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डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी : जेपी से किया था आग्रह फिर से राजनीति में हों सक्रिय

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कल आपने पढ़ा कि डॉ सुब्रमण्यन स्वामी का भारतीय परिधानों पर जोर सैद्धांतिक है और वे जब हॉर्वर्ड में प्रोफेसर थे तब भी पश्चिमी कपड़े नहीं पहनते थे. हॉर्वर्ड में जयप्रकाश नारायण से हुई उनकी पहली मुलाकात के बारे में भी आपने पढ़ा था, अब पढिए उससे आगे की कहानी : 1968 में हुई मुलाकात […]

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कल आपने पढ़ा कि डॉ सुब्रमण्यन स्वामी का भारतीय परिधानों पर जोर सैद्धांतिक है और वे जब हॉर्वर्ड में प्रोफेसर थे तब भी पश्चिमी कपड़े नहीं पहनते थे. हॉर्वर्ड में जयप्रकाश नारायण से हुई उनकी पहली मुलाकात के बारे में भी आपने पढ़ा था, अब पढिए उससे आगे की कहानी :

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1968 में हुई मुलाकात में हॉर्वर्ड में जयप्रकाश नारायण ने डॉ सुब्रमण्यन स्वामी को स्वदेश लौटने का प्रस्ताव दिया, जिस पर स्वामी विचार करते रहे. हॉर्वर्ड में डिनर पर जेपी ने उन्हें गांधी, नेहरू, पटेल, बोस का उदाहरण दिया था और यह भी बताया था कि कैसे डॉ आंबेडकर अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी स्वदेश लौटे और खुद को देश सेवा के लिए समर्पित किया. वहां जेपी ने उन्हें राजनीति नहीं सर्वोदय से जुड़ने का न्यौत दिया था. अंतत: जेपी के द्वारा उनको कही गयी बात का असर हुआ और डॉ स्वामी ने 1969 में हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और देश वापस लौट चले. डॉ स्वामी ने अपने लेख में लिखा है कि जेपी से अपनी दूसरी मुलाकात के लिए वे उन्हें दिल्ली स्टेशन पर रिसीव करने पहुंचे थे, उस समय जेपी के साथ उनके सचिव के अलावा कोई नहीं था. जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम के समय जेपी का राजनीतिक कद था, उन्हें कोई रिसीव करने भी स्टेशन नहीं आया था. स्वामी को अहसास हुआ कि वे उस समय तक देश में ‘भुला’ दिये गये व्यक्ति थे. डॉ स्वामी ने अपने लेख में लिखा है कि स्टेशन पर जेपी को किसी ने पहचाना भी नहीं. जब स्वामी स्वदेश आये तो दिल्ली में जेपी के संग मीटिंग की और मदुरई के निकट वेटलागुंडा के लिए निकल गये. यह अक्तूबर 1969 का समय था.

लेकिन, डॉ स्वामी को मदुरई के निकट सर्वोदय का काम जमा नहीं और 1970 के आरंभ में ही दिल्ली लौट आये और जेपी को पत्र लिखा कि मैं सर्वोदय के लिए फिट आदमी नहीं हूं और राजनीति के बिना सामाजिक सेवा का कोई मतलब नहीं है. स्वामी के अनुसार, उनकी इन पंक्तियों से जेपी बहुत आहत हुए. डॉ स्वामी ने जेपी से संबंधों पर लिखे अपने लेख में लिखा है कि 1953 में जेपी उपप्रधानमंत्री का प्रस्ताव ठुकरा चुके थे और विपक्षी व पार्टीविहीन डेमोक्रेसी के पैरवीकार बन गये थे. वे चाहते थे कि पंचायती राज आधारित गैर राजनीतिक लोकतंत्र हो.

डॉ स्वामी के करीबी जगदीश शेट्टी कहते हैं कि जेपी को इसके लिए उन्होंने आगाह किया था. डॉ स्वामी मानते थे कि जेपी 1953 से ही इस तरह अपना जीवन ‘व्यर्थ’ कर रहे हैं. जेपी ने स्वामी के पत्र का उनको रुखा और ठंडा जवाब दिया था, जिसमें लिखा था कि वे उनकी बातों से मायूस हैं. इसके बाद जेपी ने डॉ स्वामी के किसी पत्र का जवाब नहीं दिया. डॉ स्वामी के करीबी व विराट हिंदुस्तान संगम के महासचिव जगदीश शेट्टी कहते हैं कि डॉ स्वामी ने जेपी को दलविहीन राजनीति का असर नहीं होने के बारे में अपना पक्ष रखा था.


इस लंबे लेख की पहली कड़ी पढ़ने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें :

डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी : हॉर्वर्ड में भी पश्चिमी पहनावे से नहीं था उनका नाता

इन सब में ढाई साल गुजर गये और जुलाई 1972 में जेपी का एक टेलीग्राम डॉ स्वामी को मिला. उस समय जेपी हार्ट अटैक के बाद बेंगलुरु के निकट थिपगोंदानाहल्ली में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. टेलीग्राम में जेपी ने उन्हें अपने कुछ मित्रों के साथ एक आवश्यक मुद्दे पर बात करने के लिए बुलाया था.

स्वामी लिखते हैं कि उन्होंने देखा कि करीब 15 शीर्ष सर्वोदयी साथी वहां थे. उस दौरान कई अहम मुद्दों पर चर्चा हुई. एक सेशन में जेपी ने एक सवाल उठाया. उन्होंने पूछा कि अगर इंदिरा गांधी सैन्य शासन लगा देंगी तो उनकी क्या भूमिका होगी या इसे रोकने के लिए वे क्या करेंगे? इस पर लगभग सभी सर्वोदयी नेता ने कहा कि वे उपवास करेंगे और पत्र लिखेंगे पर स्वामी ने अलग राय रखी. स्वामी के जवाब से सभी अवाक रह गये. डॉ स्वामी ने जेपी से कहा कि आपके द्वारा राजनीति छोड़ना एक भूल है. वे दोबारा सक्रिय राजनीति में आकर इसे ठीक कर सकते हैं. डॉ स्वामी के लिखे अनुसार, सभी सर्वोदयी नेता ने उनके कहे का विरोध किया और कहा कि यहउनका (डॉ स्वामी का) अधकचरापन है. लेकिन, तब सभी अवाक रह गये जब जेपी ने अपने समापन संबोधन में कहा कि इंदिरा गांधी की तानाशाही को रोकने के लिए वे राजनीति में प्रवेश करेंगे. जेपी ने कहा कि स्वामी साहसी हैं और वे हृदय को छूने वाले सत्य को बोलने को लेकर भयभीत नहीं हैं. मैं उनसे राजी हूं और सही तारीख पर राजनीति में वापस आने का निर्णय लूंगा. इस प्रकार 1974 तक जेपी पूरी तरह राजनीतिक आंदोलन में कूद गये और इमरजेंसी की आहट के मद्देनजर जनता पार्टी के गठन का आइडिया आया, जिसमें तमाम विरोधी दलों को एक साथ किया जा सके.

इसके बाद जेपी और स्वामी के रिश्तों का पहले से अधिक प्रभावी दौर शुरू हुआ. स्वामी लिखते हैं कि इसके बाद जेपी बिना उन्हें बताये या बुलाये कभी दिल्ली नहीं आये. राजनीति में तब जूनियर होने के बावजूद उन्होंने स्वामी को राजनीतिक दलों के नेशनल को-आर्डिनेशन कमेटी का मेंबर बनाया. यह नवंबर 1974 की बात है. स्वामी ने जेपी और कामराज की तब मीटिंग करवायी. उस समय जेपी, कामराज और डॉ स्वामी के सभी अखबारों में फोटो छपे थे. तमाम विरोधाभाषों के बीच स्वामी जेपी और मोरारजी देसाई को बीच भी सेतु बने.

नोट : यह आलेख डॉ सुब्रमण्यन स्वामी के आलेख व उनके सहयोगी जगदीश शेट्टी से बातचीत के आधार पर तैयारकिया गया है. इसमें कई अंश डॉ स्वामी के आलेख से लिये गये हैं.


(प्रस्तुति : राहुल सिंह)

इन सवालों का जवाब जानने के लिए कल पढ़िए तीसरी और अंतिम कड़ी :

क्या वाजपेयी जी की आपत्तियों की वजह से डॉ स्वामी भाजपा की स्थापना के समय पार्टी में नहीं शामिल हो पाये थे?


क्यों वर्षों तक वन मैन आर्मी की तर्ज पर जनता पार्टी को चलाते रहे डॉ स्वामी?


जनता पार्टी कैसे एनडीए में शामिल हुआ और कैसे डॉ स्वामी ने उसका भाजपा में विलय किया?


क्या डॉ स्वामी हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी छोड़ कर नहीं आते तो उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलता?

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