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””कहां गइल मोर गांव रे””

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– हरिवंश – दस अक्तूबर की रात थी. शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी. टह-टह चांद चमक रहा था. चौदहवीं का चांद. आधी रात के आसपास नींद खुली. घर से बाहर आया. पिशाब करने. देखा वही बड़े पेड़. मीलों-मीलों तक खुले खेत. निर्जीव स्तब्धता. ऊपर से शीतल-स्निग्ध चांदनी रात. संवेदनशील कवियों ने अंजुरी भर भी ऐसी चांदनी […]

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– हरिवंश –
दस अक्तूबर की रात थी. शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी. टह-टह चांद चमक रहा था. चौदहवीं का चांद. आधी रात के आसपास नींद खुली. घर से बाहर आया. पिशाब करने. देखा वही बड़े पेड़. मीलों-मीलों तक खुले खेत. निर्जीव स्तब्धता. ऊपर से शीतल-स्निग्ध चांदनी रात. संवेदनशील कवियों ने अंजुरी भर भी ऐसी चांदनी पी लेने, उससे आत्मसात हो जाने की कल्पनाएं की हैं.
पर, 40 वर्षों पहले छूट गये इस गांव की ऐसी बातें या दृश्य कहां भूल पाया? शायद यही कारण है कि गांव आने-जाने का सिलसिला नहीं टूटा. घर बंद ही रहता है. पर ये यादें शायद खींच लाती हैं. दरवाजे के आगे वही विशाल पाकड़ या पकड़ी का पेड़, जिसके नीचे बचपन व कैशोर्य गुजरा. पर वह पेड़ टूट कर आधा रह गया है. दरवाजे के आगे वही कुआं.
जिसके ओट पर गर्मियों में सोना होता था. गर्मी से राहत मिलती. स्कूल के छात्र थे, हम. हमारे अध्यापक सुरेश कुमार गिरी रात एक-डेढ़ बजे रोज जगाते. पढ़ने के लिए. कहते आंख धोकर, पहले बाहर पांच मिनट घूमो. नींद नहीं आयेगी. मन-ही-मन उन्हें कोसते हम ऐसा ही करते. उन्हीं दिनों बिना पढ़े, बताये, देख कर जाना, समझा कि चांदनी रात या पूर्णिमा का सौंदर्य क्या है? घोर देहात, गांव या घर के आगे, निछान चंवर. मीलों-मील पसरे-फैले खेत.
सब कुछ सोया, शांत. अंधेरी रात में तारों की वह अद्भुत चमक. डर भी रहता भूतों का, सांपों का, बिच्छू का (सांप-बिच्छू तब तक काट चुके थे), फिर भी उन रातों में मिलती ब्रह्मांड की झलक की यादें कितनी सजीव हैं. आज भी, चार दशक बाद.
तब सचमुच गरीबी थी. दो नदियों का घेरा. विशाल दरियाव (नदियों का पाट) पार करना होता. घाघरा पार रिविलगंज (छपरा बहुत बाद में देखा) ही सबसे बड़ा शहर लगता. न सड़क, न अस्पताल. न बिजली, न फोन. चार-पांच महीने पानी में ही डूबे-घिरे रहना पड़ता… बाढ़ के वे दिन, वेग से चलती हवाओं से उठती लहरें, दरवाजे पर बंधी नावों से यात्रा के वे दिन, आज रोमांचक लगते हैं. पर तब कितने कठिन थे. अज्ञेय के भाव में कहें, तो भोक्ता की पीड़ा, वही जान सकता है.
वरदान रहा कि उस बियाबान जंगल या दीयर या दोआब (दो नदियों के बीच गांव) में जेपी पैदा हो गये. चंद्रशेखर जी ने उसका उद्धार आरंभ किया. और बिहार के हिस्से के गांवों की सूरत बदली नीतीश कुमार ने. अब बिजली है. सड़क है. यूपी इलाके में सड़क टूटी-फूटी है, बिजली पहले से है. पहले की तरह घंटों-घंटों नावों से (बयार या मौसम पर निर्भर नाव यात्रा) और फिर रेत पर लंबी पैदल यात्रा तो नहीं करनी पड़ती. 27 टोले का यह गांव है. यूपी-बिहार के तीन जिलों में बंटा. बलिया, आरा, छपरा. अधिकतर हिस्सा या टोले बलिया में हैं.
पर इस बार 11 अक्तूबर को जेपी के जन्मदिन पर गांववालों ने अनुभव सुनाये. कहा मीडियावाले तो ऐसे-ऐसे सवाल पूछ रहे थे, मानो यूपी-बिहार के गांव ‘भारत-पाक’ जैसे दो देश हों. जेपी का जन्म कहां, घर कहां?
वगैरह-वगैरह. गांववालों ने कहा, हमने तो इसके पहले जाना ही नहीं कि हमारा गांव, दो राज्यों और तीन जिलों में है. हम तो एक बस्ती हैं. एक शरीर जैसे. उसे आप बांट रहे हैं, ऊपर से बता या एहसास करा रहे हैं. गांववालों की बात सुन कर मंटों की मशहूर कहानियां याद आयीं. भारत-पाक बंटवारे सीमा से जुड़ीं. कहा, आधुनिक राजकाज, हुकूमत, प्रशासन की अपनी सीमाएं या बंधन है. मीडिया के ऐसे सवालों को इसी रूप में लें.
पर एक और बड़ी उल्लेखनीय बात. कह सकता हूं कि वह सिताबदियारा गांव (27 टोले) वह नहीं रहा, जो था. वह गरीबी नहीं दिखती. हालांकि अभी भी कई टोलों के लोगों की पूरी की पूरी जमीन कटाव में चली गयी है. गंगा-घाघरा के कटाव में. खेतिहर भूमिहीन में बदल गये हैं. फिर भी वह पुरानी गरीबी नहीं दिखती. पर वह पुराना ‘गांव’, जो 40 वर्षों पहले छूटा, वह भी नहीं दिखता.
कई छोटे-मोटे बाजार खुल-बन गये हैं. गांवों की भदेस भाषा में चट्टी कहते हैं. इन्हें देख कर या इनके बारे में जान कर कहावत याद आती है कि मुक्ति की राह बाजारों से तय होती है. ये चट्टी या मामूली बाजार, शहरीकरण की आरंभिक सीढ़ियां हैं. ये सीढ़ियां, गांवों के पुराने ताने-बाने को छिन्न-भिन्न और नष्ट कर देती हैं. तुरहा-तुरहिन, कुम्हार, हजाम, धोबी, छोटे दुकानदार धीरे-धीरे गायब या नष्ट होते हैं. ‘इंटरप्रेन्योरशिप’ (‘उद्यमशीलता’) के नये-नये उदाहरण भी मिलते हैं. आर्थिक गतिविधियां बढ़ने-पनपने लगती हैं. बिजली, पानी सप्लाई, फोन टावर वगैरह से नये छोटे रोजगार पनपने लगते हैं, सड़कों से ठेका मिलता है.
सरकारी स्कीमों के प्रभाव व काम के असर दीखते हैं. इस तरह एक फसल पर जीवन जीनेवालों के लिए अनेक नये अवसर उपजे हैं. इससे समृद्धि आयी है. या समृद्धि की जगह कहें कि वह भयावह गरीबी-दुर्दिन अब नहीं रहे, तो शायद ज्यादा सही अभिव्यक्ति होगी. राजनीति भी धंधा बन गयी है. हर दल के सक्रिय कार्यकर्ताओं के अपने रुतबे-हैसियत हैं. गांव पंचायतों की गतिविधियों से सूरत बदल रही है. सत्ता और पैसे के वे नये केंद्र बन गये हैं.
पर अपने गांव को इस बार देखते हुए अंगरेज कवि ओलिवर गोल्ड स्मिथ की कविता की एक पंक्ति याद आयी ‘वेल्थ एक्युमुलेट्स एंड मेन डिके’ (संपन्नता आती है, पर मनुष्य का क्षय होता है) यह 1770 में लिखी गयी. तब गरीब इंग्लैंड का औद्योगिकीकरण हो रहा था. वह गरीबी का चोला उतार कर संपन्न बन रहा था.
यही हाल अपने गांव का पाया. गांव में देसी शराब, कुटीर उद्योग बन गयी है. पहले 1970 में रिविलगंज से एक आदमी दो घड़ा (दू घइला) ताड़ी लेकर दीयर में उतरा. हमारे चाचा चंदिका बाबू (जेपी के सहयोगी) ने संबंधित टोलों के बुजुर्गों को खबर (बिहार के इलाके) करायी, वह ताड़ी जस की तस, फिर घाट पर वापस गयी. इस हिदायत के साथ कि दोबारा इस पार न आये. आज शराब के बाजार का विस्तार हो गया है.
दशकों तक उस घटना की चर्चा हम सुनते रहे. एक बुजुर्ग या नैतिक इंसान का पूरा गांव आदर करता. पंचों का फैसला सर्वमान्य होता. आज बाप को बेटा सुनने के लिए तैयार नहीं. पहले एक बुजुर्ग की अवहेलना 27 गांव नहीं कर पाता था. नैतिक बंधन की यह बाड़, गरीबी का चोला उतारते गांव ने तोड़ दिया है.
पहले रामायण, कीर्त्तन, भजन, सत्संग, साधु-संत सेवा में लोग मुक्ति तलाशते थे, अब शराब, ठेकेदारी और राजनीति मुक्ति के नये आयाम हैं.
सबसे बड़ा फर्क रिश्तों-संबंधों में आया है. बचपन में कई विधवाओं को देखा है, अकेले झोपड़ी डाल कर रहते-गुजारा करते. लोग-समाज ऐसे लोगों का ध्यान रखते थे. पूरे सम्मान-स्वाभिमान के साथ ऐसी गरीब विधवाओं को जीते देखा. बूढ़े-बुजुर्गों का सम्मान था. वे बोझ नहीं थे. हमारे घर में, हमारे किसान पिता अधिकतर बाहर रहते. अभिभावक की भूमिका में थे, घर के बुजुर्ग नौकर भिखारी भाई (यादव). किसी में साहस नहीं था, एक शब्द उनकी अवहेलना करे. वह गार्जियन थे.
वैसे भी तब पिता लोग अपने बेटों का ध्यान नहीं, भतीजों को खुला स्नेह अधिक करते थे. हमसे भी चाचा लोग. (एक चाचा, जिन्हें हम लाला कहते थे. वह संत थे.) यानी, मैं, मेरी बीवी, मेरे बच्चों का दौर नहीं आया था. कैसे-कैसे उदार चरित्र और बड़े मन के लोग थे. रासबिहारी भईया, राधामोहन बाबा, ओस्ताद बाबा, श्यामा बाबा, चंद्रमन यादव, दाई….
गांव के अन्य बड़े बुजुर्ग, जिनसे रक्त का रिश्ता नहीं, पर वे अपने थे. कई अपढ़ थे, पर ज्ञानियों से अधिक मानवीय-समझदार. निस्वार्थ स्नेह, मदद और अपनत्व की वह छायावाला गांव कहां खो गया? अब अधिसंख्य पढ़े-लिखे हैं, पर रिश्तों में हिसाब-किताब है.
बिहार के पूर्व मंत्री एवं अर्थशास्त्री प्रो. प्रभुनाथ सिंह पारिवारिक मित्र थे. हर वर्ष संक्रांत में वह भी मेरे घर (गांव) आते. भोजपुरी के जाने-माने लेखक कवि भी थे. दस वर्षों पहले उन्होंने गांवों-घरों के छीजते आत्मकेंद्रित संबंधों को लेकर एक लंबी कविता लिखी थी. अत्यंत मार्मिक. ‘कहां गइल मोर गांव रे?’
चौदहवीं की चांदनी में बचपन में देखे-निहारे उस गांव को इस बार भी चौदहवीं के चांद की रोशनी में ही देखा. लक्ष्मी की खनक ने उस गरीबी को मलिन किया है. पर गांव का वह पुराना मन, मिजाज और संबंध भी दरक गया है.
इस बदलते गांव का चेहरा-प्रोफाइल, साहित्य में देखने की ललक है. 60-70 के दशकों में बदलते गांवों को फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ या ‘परती परिकथा’ या राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ या शिवप्रसाद की ‘अलग-अलग वैतरणी’ या श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ में जिस तरह पढ़ा था, आज के बदलते गांव के बारे में वैसा साहित्य पढ़ने की ललक.
किसी भी समाजशास्त्री ने इतने बेहतर ढंग से 60-70 के बदलते गांवों के बारे में इतना बेहतर नहीं बताया, जितना इन चार उपन्यासकारों-साहित्यकारों ने. मौजूदा सृजन में लगे लोगों के लिए यह चुनौती है.
दिनांक : 16.10.2011

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