी चिंता देश के किस राजनीतिक दल को है?

कॉरपोरेट इंडिया में क्या किसानों की समस्या हल होगी? नयी उदारवादी अर्थव्यवस्था किसानों के प्रति अनुदार है. भारतीय राष्ट्र-राज्य को अब किसानों की चिंता नहीं है. संयुक्त राज्य अमेरिका अपने किसानों को दो लाख करोड़ के लगभग अनुदान (सब्सिडी) देता है. भारतीय राज्य किसानों को दी जानेवाली सब्सिडी के पक्ष में अब नहीं है. विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन की नीतियों से चालित सरकारें किसानों का हित नहीं करेगी. कर्ज माफी मात्र एक उपचार है. यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है.

दीर्घकालीन स्थायी समाधान के बिना समस्या हल नहीं होगी. किसान क्या करें? कहां जायें? उनके सामने एकमात्र विकल्प आंदोलन है. किसानों के आंदोलन को कानून-व्यवस्था से जोड़ कर देखना वास्तविक समस्या से मुंह चुराना है. मृत किसान के परिवार को एक करोड़ देना जीवन से अधिक मृत्यु को महत्व देना है. भारतीय राज्य उस विश्वपूंजी के साथ है, जो जुआरी पूंजी है. शेयर बाजार के युग में जुआ खेलना ही महत्वपूर्ण है. कृषि का जुआ से बैर है और सरकारें जुआरी पूंजी के साथ हैं. आरएसएस से जुड़ा भारतीय किसान संघ (बीकेएस) मानता है कि केंद्र सरकार की प्राथमिकता में किसान नहीं है.

केंद्र सरकार कृषि को राज्य का विषय मानती है. महाराष्ट्र के अकोला के भाजपा सांसद संजय घोत्रे ने कुछ वर्ष पहले कहा था- ‘किसान मरते हैं तो मरने दो, इनके लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है. किसानों की खुदकुशी से हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता.’ खुदकुशी से फर्क न पड़े, आंदोलन से पड़ेगा. आत्महत्या और हत्या के बीच बस आंदोलन है.

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