– हरिवंश –
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, उनकी सरकार और यूपीए नक्सल समस्या पर अपने दिये गये बयान और समाधान के लिए एक भी कारगर कदम न उठाने के लिए याद किये जायेंगे. वह पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने कई बार, खुलेआम कहा, आजादी के बाद की सबसे गंभीर चुनौती है, नक्सलवाद.
उन्होंने यह भी बार-बार कहा, आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गये हैं, नक्सली. गृहमंत्री ने भी संसद में ऐसे ही बयान दिये पर यूपीए सरकार ने, इस समस्या पर सिर्फ बयान ही नहीं दिये, समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाया. सरकारी सूत्रों के अनुसार 2004 में जब एनडीए ने सत्ता छोड़ी, तो 12 राज्यों के 125 जिलों में नक्सलियों की मौजूदगी थी. आज इन 12 राज्यों के 182 जिलों में इनकी उपस्थिति है.
वर्ष 2004 में सीआरपीएफ की 23 बटालियनें ‘नक्सल विरोधी’ कार्रवाई में लगी थीं. आज 32 बटालियनें नक्सलियों को नियंत्रित करने के काम में लगी हैं, पर नक्सलियों की उपस्थिति लगातार बढ़ रही है. वे लड़ाकू नक्सली दस्ते प्लाटून या नयी कंपनियां बनाने में जुटे हैं.
इंटेलिजेंस सूचनाओं के अनुसार उग्रवादी भी बूलेटप्रूफ जैकेट उपयोग कर रहे हैं. रात में दिखाई देनेवाली (नाइट विजन डिवाइस) तकनीक का भी वे इस्तेमाल कर रहे हैं.
नक्सली हमलों में अत्याधुनिक हथियार, घातक क्लेमोर माइंस, कैमरा फ्लैश, मोबाइल फोन, रेडियो सिग्नल पकड़ने के उपकरण प्रयोग किये जा रहे हैं. चेन्नई में गिरफ्तार एक बड़े नक्सली के लैपटाप से मिली सूचनाओं के अनुसार, अब नक्सली औद्योगिक इलाकों में पांव पसार रहे हैं. दिल्ली, मुंबई, पुणे व अन्य शहरों तक शहरी गुरिल्ला टुकड़ियां वे खड़े कर रहे हैं. दूर से विस्फोट और मानव बम सक्रिय करने की राणनीति भी उनकी तैयारी सूची में है.
और इंटेलिजेंस को ये सूचनायें चेन्नई में पकड़े गये एक नक्सली के लैपटाप से मिली है. इस नक्सली जयंत उर्फ कुणाल उर्फ टुडू की गिरफ्तारी 2007 में 12 अगस्त को हुई. जयंत, महेंद्र सिंह (सीपीआइएमएल के मशहूर संघर्षशील झारखंडी विधायक हैं) हत्याकांड के प्रमुख आरोपी हैं.
पुलिस के अनुसार जयंत के लैपटाप से मिली सूचनाओं के अनुसार नक्सली उग्रवादी संगठन, उल्फा जैसे समूहों के साथ तानाबाना (नेटवर्किंग) बना रहे हैं. 12.7 एमएम एंटीएयर क्राफ्ट बंदूकों का भी इन्हें प्रशिक्षण मिल रहा है. यह भी सूचना है कि 80 एमएम मोर्टारगन और राकेट चालित ग्रिनेड राइफ्लस जैसे आधुनिक और लेटेस्ट हथियार इनके पास हैं.
पिछले वर्ष चेन्नई शहर के औद्योगिक इलाकों में एक मिनी कारखाना पकड़ा गया, जहां नक्सलियों के लिए राकेट लांचर एसेंबल किये जाते थे. देश के कई हिस्सों में नक्सली निर्णय से जीवन चलता है.
वे जब चाहते हैं संपूर्ण बंद होता है. बाजार व्यवसाय से लेकर जीवन ठहर जाता है. सड़कें सुनसान हो जाती हैं. रेल रुट बदल लेती हैं या ट्रेनें कैंसिल हो जाती हैं. पुलिस या राज्य का प्रजेंस शहरों तक सीमित हो जाता है. अरबों की क्षति होती है. जीवन ठहर जाता है. स्टेट पावर चुपचाप मूकदर्शक की भूमिका में सिमट जाता है.
बढ़ती व फैलती नक्सली ताकत को समझने के लिए यह तथ्य महत्वपूर्ण है. सीआरपीएफ ने एक टॉप नक्सल नेता मिसिर बेसरा को पिछले वर्ष सितंबर में पकड़ा. पूछताछ के क्रम में बेसरा ने बताया कि नक्सली उड़ीसा के एक सशस्त्र कारागार पर हमला करनेवाले हैं. यह सूचना सितंबर 2007 में पुलिस को मिली. 16 फरवरी 2008 को नयागढ़ पुलिस शस्त्रागार पर नक्सलियों ने हमला बोलकर 1091 घातक हथियार लूट लिये. यह जगह राजधानी भुवनेश्वर से सटी है. स्पष्ट है कि भारत सरकार व उड़ीसा सरकार को करीब पांच माह पहले से सूचनाएं थीं, कि नक्सली हमला शस्त्रागार पर होनेवाला है. फिर भी हमला हुआ और पुलिस हथियार लूट लिये गये.
स्टेट की सत्ता को इससे बड़ी और खुली चुनौती और क्या हो सकती है? जहानाबाद (बिहार) जेल तोड़कर, साथी नक्सलियों को छुड़ाकर शहर पर घंटों कब्जा कायम कर नक्सली पहले से ही देश को अपनी ताकत बता चुके हैं. नक्सली संगठन का ढांचा अत्यंत चुस्त-दुरुस्त है. नेताओं की स्पष्ट हायरारकी है. प्रशासकीय सेल है.
हथियारबंद, बेहतरीन प्रशिक्षण से लैस मारक दस्ते हैं. पर्याप्त बजट है. सरकारों की तरह बना स्पष्ट बजट और आवंटित फंड. और आइडियालजी (गलत या सही अलग प्रसंग है) के प्रति कमिटेड माइंडसेट. भारत संघ के लगातार कमजोर होते जाने, गर्वनेंस के चौपट होने, न्यायप्रणाली के अप्रभावी होते जाने और राजनीति के कारपोरेटाइजेशन की प्रक्रिया से ही नक्सलवाद को ताकतवर होने के खाद, पानी, बीज और अनुकूल आबोहवा मिली है.
सत्ता में बैठे लोग नक्सल समस्या को गहराई से समझने की कोशिश ही नहीं करते. बढ़ते भ्रष्टाचार से इसको ताकत मिल रही है. पढ़-लिख कर बेरोजगार बने युवा इसके सैनिक हैं. भारत के विकास की जो कीमत चुका रहे हैं, वे इसके समर्थक आधार हैं. जिन आदिवासी इलाकों के संपन्न मिनरल रिसोर्स पर बड़े कल-कारखाने खड़े होते हैं, वहां से विस्थापित होनेवाले लोग इस नक्सल आंदोलन के बैक बोन हैं.
1991 के बाद तेजी से बढ़ी आर्थिक विषमता के जो शिकार हैं, वे इस आंदोलन से सहानुभूति रखते हैं. राजनीतिक पार्टियां, कॉरपोरेट हाऊसों की तरह चलने लगी हैं. गांव, देहात, जंगल या आदिवासी इलाकों के बुनियादी सवालों से उनका संपर्क नहीं रहा. धरती से जुड़े इन सवालों पर नक्सली बात करते हैं और इन समस्याओं से जूझ रहे करोड़ों लोगों की सहानुभूति पाते हैं. राजनीतिक दलों के दोहरे और भ्रष्ट चरित्र के सवाल उठाकर वे जनता में समर्थन जुटाते हैं.
इस नक्सली विचारधारा को काउंटर करने के लिए किसी राजनीतिक दल के पास कोई रणनीति नहीं है.हाल ही में नक्सल समस्या पर पेंग्विन से एक पुस्तक आयी है ‘रेडसन’ (ट्रेवल्स इन नक्सलाइट कंट्री, लेखक सुदीप चक्रवर्त्ती) रोचक पुस्तक है. पुस्तक के अनुसार 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से उपजा आंदोलन अब भारत के 28 राज्यों में से 15 राज्यों में फैल चुका है. पुस्तक में (197 पेज) एक जगह उल्लेख है. माओ के नारा का ‘वर्ग संघर्ष को हरगिज न भूलो’, फिर चेग्वेरा का उद्धरण है, ‘खड़े होकर या तन कर मरना बेहतर है, घुटने टेक देने की जगह’. मार्क्स का भी उद्धरण है.
माओ चेग्वेरा या मार्क्स माकट कैपटिलज्म की दुनिया में चीन, रूस, वियतनाम या अन्य पूर्व कम्युनिस्ट देशों में अप्रसांगिक हो सकते हैं, पर भारत का एक बड़ा हिस्सा उनके विचारों से प्रेरित और संघर्षरत है.
और यह नक्सली ताकत, स्टेट पावर को चुनौती देते हुए लगातार मजबूत हो रही है. दुर्भाग्य है कि इनके विकल्प में कोई राजनीतिक विचार भारत के गांवों, सुदूर जंगलों-पहाड़ों या पिछड़े इलाके में जगह नहीं बना पा रहा है.