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मायावती ने क्यों घटायी दलितों, पिछड़ों और अगड़ों की सीटें?

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आरके नीरद सपा में जारी घमसान के बीच मुसलिमों को अाकर्षित करना चाहती हैं बहनजी ज्यादा टिकट देकर वोटों का बिखराव रोकने का दिया अघोषित संदेश मायावती ने ओबीसी, दलित और अगड़ी जाति के लिए सीटें कम कर दी हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में इन तीनों वर्गों की 12 सीटें काट कर उन्होंने […]

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आरके नीरद

सपा में जारी घमसान के बीच मुसलिमों को अाकर्षित करना चाहती हैं बहनजी

ज्यादा टिकट देकर वोटों का बिखराव रोकने का दिया अघोषित संदेश

मायावती ने ओबीसी, दलित और अगड़ी जाति के लिए सीटें कम कर दी हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में इन तीनों वर्गों की 12 सीटें काट कर उन्होंने मुसलिम उम्मीदवारों को दी हैं. अब तक तीन सूची में तीन सौ उम्मीदवारों के नामों की घोषणा हो चुकी हैं. इनमें 86 सीटेंं मुसलिमों को दी गयी हैं. अभी 103 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा होनी बाकी है. इनमें भी 11 नाम मुसलमानों के होंगे. बसपा ने इस बार भी सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. इस बार वह पिछड़ों के बाद सबसे ज्यादा मुसलिम उम्मीदवारों पर दांव लगाने जा रही है.
सपा की अंदरूनी लड़ाई और भाजपा की चुनावी आक्रामकता में मुसलिम वोटों को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए उन्होंने इस बार अन्य सभी वर्गों के मुकाबले मुसलिम उम्मीदवारों पर ज्यादा दांव लगाया है. मायावती ने ओबीसी, दलित और अगड़ी तीनों की सीटें इस बार कम कर दी हैं. 2007 के चुनाव के मुकाबले इस बार ओबीसी की सात सीटें कम की जा रही हैं. पिछली बार 113 पिछड़े नेताओं काे उम्मीदवार बनाया गया था. इस बार इनकी संख्या 106 की जा रही है. पिछली बार 88 दलित चुनाव में उतारे गये थे. इस बार इनकी संख्या 87, यानी पिछली बार से एक कम होने जा रही है. उसी तरह पिछले चुनाव में अगड़ी जाति के 117 उम्मीदवारों पर बसपा ने दांव लगाया था. इस बार इसमें सात की कमी की जा रही है. इस बार के चुनाव में उसके 113 अगड़े उम्मीदवार होंगे. इस बार बसपा के टिकट वाले ब्राह्मण 66 होंगे, जबकि पिछली बार इनकी संख्या 74 थी.
राज्य में पिछड़ों और दलितों के बाद सबसे ज्यादा आबादी मुसलमानों की है. यहां 18 फीसदी आबादी मुसलमानों की है. पिछड़ों में 13 फीसदी यादव, 12 फीसदी कुर्मी आैर 10 फीसदी दूसरी जातियां हैं. ये कुल मिला कर 35 फीसदी हैं. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर चुनाव आयोग भी यह सुनिश्चित करने में लगा है कि धर्म और जाति के नाम पर वाेट नहीं मांगे जायेंगे, लेकिन सच यह भी है कि कुछ अन्य राज्यों की तरह उत्तरप्रदेश के विषय में राजनीतिक धारणा यही है कि यहां आम वोटर उम्मीदवार नहीं, जाति के आधार पर वोट करता है. वहीं, पिछले सालों में हुए राज्य में हुए दंगों ने मुसलिम वोटरों काे और भी एकजुट कर दिया. खास कर पश्चिमी उच्च प्रदेश में.
पश्चिमी उत्तरप्रदेश में क्या है समीकरण?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुल आबादी 5.57 करोड़ है, जिनमें 26 फीसदी मुसलमान हैं. यह उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की कुल आबादी का 17 फीसदी है. यानी सूबे में सबसे ज्यादा मुसलिम आबादी इसी क्षेत्र में हैं. यहां करीब 72 फीसदी हिंदू आबादी है. हिंदुओं में 17 फीसदी जाट हैं और सामाजिक -राजनीतिक दृष्टि से बेहद प्रभावशाली हैं. 2012 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 26 मस्लिम उम्मीदवार चुने गये थे.
सितंबर 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वोटरों को स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में बाट दिया. यह 2014 के लोकसभा चुनाव में साफ दिखा भी. इस दंगे में 43 लोग मारे गये थे. 93 लोग गंभीर रूप से घायल कर छोड़ दिये गये और कहा जाता है कि 50 हजार लोग विस्थापित हुए थे. कैराना इसी जिले में है, जहां से एक समुदाय के 250 परिवार कथित रूप से पलायन के लिए मजबूर किये गये थे. इस मुद्दे को भाजपा के सांसद हुकुम सिंह ने राजनीतिक रंग दिया. इन सब का इस बार के विधानसभा चुनाव में असर नहीं होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता. लिहाजा टिकट बंटवारे में बाकी दल भी इस समीकरण का ख्याल करते ही रहे हैं. फिलवक्त, बसपा उम्मीदवारों की सूची जारी करने वाली पहली पार्टी साबित हुई है. उसकी सूची में इस समीकरण को पूरी-पूरी जगह दी गयी है. यह देखने वाली बात हाेगी कि इसके बाद भी वह 2007 के अपने चुनावी प्रदर्शन को दुहरा पाती भी है या नहीं.

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