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मिटेगी यह सभ्यता !

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– हरिवंश – यह पुस्तक ‘ इंड आफ माडर्न सिविलाइजेशन एंड अल्टरनेटिव फ्यूचर’, लेखक डॉ सहदेव दास (आधुनिक सभ्यता का अंत और वैकल्पिक भविष्य) मिली, तो विश्वविद्यालय जीवन की स्मृति उभरी. तब पहली बार ‘ क्लब अॅाफ रोम’ का नाम सुना. दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता (अलग-अलग क्षेत्रों के) वैज्ञानिक, चिंतक इससे जुड़े थे. इन सबके […]

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– हरिवंश –
यह पुस्तक ‘ इंड आफ माडर्न सिविलाइजेशन एंड अल्टरनेटिव फ्यूचर’, लेखक डॉ सहदेव दास (आधुनिक सभ्यता का अंत और वैकल्पिक भविष्य) मिली, तो विश्वविद्यालय जीवन की स्मृति उभरी. तब पहली बार ‘ क्लब अॅाफ रोम’ का नाम सुना. दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता (अलग-अलग क्षेत्रों के) वैज्ञानिक, चिंतक इससे जुड़े थे. इन सबके चिंतन और चिंता के निचोड़ के रूप में एक पुस्तक (या दस्तावेज) आयी, ‘ लिमिट्स टू ग्रोथ’. यानी विकास की सीमाएं.
दुनिया में बहस छिड़ी कि भौतिक भूख, भोग और उद्दाम-निर्मुक्त स्वच्छंदता-वासना से संचालित इस पश्चिमी विकास मॉडल की सीमाएं हैं? सीमा का अतिक्रमण, विनाश को बुला रहा है. आत्महंता विकास. उस दस्तावेज में चिंता थी कि प्रकृति का अवैज्ञानिक दोहन दुनिया को नष्ट कर देगा. तेल, कोयला, वगैरह प्राकृतिक खनिजों का सीमित भंडार है.
कुछेक सौ वर्षों में जब वे खत्म होंगे, तो क्या होगा? धरती और आनेवाली पीढ़ियों का भविष्य कैसा होगा? उन्हीं दिनों अर्थशास्त्र में शुमाकर का शोर था. ‘ स्माल इज ब्यूटीफूल’ (छोटा ही सुंदर है), पुस्तक और विकास के नये दर्शन के कारण. यह चिंता कोई मामूली लोगों की नहीं थी. अपने समय के श्रेष्ठ, उर्वर और सर्जक मस्तिष्क यह चेता रहे थे. दुनिया ने उस चिंता पर गौर किया होता, तो आज कोपेनहेगन (पर्यावरण संकट) में आत्मरुदन और विलाप न होता.
बहरहाल भारत में यह चिंता महज समाजवादी ताकतों ने सुनी. समाजवादी पार्टियों ने आर्थिक मॉडल के सवाल पर बहस छेड़ी. सार्वजनिक एजेंडा बनाया. बाद में जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय ने ‘ एकात्म मानववाद’ में भी विकास के पश्चिमी दर्शन पर सवाल खड़ा किया. कांग्रेस और कम्युनिस्ट विकास के बड़े सपनों से प्रेरित-संचालित थे. भारत में इस पश्चिमी विकास के कहर को 20वीं सदी के आरंभिक दौर में ही गांधी जी ने भांप लिया. ‘ हिंद स्वराज्य’ रचना की शताब्दी चल रही है. उसमें भोग की संस्कृति का उल्लेख है.
प्रकृति के सानिध्य में विकास, गांधीजी की मान्यता रही. पंडित नेहरू से विकास पर हुए पत्राचार (प्यारेलाल की पुस्तक) में गांधीजी ने साफ-साफ दर्ज किया है कि हम दोनों (पंडित नेहरू-गांधी जी) के बीच विकास को लेकर मौलिक मतभेद हैं. एक पश्चिमी दर्शन से संचालित, दूसरा भारत की पुरानी श्रेष्ठ परंपराओं और धरती से जुड़ी. हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं पूरी करे, पर लोभ की भरपाई संभव नहीं. विकास के मूल में नैतिक मूल्य हों.
बेलगाम स्पर्धा नहीं. पश्चिमी दर्शन, लाभ-लोभ और संचय प्रेरित है. क्या संयोग है कि आज पर्यावरण संकट से बचने के लिए दुनिया गांधी को ही मसीहा मान रही है. हालांकि पंडित नेहरू ने भी अपने जीवन के अंत में गांधी के रास्ते से भटकने की भूल मान ली थी. (पढ़ें भारतीय अर्थव्यवस्था पर चौधरी चरण सिंह की पुस्तक).
कलकत्ता के अध्येता, लेखक मित्र प्रमोद शाह ने जब यह पुस्तक भिजवाई (इंड अॅाफ माडर्न सिविलाइजेशन), तो विकास और आधुनिक सभ्यता से जुड़े सारे सवाल उभरे. यह पुस्तक भागवत वर्ल्ड आर्डर प्रेस से छपी है. पाठक प्रकाशक से कीमत है, 250 रु. पुस्तक के लेखक हैं, डॉ सहदेव दास. प्रभावी व्यक्तित्व. उनका मूल नाम है, डां. संजय शाह. अब वैष्णव परंपरा में दीक्षित संन्यासी हैं. श्रेष्ठ संस्थानों से शिक्षा. सीए-आइसीडब्लूए में राष्ट्रीय स्तर पर रैंक. पर दो दशकों से संन्यास का जीवन. वैदिक और आधुनिक सवालों के गहरे अध्येता-चिंतक और लेखक. संगीतकार भी. बहुयामी, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्तित्व. उनके चिंतन का निचोड़ है, यह पुस्तक. क्योंकि यह सवाल सृष्टि से जुड़ा है. हर इंसान के लिए यक्ष प्रश्न.
भूमिका में ही डॉ सहदेव ने कार्ल जुंग के एक कथन का उल्लेख किया है. इंसान नग्न सच्चाई का सामना नहीं कर सकते (पीपुल कैन नाट स्टैंड टू मच रिएलिटी). और एक ऐसा सच है कि मानव इतिहास में अनेक सभ्यताएं दफन हो चुकी है. यानी अनिष्ट की बात करनेवाले निराधार नहीं हैं. अगर खत्म या लुप्त हई सभ्यताओं की गहराई में उतरें, तो डॉ सहदेव के अनुसार हर अंत के पीछे एक या दो खास कारण मिलेंगे. मसलन धरती की उपेक्षा, नैतिक पतन, नेतृत्व संकट वगैरह.
पर आज की सभ्यता में एक विशेष पहलू है. पांच हजार वर्षों में जितनी सभ्यताएं मिट गयीं, उनके मूल में जो एकाध कारण थे, आज वे सभी कारण एक साथ मौजूद हैं. इनके अतिरिक्त भी कई नये ‘ कारण’ सक्रिय हैं. यानी अतीत में एक या दो कारण से कोई सभ्यता अतीत बनी, पर आज ऐसे सभी कारण (कुछेक नये भी) एक साथ हैं. एक जगह हैं. क्या इसके बाद भी इस सभ्यता के भविष्य जानने-आंकने में परेशानी -दुविधा है? इस आधुनिक सभ्यता ने इस जगत में विज्ञान और तकनीकी के बल स्तब्धकारी परिवर्तन किये हैं. जीवन को आरामदेह और संसार को अथाह प्रगति-संपदा देकर. पर इसी आधुनिक सभ्यता में 20वीं सदी सबसे खूनी शताब्दी भी हई. मानव इतिहास में इससे पहले इतने बड़े संहार नहीं हुए.
दो-दो विनाशकारी गृह युद्ध. हिटलर के यातना शिविर. परमाणु बम से विनाश. अत्याधुनिक संहारक शस्त्रों से लैस-संपन्न दुनिया. इसी सभ्यता ने ऐसी दुनिया दी है, जहां हर वर्ष धरती की ऊपरी परत की 24 बिलियन मिट्टी खत्म हो रही है. सालाना 44 मिलियन एकड़ जंगल की धरती नष्ट हो रही है. 15 मिलियन एकड़ नये बंजर या रेत भूमि हर वर्ष निकल रही है. पर्यावरण में भारी मात्रा में कार्बनडाइआक्साइड घुल रहा है. हर साल हर दिन हर क्षण.
धरती खौलने की ओर है. प्रेशर कुकर की तरह. अगर दुनिया चेती नहीं, तो विस्फोट या फटने के कगार पर. और इसी सभ्यता ने अब दुनिया को ग्लोबल गांव में बदल दिया है, जहां अमीरों-गरीबों की खाई चौड़ी हो रही है. इस ग्लोबल विलेज में 20 फीसदी लोगों के पास दुनिया के समग्र उत्पाद का 86 फीसदी है. सबसे नीचे की 80 फीसदी आबादी एक डालर रोजाना पर गुजारा करती है. इन अंतर्विरोधों-स्वभावों से संपन्न यह सभ्यता क्या दीर्घायु या स्थायी हो सकती है?
भूमिका में ही लेखक कहते हैं कि इस पुस्तक का मकसद भयभीत करना नहीं है, लोगों को आगाह करना है. पूरी सृष्टि एक अद्भुत नैसर्गिक संतुलन से चल रही है. इसलिए सृष्टि के बुनियादी सिद्धांतों की अवहेलना आत्मविनाशी है. पहले सभ्यताएं स्थानीय होती थीं. मसलन सिंधु घाटी सभ्यता,मोहनजोदड़ो-हड़प्पा वगैरह. अगर ये सभ्यताएं नष्ट हुईं, तो स्थानीय स्तर पर ही.
पर अब खतरा बड़ा है. पूरी दुनिया एकसूत्र में बंधी-बुनी है. इसलिए समस्त दुनिया पर खतरा है. लगभग 450 पेज की इस पुस्तक में आठ खंड हैं. सात भाग में इस सभ्यता को लीलने के लिए तैयार आठ खतरों का उल्लेख. वैज्ञानिक व तार्किक ढंग से. इतिहास दर्शन के प्रामाणिक कथनों-उद्धरणों के साथ. आठवें खंड में वैकल्पिक भविष्य पर चर्चा है. इसमें भी छह अध्याय हैं. इस रूप में यह पुस्तक वैकल्पिक तौर-तरीकों से सृष्टि बचाने की बात करती है. ये अनोखे-मौलिक और प्रामाणिक सुझाव हैं.
पुस्तक में महान नेताओं, कवियों, इतिहासकारों और दार्शनिकों के कालजयी उद्धरण भी हैं. स्वामी प्रभुपाद के दूरदर्शी बयान-व्याख्यान के अंश भी. यह पुस्तक भी उन्हीं को समर्पित है. शुरू में ही खत्म हुई सभ्यताओं की सूची है. लंबी. देखकर हैरत होती है कि कितनी बड़ी-बड़ी सभ्यताएं मिट गयीं. नामोंनिशान नहीं बचा.
दुनिया-सभ्यता मिटने की अनंत भविष्यवाणियां हैं. आकलन-विश्लेषण हैं. साहित्य हैं. पश्चिम में तो इस पर वृहद काम हुआ है. चर्चित फिल्में बनी हैं. लगभग हर धर्म में कलियुग, फिर नष्ट होने के प्रसंग आते हैं. पर यह पुस्तक भिन्न है. तार्किक है. लगातार भोग की ओर भागती, अनैतिक होती, प्रकृति नष्ट करती दुनिया को देख कर महाभारत काल के व्यास याद आते हैं.
महाभारत पूर्व एक जगह वह कहते हैं, हाथ उठा-उठा कर चीख कर कहता हूं, सर्वनाश की ओर हम बढ़ रहे हैं. पर कोई सुनता नहीं. लगभग वही स्थिति है. यह पुस्तक भी हमें चेताती है. हर देश के हर नागरिक के लिए एक जरूरी पुस्तक. खासतौर से नयी पीढ़ी के लिए, जिसे भविष्य गढ़ना है.
दिनांक : 10-01-2010

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