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गंठबंधन की राजनीति

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– हरिवंश – गंठबंधन की राजनीति इस देश के लिए अभिशाप है. अपवाद हैं. मसलन बिहार में राज्यहित में गंठबंधन का धर्म निभाने की सही कोशिश हो रही है. इससे पहले जायें, तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए का फेज-1 ठीकठाक रहा. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए उससे बेहतर रहा, इससे भी […]

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– हरिवंश –
गंठबंधन की राजनीति इस देश के लिए अभिशाप है. अपवाद हैं. मसलन बिहार में राज्यहित में गंठबंधन का धर्म निभाने की सही कोशिश हो रही है. इससे पहले जायें, तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए का फेज-1 ठीकठाक रहा. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए उससे बेहतर रहा, इससे भी पहले जायें, तो मोरारजी की सरकार (जो एक अर्थ में साझा ही थी) श्रेष्ठ रही. क्योंकि तब राजनीति में विचार, सिद्धांत और मूल्य जिंदा थे.
पर आज के हालात अलग हैं. गंठबंधन की राजनीति को साफ -साफ कहें, तो यह देश का नाश कर रही है. गंठबंधन के पीछे मूल कारण क्या हैं? समाज को इतने सांचे (जाति, धर्म, क्षेत्र, गोत्र वगैरह) में इस राजनीति ने बांट दिया है कि इसका चुनाव परिणाम खंड-खंड होना ही है. केंद्र से लेकर राज्यों में ऐसी अपंग, सिद्धांतहीन और भ्रष्ट सरकारें क्या कर रहीं हैं? निजी हितों में काम. चाहे पार्टी के हित हों, या परिवार के या जाति समूह के या क्षेत्र समूह के या अपने वोट बैंक को खुश रखने का काम. पर देश कहां है?
आज इस मुल्क के सामने बड़े सवाल क्या हैं? आनेवाले दस वर्षों में लगभग 20 करोड़ युवा होंगे, जिन्हें रोजगार चाहिए. यह सवाल किस दल या सरकार को मथ रहा है? तेजी से शहरीकरण होगा, उसके लिए भारी पूंजी चाहिए, वह तैयारी कहां है? इंफ्रास्ट्रकचर (रेल, सड़क, जलमार्ग-वायुमार्ग, शहरों को रहने योग्य बनाने वगैरह) में भारी निवेश की जरूरत है, इस पर कौन चिंतित है?
धरती (जमीन) का फैलाव नहीं हो रहा, पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है. नदियां सूख रहीं हैं. पीने के पानी का संकट बढ़ रहा है. आबोहवा प्रदूषित हो रही है? ये ऐसे सवाल हैं, जो सीधे धरती या इंसान के अस्तित्व से जुड़े हैं. क्या पक्ष-विपक्ष या क्षेत्रीय दल (ये सवाल सबसे जुड़े हैं) कहीं इनमें से एक सवाल पर भी चिंतित या बेचैन हैं?
इसी तरह मुल्क के सामने अन्य सबसे बड़ी चुनौतियां क्या हैं? देश के पूर्व विदेश सचिव और जाने माने विचारक, मुचकुंद दुबे की भारत की विदेश नीति पर एक किताब आ रही है.
देश के एक बड़े अंगरेजी अखबार में विस्तार से इस पुस्तक में उठाये गये मुख्य सवालों का ब्योरा छपा है. हर भारतीय को इन सवालों को जानना-समझना चाहिए. वामपंथी विचारों से प्रभावित मुचकुंद दुबे का मानना है कि भारत के लगभग सभी पड़ोसी देश, भारत के खिलाफ कार्य कर रहे हैं. उन्हें चीन से समर्थन है. मूल सवाल है कि चीन, दुनिया का नया बादशाह (सुपरपावर) है.
समृद्ध, विकसित और आधुनिक. समाज या देश चलने का गणित पुराना है. ताकतवर के सामने झुकना. इसलिए चीन का प्रभाव, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, बर्मा, नेपाल वगैरह पर अधिक है. भारत अंदर से कमजोर है. फूट है. तरह-तरह के अंदरूनी विभाजन हैं. देश के अंदर देशतोड़क शक्तियां प्रभावी हैं. दाऊद इब्राहीम के इशारे पर मुंबई में अमर जवान ज्योति (भारतीय स्मिता का प्रतीक) स्मारक को तोड़ा जाता है. श्री दुबे के अनुसार बांग्लादेश या श्रीलंका के शरणार्थी, देश के लिए बड़ी चुनौती हैं. नेता, वोट बैंक के बंदोबस्त में ऐसे विदेशियों को शरण देते हैं, पर संबंधित राज्यों (और अंतत: देश पर) में इसके सामाजिक -आर्थिक बोझ क्या हैं? असम, बिहार, झारखंड के कुछ जिलों में तो अवैध बांग्लादेशियों ने ‘जनसंख्या का स्वरूप’ (पापुलेशन प्रोफाइल) बदल दिया है.
श्री दुबे मानते हैं कि आतंकवाद बड़ी चुनौती है. चीन से प्रेरित और पाकिस्तान से प्रायोजित. क्या देश की एकता-अखंडता के ये मुद्दे आज किसी दल के एजेंडे में हैं? देश चलानेवालों (सरकार) या सरकार में आनेवालों (विपक्ष) के लिए तो सबसे अहम यही सवाल हैं, जिन पर देश की एकता, भविष्य, ताकत या भावी स्वरूप निर्भर है. भ्रष्टाचार इस देश का जानलेवा कैंसर है, यह सब जानते हैं, पर साठ वर्षों में इसे रोकने के प्रति कोई ईमानदार नहीं रहा.
इसके लिए मूल दोष कांग्रेस का है, क्योंकि वही सबसे अधिक वर्षों तक सत्ता में रही है. पर, अन्य भी पाक साफ या निर्दोष नहीं हैं. अगर राजनीति देशहित में काम करती, तो लोकपाल का कानून बन चुका होता. ह्विसलब्लोअर (भ्रष्टाचार के खुलासे की गोपनीय सूचना देनेवाले) के संरक्षण का प्रबंध हो चुका होता. गवर्नेंस के सुधार में देश के प्रति प्रतिबद्ध सभी सामाजिक दल एकमत-एकसाथ होते. पर देश-हित तो किसी के एजेंडा में है ही नहीं?
इन सब चीजों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर? आर्थिक विकास दर घट गयी. अब सत्ता में बैठे लोगों का कयास है कि यह छह फीसदी वार्षिक के आसपास रहेगी. ‘60, ‘70 और ‘80 के दशकों तक कहा जाता था कि भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास दर तीन फीसदी के पास सिमट गयी है.
इसे ‘हिंदू विकास दर’ के विशेषण से संबोधित किया गया. आशय था कि जिस तरह से हिंदू समाज जड़, स्थिर व आधुनिकता की लहर से असंपृक्त है, अपने में सिमटा, पीछे छूटता और जड़, उसी तरह भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत है. पर ‘70-‘80 के दशकों की विकास दर तीन फीसदी, आज की विकास दर के छह फीसदी के बराबर है. महंगाई के कारण यानी भारतीय अर्थव्यवस्था फिर ‘हिंदू विकास दर’ की स्थिति में पहुंच गयी है. इसका साफ असर रोजगार से लेकर विकास के हर क्षेत्र में दिखाई देता है.
क्या यह देश का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं होना चाहिए? पर, गंठबंधन के नाम पर क्या खेल हो रहा है?
टूटती संस्थाएं
संस्थाओं पर ही देश का भविष्य टिका है. जो सबसे महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं, वे एक-एक कर कमजोर हो रहीं हैं. उनकी साख घट रही है. उनकी उपयोगिता पर सवाल खड़े हो रहे हैं. मसलन संसद, पुलिस, सीबीआइ, सरकार, नौकरशाह, विधान मंडल, हर संस्था पर सवाल खड़े हो रहे हैं.
अधिकतर बगैर प्रमाण. मसलन पिछले दिनों कोयला खदान आबंटन से जुड़े पहलुओं की जांच के संदर्भ में सीबीआइ द्वारा छापे डाले गये, तो एक व्यक्ति ने आरोप लगा दिया कि छापे की सूचनाएं लीक हो चुकी थीं. दो औद्योगिक घरानों को पहले मिल चुकी थीं. यह सही है कि सत्ता में बैठे लोग सीबीआइ का इस्तेमाल करते हैं. हाल में पूर्व कैबिनेट सचिव, सुब्रमण्यम ने भी इसकी पुष्टि की. पहले भी कई जिम्मेदार लोग कह चुके हैं. मायावती और मुलायम से जुड़े मामलों में झलक भी मिलती है.
पर, यही एक मात्र संस्था है, जो देश के यकीन या भरोसे का हिस्सा भी है. बिना विकल्प बनाये, हम ऐसी संस्थाओं को भी नष्ट करने पर तुले हैं. होना यह चाहिए कि पुलिस या सीबीआइ को स्वायत्त बनाने की पुरजोर कोशिश हो. शाह आयोग (इमरजेंसी के बाद गठित) से लेकर अनेक आयोगों ने पुलिस को स्वायत्त बनाने की बात की है. पर क्या कोई भी दल इसके लिये तैयार है? पिछले 60-62 सालों में हर दल सत्ता में रह चुका है, पर पुलिस को स्वायत्त बनाने को कोई तैयार नहीं है. क्योंकि गद्दी पर बैठा आदमी पुलिस को अपने ढंग से चलाना चाहता है, देश के कानून के अनुसार नहीं? क्यों बड़े पदों पर बैठनेवाले, पुलिस अफसरों के चयन की एक पारदर्शी नीति आज तक बन सकी? जो सत्ता में आया, वह अपने मनपसंदों की फौज खड़ा करता है.
क्या ऐसी व्यवस्था में निष्पक्षता संभव है? फिर ‘कानून-व्यवस्था’ कैसे सुधरेगी? उसी तरह सीबीआइ का मामला है. सीबीआइ को स्वायत्त बनायें, तो पुलिस या सीबीआइ दोनों में प्रोफेशनल और कांपिटेंट (सक्षम)अफसर हैं, जो देश की स्थिति बदल सकते हैं. हमें अपनी व्यवस्था में ईमानदार लोगों को खड़ा करना चाहिए. प्रोत्साहित करना चाहिए. इसी तरह नौकरशाही, सार्वजनिक क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रमों का मामला है.
उन्हें स्वायत्त करना और उनकी बागडोर योग्य लोगों के हाथ सौंपने की व्यवस्था करना, आज की सबसे बड़ी जरूरत है. इन प्रयासों से संस्थाएं मजबूत होंगी, तो देश ताकतवर होगा. चीन को महाशक्ति बनाने में वहां के सार्वजनिक क्षेत्रों की बड़ी भूमिका रही है.
संसद, सर्वोच्च संस्था है. पर इस बार भाजपा ने जो रास्ता अख्तियार किया, उससे कई सवाल उठे हैं. यह अलग बात है कि एनडीए के शासनकाल में कांग्रेस भी यह कर चुकी है. जार्ज फर्नाडीस के बहिष्कार के सवाल पर ऐसी परंपरा शुरू हुई. इस बार भी कांग्रेस के एक मंत्री, एक सदन में चेयरमैन से कहते हुए सुने गये कि दिन भर के लिए सदन स्थगित कर दें.
इस प्रसंग में किसी की नीयत साफ और देशहित में नहीं है. कोयला खदानों के आबंटन के सवाल पर देश को जानने की जरूरत है. पूरी बहस होनी चाहिए थी. इस बहस से ही बात स्पष्ट होती कि कहां-कहां, किस-किस तरह के खेल हुए हैं? अब जो तथ्य आ रहे हैं, उनसे पता चलता है कि यूपीए के छह बड़े लोगों ने (केंद्रीय मंत्री या पूर्वमंत्री, राजद के भी एक पूर्व केंद्रीय मंत्री) अपने सगों के नाम खदानों के आबंटन कराये. 18 सांसदों ने अपने मनपसंद लोगों को खदानों के आबंटन के लिए कोयला मंत्रालय या प्रधानमंत्री को पत्र लिखा. केंद्रीय मंत्रियों ने भी पत्र लिखा.
विभिन्न राज्य के 45 महत्वपूर्ण लोगों ने (जिनमें बीजेपी के कई मुख्यमंत्रियों के भी नाम आ रहे हैं) ने मनपसंद लोगों के आबंटन के लिए कोयला मंत्रालय को पत्र लिखा. इन महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों का काम क्या है? किसी के लिए अनुशंसा पत्र लिखना या सही नीति बनाना? क्यों नहीं संसद द्वारा इतनी स्पष्ट और पारदर्शी नीति बनती कि अनुशंसा की जगह ही न बचे. इस नीति-पद्धति या व्यवस्था के गर्भ से सही या ईमानदार लोगों या समूहों का चयन होता. क्या केंद्रीय मंत्री, सांसद या राज्यों के मुख्यमंत्री या महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों की भूमिका यही है कि वे किसी खास या मनपसंद के लिए अनुशंसा करें?
फिर संसद में ही यह सवाल भी उठना चाहिए कि संसद की भूमिका कितनी प्रभावी रह गयी है? इस देश में 2जी होता है, कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार होता है, फिर कोयला आबंटन पर घोटाला होता है. ये घोटाले बार-बार हो क्यों रहे हैं? बहस इस बात पर होनी चाहिए कि क्यों संसद प्रभावी व्यवस्था नहीं कर पा रही है कि ये घोटाले रुकें? क्या संसद अप्रभावी हो गयी है? फिर क्या बचा? आज इस बात पर बहस की जरूरत है.
दिनांक 09.09.2012

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