विष्णु कुमार
नयी दिल्ली : एक सप्ताह के अंदर अजीत जोगी के बाद कांग्रेस के एक दूसरे अहम नेता गुरुदास कामत ने पार्टी को बॉय-बॉय कह दिया. गुरुदास कामत ने राजनीति से संन्यास लेने की बात कह कांग्रेस छोड़ी तो जोगी ने सोनिया-राहुल को बड़ा आदमी- जिनके पास अपनी बातें कहना मुश्किल हो – कह कर कांग्रेस छोड़ी. हालांकि दोनों नेताओं की कांग्रेस छोड़ने की दूसरी वजहें बतायी जाती हैं. छत्तीसगढ़ में जोगी जहां भूपेश बघेल के बढ़ते प्रभाव से परेशान थे, तो कामत महाराष्ट्र कांग्रेस में संजय निरूपम के बढ़ते कद से. उस पर यह भी कहा जा रहा है कि तमिलनाडु से आने वाले पी चिदंबरम को अपने गृह राज्य महाराष्ट्र से राज्यसभा भेजने का सोनिया गांधी-राहुल गांधी का फैसला उन्हें रास नहीं आया. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस एक जर्जर विशाल जहाज की तरह है, जिसपरराजनीति के समुद्र में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिखने पर मौजूदा हाल में उसे छोड़ना ही उसके पुराने लोग उचित समझते हैं?
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जोगी, कामत कांग्रेस छोड़ने वाले नये नाम नहीं
अजीत जोगी अौर गुरुदास कामथ कांग्रेस छोड़ने वाले नये नाम नहीं हैं. इसमें विजय बहुगुणा के नेतृत्व में उत्तराखंड में कांग्रेस के विधायकों का एक धड़ा भी शामिल है, जो भाजपा में शामिल हो गया. बहुगुणा, जाेगी की ही तरह अपने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हैं और उत्तरखंड कांग्रेस में हरीश रावत के बाद दूसरे अहम नेता थे. उधर, उत्तरप्रदेश से आने वाले बेनी प्रसाद वर्मा भी कांग्रेस छोड़ पुराने मित्र मुलायम सिंह यादव की पार्टी में शामिल हो गये. बेनी बाबू कभी राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखते थे, पर अब वे दोबारा अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने का सपना देखते हैं. बेनीबाबू की भी यूपी में एक खास राजनीतिक हैसियत है, जो अपने मार्जिन वोटों से थोड़ा-बहुत हेरफेर करकिसीकासंख्याबल घटा या बढ़ा सकते हैं. उधर, अरुणाचल कांग्रेस भी टूट चुकी है. पूर्वोत्तरकी कुछ राज्य कांग्रेस इकाइयों में असम में भाजपा की सरकार बनने के बाद अंतरकलह उभरने की खबरें भी आयीं हैं. तमिलनाडु की वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयंती नटराजन पहले ही राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कांग्रेस छोड़ चुकी हैं.
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क्या कमजोर नेतृत्व का परिणाम है अंतरकलह?
ऐसी टूट और उस पर अंतरकलह से सवाल उठता है कि क्या यह कमजोर नेतृत्व का परिणाम है? सोनिया गांधी ऐतहासिक रूप से सबसे लंबे समयसे कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर कायम हैं. उनके नेतृत्व वाली यूपीए ने दो सरकारें चलायी हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस के अंदर राहुल गांधी के उभार के साथ ही सोनिया गांधी का भी प्रभामंडल कमजोर पड़ गया है. राहुल गांधी पहले पार्टी के महासचिव बने और उन्होंने युवा कांग्रेस व एनएसयूआइ में टैलेंट हंट जैसे अभियान चलाये, जिसे मीडिया में खूब सुर्खियां मिली. उस समय भी राहुल गांधी का यूपीए सरकार व पार्टी के कामकाज में दखल था, पर जब वे उपाध्यक्ष बने तो एक तरह से सारी कार्यकारी शक्ति उनके हाथ आ गयी. कहा भी जाता है कि कांग्रेस का दिन-प्रतिदिन का काम अब वे ही देखते हैं, जबकि सोनिया गांधी बड़े व रणनीतिक महत्व के मामलों को देखती हैं और बेहद जरूरीहोने पर ही दिन-प्रतिदिन के काम में हस्तक्षेप करती हैं. इसके उदाहरण भी हैं.
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राहुल व सोनिया में क्या है अंतर?
सोनिया गांधी के पार्टी चलाने के काैशल की हर कोई दाद देता है. उन्होंने एक सुस्त पड़ी पार्टी को लोकप्रियता के चरम पर रहे अटल बिहारी वाजपेयी के सामने मजबूत विकल्प के रूप में न सिर्फ खड़ा किया, बल्कि उनके हाथों से सत्ता भी छिन ली. सोनिया हर किसी केजायज पक्ष कोगंभीरता से सुनने वाली नेता मानी जाती हैं और कांग्रेस के बेहद विश्वस्त व पुराने लोगों पर उनका भरोसा कायम है. वे संयमित हैं और गुस्से के सार्वजनिक प्रकटीकरण से भरसक बचती रही हैं.
उनके उलट राहुल गांधीकीछवि एकतीव्रव त्वरित सुधारवादीनेताहै किहैजिनकेबारे मेंमीडियामें यह धारणाबनीहै कि उनके पासऐसे सुधारों के लिए दृष्टिकी स्पष्टता नहीं है. दूसरा राहुल गांधी अपने क्रोध का सार्वजनिक प्रकटीकरण करने वाले नेता बन गये हैं,भले ही वे यह सोचते हों कि इसका उनको राजनीतिक लाभ होगा, लेकिन राजनीति में ऐसे उदाहरण विरले ही दिखते हैं, जबक्रोध के सार्वजनिक प्रकटीकरण का नेताओं को लाभ हुआ हो.ऐसा अगर होता भी है तो व्यक्ति आधारित क्षेत्रीय पार्टियों के सुप्रीमो टाइप नेताओं के साथ होता है.राहुलगांधी कागज को जनसभामेंपॉकेटसे निकाल कर फाड़ते हैं और आनन-फानन में गुस्से से प्रेस कान्फ्रेंस करडॉ मनमोहनसिंहसरकारकेआर्डिनेंसको बकवास करारदेते हैं.सोनियागांधी के बेहदभरोसमंद जनार्दन द्विवेदी को उनके एक बयान के लिएउनसे अपेक्षाकृत कनिष्ठनेताव अपने करीबी अजयमाकनसेमीडिया मेंकार्रवाई का भयदिखातेहैं और द्विवेदी कोसोनिया गांधी पुन:अभय प्रदान करती हैं औरउन्हें यह अहसास कराती हैंकिउनका भरोसा उनमें पूर्व की तरह ही कायम है. ये उदाहरण कांग्रेस के शीर्ष पर खड़े सोनिया गांधी व राहुल गांधी की अलग-अलग राजनीतिक प्रकृति को दिखाता है.
और, शायद यह चीजें कांग्रेस के नेताओं को दोसमूह में बांट रही है. एक समूह चाहता है कि साेनिया गांधी पार्टी को पुनर्जीवन दिये बिना पद नहीं छोड़ें, जबकि दूसरा समूह चाहता है कि राहुल गांधी अब पूरी तरह कमान संभाल ही लें, ताकि नेतृत्व के स्तर पर एकरूपता हो और यह भ्रम कम रहे कि क्या और कैसे करना है,एकऔर अहम बात इस दूसरे समूह को लगता है कि राहुल गांधी का नेतृत्व उनके लिए अधिक मुफिद होगा. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने हाल मेंसोनिया गांधी को अस्वस्थ बताते हुए राहुल गांधी को पूर्ण नेतृत्व सौंपने की बात कही है.
सोनिया गांधी जहां, मोतीलाल वोरा, एके एंटोनी, अहमद पटेल, अंबिका सोनी,जनार्दन द्विवेदी जैसेनेताओं पर भरपूरभरोसा करती हैं,वहीं राहुल गांधी के करीब दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश, मधुसूदन मिस्त्री,अजयमाकन जैसे नेता हैं.
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पीढ़ीगत बदलाव में कांग्रेस विफल
भाजपा की तरह कांग्रेस अबतक पीढ़ीगत बदलाव नहीं कर सकी है, भले ही उपाध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी शीर्ष पर हों. ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जतीन प्रसाद, जितेंद्र सिंह जैसे युवा नेताओं की संगठन में अबतक सक्रियवअत्यधिक प्रभावी भूमिका नहीं चिह्नित की गयी है. जबकि भाजपा ने लोकसभा चुनाव के बाद अपनी तीसरी पीढ़ी के नेताओं को पूरी तरह से संगठन की जिम्मेवारी सौंप दी है, जिनमें कई के नाम तो उस पद पर पहुंचने से पहले मीडिया के लिए भी अनजान ही थे. हाल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद भी कांग्रेस की कमान युवा नेताओं को सौंपने मांग तेज हुई है. ऐसे में मजबूत विपक्ष की कमी से जूझ रहे इस देश के लिए यह एक बड़ा सवाल है कि कांग्रेस के इस मर्ज की दवा आखिर है क्या?