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– हरिवंश – अन्ना डोर ने भारत को एक सूत्र में बांधा है. झकझोरा है. यह सुखद है कि भारत के किसी कोने से कोई सामान्य आदमी उभर कर अखिल भारतीय छाप छोड़े. युवा से लेकर बुजुर्गों तक सबको एक साथ, एक सपने, और धागे में बांध ले. काश, ऐसा भी कोई दिन आये, जब […]

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– हरिवंश –
अन्ना डोर ने भारत को एक सूत्र में बांधा है. झकझोरा है. यह सुखद है कि भारत के किसी कोने से कोई सामान्य आदमी उभर कर अखिल भारतीय छाप छोड़े. युवा से लेकर बुजुर्गों तक सबको एक साथ, एक सपने, और धागे में बांध ले. काश, ऐसा भी कोई दिन आये, जब उत्तर-पूर्व राज्य से निकल कर कोई अन्ना भारत का नया रोल-मॉडल बन जाये. भारत की रहनुमाई करे. उसकी आवाज पूरे देश की आवाज लगे, जैसे अन्ना हजारे की आवाज और बात, देश की बात बन गयी है. देश की मजबूती और एकता पर इसका दीर्घकालिक असर होगा.
भारत में लोकसत्ता की अवधारणा रही है. अधिसंख्य लोग जीवन में पद, पैसा, प्रभाव और सत्ता के कारण पूजे जाते हैं. अब वंश और परिवार का भी असर है. अनेक दलों में परिवार मंडली है. कुछ के परिवार देश को ही अपनी जागीर समझते हैं. पर लोकसत्ता, राजनीतिक सत्ता के उलट है. राजनीति में मिले पद-पैसा से पूज्य बने लोग ”लोकनायकों” का उदय नहीं समझेंगे.
परिवार के बल पर भी कोई ”लोकनायक” नहीं बन सकता. उत्तराधिकारी या विरासत में भी यह पद पाना मुमकिन नहीं. यह पद, चरित्र, तपस्या का प्रतिफल है. मूल्यों की आग और आंच में तपने से यह ”आभा” मिलती है. एक मित्र मशहूर रामकथावाचक पद्मभूषण रामकिंकर जी महाराज की पुस्तक दे गये. ”प्रेम मूर्ति भरत” पुस्तक में एक जगह लिखा है कि भरत ने संसार को सिखाया कि केवल शास्त्रों द्वारा ही धर्म की व्याख्या नहीं होती, बल्कि धर्म उसे कहते हैं, कि आप जो समझें, वही कहें और जो कहें, वही करें.
समुझब कहब करब तुम्ह जोई
धरमसारु जग होइहि सोई .
गांधी जी ने इसे ”साध्य”और” साधन” कह कर ”परिभाषित” किया. डॉक्टर लोहिया ने मन, वचन और कर्म की एका की चर्चा की. सिद्धांत जो भी हों, पर लोक नायक बन जानेवालों मेंखास गुण रहे है. उनमें से एक है, जो समझे, वही कहे. जो कहे, वही करे.
कुछ ही दिनों में अन्ना (मराठी में बड़े भाई को अण्णा कहते हैं) देश में घरेलू नाम (हाउसहोल्ड नेम) बन गये हैं. कैसे? न उनके पास पद है, न पैसा, न वंश, न परिवार की आभा, न पारिवारिक विरासत का उत्तराधिकार. फिर भी पूरे देश में उनका जादू चल रहा है. संसद ने अभिवादन किया, सरकार झुकी, राजनेता पनाह मांग रहे हैं. क्यों? जनता की नब्ज पर अन्ना का हाथ है. जन व्यथा. बैचैनी और जन भावना की आवाज की अभिव्यक्ति. हालांकि यह काम राजनीति का है, पर राजनीति फेल हो गयी है. इसलिए अन्ना सेना के ड्राइवर से देश के ड्राइवर की भूमिका में पहुंच गये हैं.
अन्ना उदय के बाद, अब संसदीय राजनीति के सामने चुनौती है कि वह अपनी साख कैसे लौटाये? क्योंकि अंतत: मौलिक रूप से बदली और गांधीवादी आदर्शों से संचालित, नयी संसदीय राजनीति ही, अन्ना के सपनों को धरती पर उतार या साकार कर सकती है.
अन्ना डोर ने भारत को एक सूत्र में बांधा है. झकझोरा है. यह सुखद है कि भारत के किसी कोने से कोई सामान्य आदमी उभर कर अखिल भारतीय छाप छोड़े. युवा से लेकर बुजुर्गों तक सबको एक साथ, एक सपने, और धागे में बांध ले. काश, ऐसा भी कोई दिन आये, जब उत्तर-पूर्व राज्य से निकल कर कोई अन्ना भारत का नया रोल-मॉडल बन जाये. भारत की रहनुमाई करे. उसकी आवाज पूरे देश की आवाज लगे, जैसे अन्ना हजारे की आवाज और बात, देश की बात बन गयीहै. देश की मजबूती और एकता पर इसका दीर्घकालिक असर होगा.
1991 के उदारीकरण के बाद देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया. बड़ी संख्या में राजनीतिक डीलरों का उदय हुआ. हर दल में कॉरपोरेट जगत के दलालों का राजनीतिक अभिषेक शुरू हुआ.
अंगरेजी पढ़े-लिखे, बड़े विदेशपलट वकील, मैनेजमेंट प्रशिक्षित, जड़हीन लोगों की कतार का भारतीय राजनीति में उदय. जैसे कांटिनेंटल फूड, विदेशी व्यंजन, गांव-गांव पहुंचने लगे, वैसे ही ”इलीट” या अभिजात्य नेताओं का उदय शुरू हुआ. अंगरेजी प्रवीण ही नहीं, पाश्चात्य प्रवृत्ति, चरित्र और सोच के नेताओं का उदय. पर अन्ना उदय ने यह ”राजनीतिक” व्याकरण पलट दिया है. अन्ना भदेस हैं. ठेठ भारतीय. गंजी, धोती, कुरता जैसे भारतीय लिबास में. खांटी देशज भाषा, शैली, मुहावरे में अपनी पीड़ा का बखान करते हैं.
बातें सीधी- सपाट करते है. न कोई विशेषण, न घुमा-फिरा कर कहें कुछ, पर अर्थ कुछ. और चमत्कार यह कि पूरा देश सुन रहा है. सांस थामे. दुनिया में इसकी गूंज सुनाई दे रही है. क्यों? क्योंकि अन्ना जो समझते हैं, वही कहते हैं. करते हैं. कांग्रेस ने उन पर आरोपों की बौछार की, जांच के बाद एक-एक सभी आरोप झूठे पाये गये. कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी माफी मांग रहे हैं. यह सिर्फ मनीष तिवारी की स्थिति नहीं है.
राजनीतिक अहंकार का लोक दबाव में झुकना है. माफी मांगना है. झूठ, फरेब, छल और तिकड़म की मैकियावेली राजनीति भारत के राजनीतिक दल कर रहे हैं. इसके मुकाबले अन्ना गांधी की राह पर हैं. गांव में मंदिर के एक कोने में सोना, खाने की एक थाली, न बैंक बैलेंस, न निजी संपदा और न परिवार. कहा कि मेरे लिए (अन्ना) जो कुछ है, देश है. अब ऐसे नि:स्वार्थ के मुकाबले, सांसद फंड से लेकर देश की सर्वश्रेष्ठ सुविधाओं (राजकोष की बदौलत) के बल पर शहंशाह की तरह रहते राजनेता, सत्ता की आभा में ठाठ से जीवन गुजारते राजनेता. इनके बीच द्वंद्व है. इसलिए एक अकेला है, पर उसके साथ है सादगी, सच्चाई और चरित्र. उधर, सभी राजनीतिज्ञों की जमात है, पर एक इंसान इन सब पर भारी है. क्यों ?
वह (अन्ना) देश के नये आइकॉन (आदर्श, रोल मॉडल) बन गये हैं. जो युवा पीढ़ी, आजादी की लड़ाई के तपे-तपाये नेताओं को या 74 के जेपी आंदोलन के समर्पित नेताओं को सीधे नहीं जानती थी, आज अन्ना में वह झलक पा रही है. अन्ना द्वारा युवाओं के इस आलोड़न के दूरगामी असर होनेवाले हैं. देश हित में, नयी ऊर्जा का उदय.
इस आंदोलन की सबसे बड़ी या उल्लेखनीय घटना या पहलू? 11- 12 दिनों से देश आंदोलित है, पर एक हिंसक घटना का न होना, लाखों लाख लोगों का रोज सड़कों पर उतरना, यह राजनीतिक दलों की तरह ढोयी भीड़ नहीं है. यहां राजनीति तिजारत नहीं है. 1974 के बाद पहली बार कोई पीपुल मूवमेंट (जन आंदोलन) शुरू हो रहा है, जिसके पास है नैतिक बल. इस अपने देशज ठाट, जमीनी बातों और भारतीय लिबास में अन्ना. भारतीय अभिजात्य या इलीट वर्ग को पच नहीं पा रहे. इसलिए अंगरेजी पलट अरुंधती राय की बातों में अन्ना के प्रति नफरत है. भारत के पाकिस्तान समर्थक देशद्रोही अरुंधती राय को पसंद आते हैं. इनको वह गले लगाती हैं. पर अन्ना उन्हें नफरत के पात्र लगते हैं.
इस देशज आदमी अन्ना का हाथ सीधे देश की नब्ज पर है. वह कहते हैं देश का सारा पैसा जनता का है. भिखारी भी टैक्स देता है. पर जनता, भिखारी की भिखारी और शासक? गाड़ी, बंगला, एसी और इनके वेतन पर 75 फीसदी खर्च, ऊपर से 10 फीसदी घूस. 85 फीसदी इस तरह खर्च, 15 फीसदी जनता पर.
मालिक जनता, भिखारी की भूमिका में. अन्ना की यह और ऐसी अनेक बातें शासक वर्ग को भदेस, अर्थहीन लग सकती हैं, पर गांव- घर और लोगों के दिलों को छू रही हैं. देश को उद्वेलित कर रही हैं. देश में यह एक नयी ऊर्जा का उदय है. इसके तात्कालिक और दूरगामी दोनों असर होने हैं.
दिनांक : 28.08.2011

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