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चुनाव नतीजों के बाद !

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-हरिवंश- पांच राज्यों से आये चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस और केंद्र सरकार की मुसीबतें बढ़ेंगी. कांग्रेस के सामने कठिन भविष्य है. चुनौतियों से भरा भी. क्योंकि इन चुनावों में राहुल गांधी और उनके परिवार ने पूरी ताकत झोंक दी थी. प्रियंका गांधी भी पूरे सामर्थ्य से मौजूद रहीं. उत्तर प्रदेश में. राबर्ट बढेरा भी […]

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-हरिवंश-
पांच राज्यों से आये चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस और केंद्र सरकार की मुसीबतें बढ़ेंगी. कांग्रेस के सामने कठिन भविष्य है. चुनौतियों से भरा भी. क्योंकि इन चुनावों में राहुल गांधी और उनके परिवार ने पूरी ताकत झोंक दी थी. प्रियंका गांधी भी पूरे सामर्थ्य से मौजूद रहीं.
उत्तर प्रदेश में. राबर्ट बढेरा भी बताने से नहीं चूके कि उनकी भी उपस्थिति है. कांग्रेस के सभी टॉप केंद्रीय नेता पूरी क्षमता, कर्म और निष्ठा के साथ राहुल लहर की प्रतीक्षा में थे. श्रीप्रकाश जायसवाल तो किसी भी क्षण राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना रहे थे. इस तरह कांग्रेस पुर्नोदय की प्रतीक्षा में थी. 1970, 1980 और 1984 जैसा. अगर कांग्रेस के पक्ष में बेहतर परिणाम आये होते, तो राहुल के राज्याभिषेक की तैयारियों के स्वर आज गूंजते.
पर इन पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने कमजोर पड़ते कांग्रेस के खिसकते जनाधार को सार्वजनिक कर दिया है. अब बिखरा, पसरा विपक्ष, 2014 लोकसभा चुनावों को जल्द कराने की राजनीति करेगा. कांग्रेस पर लगातार हमले बढ़ेंगे. विपक्षी, संसद के अंदर और बाहर, केंद्र सरकार को हर कदम पर घेरने की कोशिश करेंगे. इसलिए, आनेवाले दो वर्षों की राजनीति में संघर्ष, एक- दूसरे को नंगा करने और विरोधियों पर हमला करने की राजनीति तेज होगी. कुछ-कुछ 1974 जैसा. क्योंकि यूपीए के शासन का दूसरा दौर (केंद्र सरकार) कई गंभीर मामलों से घिरा है.
हालांकि 1974 जैसी मजबूत स्थिति में कांग्रेस नहीं है. इसलिए, बिखरा विपक्ष भी, एक समूह में होने की जल्दी के बिना भी, कांग्रेस के खिलाफ एक स्वर में बोलेगा. संसद में घेरेगा. आगामी राष्ट्रपति पद के चुनावों को प्रभावित करेगा.
कांग्रेस के लिए चिंता की बात है कि उसकी सरकार के दूसरे दौर में शुरू से घोटालों के लगातार भंडाफोड़ ने उसके शासन की नैतिक आभा छीन ली है. अगर इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम कांग्रेस के पक्ष में होते, तो कांग्रेस का स्वर, काम और राजनीति अलग होता.
अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, सुब्रह्मण्यम स्वामी भी कांग्रेस के खिलाफ सुलगती आग में पड़नेवाले घी का काम करते घूमेंगे. बिना एक मंच पर आये भी. इनका कामन मुद्दा होगा, कांग्रेस विरोध, केंद्र सरकार पर प्रहार. इसलिए, संभव है कि 2014 के चुनाव, समय से पहले हो.
क्यों?
क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता के माहौल में, जरूरी, ठोस और कठोर अर्थनीति पर कोई सरकार नहीं चल सकती. और इस देश की अर्थनीति पर संकट के बादल छाये हैं. कुछ अंतरराष्ट्रीय आर्थिक हालातों के कारण. कुछ घरेलू अपरिपक्व प्रबंधन की वजह से. आनेवाले दिन कठिन आर्थिक दौर के दिन होंगे. इस राजनीतिक हवा-माहौल में, केंद्र सरकार के अनिर्णय से, भारत की आर्थिक चुनौतियां और परेशानियां गहरानेवाली हैं. कुछ-कुछ 1989-91 के दौर जैसा.
आवाज उठने लगी है कि यह सरकार 2जी नहीं संभाल सकी. इसने सेना प्रमुख को भी विवाद का विषय बना दिया. सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक केंद्र इसरो को राजनीति में घसीटा. ताजा प्रकरण ओएनजीसी विनिवेश का है.
इस वित्तीय वर्ष में, कें द्र सरकार वित्तीय घाटे को कम करना चाहती थी. इसलिए सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से 40 हजार करोड़ उगाहने का बजट प्रावधान था. भारत के नौरत्नों में से एक ओएनजीसी का शेयर सरकार ने नीलाम किया. किसी सरकारी ब्लूचिप कंपनी के शेयर की नीलामी का यह पहला मामला था. पर विदेशी बैंकों और घरेलू बैंकों ने इसके प्रति उदासीनता दिखायी. फिर आरोप है कि एलआइसी को बाध्य किया गया कि वह 95 फीसदी इक्वीटी ले. यह एक मार्च को हुआ. एलआइसी ने 40 करोड़ शेयर लिये थे.
ओएनजीसी के. यानी ओएनजीसी के कुल जो शेयर बाजार में उपलब्ध थे, उसका 95 फीसदी. एक दिन के ट्रेडिंग में एलआइसी को इस सौदेबाजी में 900 करोड़ का नुकसान हुआ है. यह आरोप लग रहा है कि अकुशल प्रबंधन या खराब अर्थनीति के कारण, अब कोई हमारी सर्वश्रेष्ठ सरकारी कंपनियों में भी निवेश नहीं करना चाहता. आरोप है कि इस निवेश से भविष्य में एलआइसी को भी परेशानी होगी.
जैसा 91-96 के दौर में हुआ था. तब यूटीआइ को सरकारी कंपनियों के शेयर खरीदने के लिए बाध्य किया गया था. वित्तीय घाटा पाटने के लिए. इसके साथ ही यूटीआइ की समस्या शुरू हो गयी. यूटीआइ को छह से सात हजार करोड़ का नुकसान हुआ. तब यह मामला बड़ा उछला था. भारत का वित्तीय घाटा अनियंत्रित हो रहा है. सब्सिडी अलग चुनौती बन रही है. केरोसिन और पेट्रोल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय कारणों से अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर रही हैं. पेट्रोलियम कंपनियां दो लाख करोड़ के घाटे पर चल रही हैं.
दूसरी तरफ भ्रष्टाचार बेलगाम है. मनरेगा से लेकर हर चीज में. ऐसी स्थिति में साझा सरकारें जब मामूली रेल किराया बढ़ाने की अनुमति नहीं देतीं, तो आवश्यक बड़े कठोर फैसले करने के लिए इस केंद्र सरकार के पास अवसर कहां है? कठोर कदम नहीं उठे, तो बिगड़ते आर्थिक हालात प्रतीक्षा नहीं करेंगे. क्योंकि नदी और लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं.
अक्सर सवाल उठता है कि राष्ट्रीय पार्टियों का क्षय क्यों हो रहा है? अतीत से लेकर अब तक, इसके लिए जिम्मेदार कथित राष्ट्रीय पार्टियां ही हैं. हालांकि एक बात साफ-साफ दर्ज करना जरूरी है कि राष्ट्रीय पार्टियों का कमजोर होना, भारत देश के लिए बड़ी मुसीबत पैदा करनेवाली परिघटना है. हालांकि इस पर अलग से चर्चा.
बुजुर्ग कह गये हैं कि हर संकट में एक अवसर होता है. जब बड़ी पार्टियां सिमट रही हैं और क्षेत्रीय पार्टियां उफान पर हैं, तो यही दौर है, जब राष्ट्रीय पार्टियां अपने अंदर झांक सकती हैं. तटस्थ मूल्यांकन कर. जरूरी रणनीति बना कर. बड़े सपने न हों, तो पार्टियां बड़ी कैसे होंगी? आज इस देश की राजनीति के सामने कोई बड़ा सपना नहीं है. कांग्रेस ने बड़ा सपना देखा था, इस मुल्क को आजाद कराने का, तब वह बड़ी पार्टी बनी.
फिर इंदिराजी ने गरीबी हटाओ का सपना दिखाया, तो पूरी ताकत से कांग्रेस में रक्त संचार हुआ. 1980 में उन्होंने नारा दिया कि विपक्ष के लोग देश नहीं संभाल सकते, तो देश ने उन्हें फिर माथे पर बैठाया. बीजेपी ने भय, भूख और भ्रष्टाचार के साथ वैकल्पिक राजनीति की बात की, नैतिक राजनीति का सपना दिखाया, तो लोगों ने इसे भी समर्थन दिया. आज किस दल के पास देश के लिए बड़ा सपना है? कोई दल तय कर ले कि अपने बड़े सपनों के साथ राजनीति करेगा.
सिद्धांत के तहत चलेगा. सत्ता से बाहर रहेगा. फिर देखिए क्या फर्क पड़ेगा? नीतीश कुमार ने बिहार में बड़ा सपना देखा. भ्रष्टाचार और अपराधियों के भय से मुक्त समाज की बात की, लोग पीछे खड़े हो गये. जात-जमात से निकल कर. तब के माहौल में यह असंभव लगता था. आज उम्मीदों की लहरें हैं. उत्तर प्रदेश चुनावों में अखिलेश, नीतीश मॉडल की बात करते घूम रहे थे. कोई पूछे बिहार में बुरी पराजय से कांग्रेस ने क्या सीखा? तब कांग्रेसियों ने कहा था, भ्रष्टाचार रोकने के कानून बनायेंगे, बिहार की तरह.
समयबद्ध भ्रष्टाचार के मामलों के निपटारे के लिए कोर्ट बनेंगे. अपराधियों से मुक्ति के लिए स्पीडी ट्रायल कोर्ट बनेंगे. क्या कांग्रेस ने एक नया कदम भी उठाया! उलटे बाबा रामदेव की पिटाई हुई और अन्ना आंदोलन के बिखरने की प्रतीक्षा. जो दल अपनी हार से सीख लेकर बड़ा सपना नहीं देख सकता, वह कैसे राष्ट्रीय बन सकता है.
प्रजातंत्र में दलों का काम ही है, लोगों में उम्मीदें जगाना और बेहतर भविष्य की कामना पैदा करना. पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से कांग्रेस हतप्रभ है. पर कांग्रेस से कोई पूछे कि आपके नेतृत्व की सरकार के कार्यकाल में महज एक सप्ताह के अंदर चीन ने क्या काम किया है, जिसकी चिंता और सरोकार भारत को है. पर सरकार को नहीं. कोई ठोस जवाब नहीं मिलेगा.
आस्ट्रेलिया से अत्यंत संवेदनशील भारतीय मित्र रवि वाजपेयी ने एक पत्र भेजा है. उसकी कुछेक लाइनें हर भारतीय को पढ़नी चाहिए.
‘चीन के नये नेतृत्व के आने से पहले इस साल का चीनी रक्षा बजट आया है. भारत में आम बजट में पहले से ही संसाधनों की कमी पर बहस चल रही है. भारत में सेना और उसके खर्चों पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं. कभी वर्तमान सेनाध्यक्ष के जन्मदिन पर संशय, तो कभी भावी सेना अध्यक्ष की पुत्रवधू के जन्म स्थान पर सवाल उठ रहे हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विज्ञान और टेक्नोलाजी में चीन के आगे हार मान चुके हैं. रक्षा मंत्री चीन के आक्रामक तेवरों के सामने असहाय हैं. उप रक्षा मंत्री पोल्लम राजू चीन के सुरक्षा बजट का आकार देखते ही, भारत की लघुता स्वीकार कर लेते हैं.
‘आज से अगले कई दिनों तक (यानी चुनाव परिणामों के बाद) तो भारत की सारी बौद्धिक, वैचारिक शक्ति, केवल उत्तर प्रदेश और उसके क्षुद्रतम नेताओं के तमाशे के लिए रिजर्व (आरक्षित) रहेगा. भारत केवल बाहर से हथियार खरीद कर अपनी सुरक्षा नहीं कर पायेगा. फिर इस हथियार व्यवसाय में तो सबके हाथ-मुंह काले ही हुए हैं.
बोफोर्स एक बहुत छोटा उदाहरण है. भारत आमलोगों के बजट से कटौती करेगा. इन लोगों के पास मरने या हिंसा करने के अलावा क्या बचा रहेगा? फिर भारत का आंतरिक सुरक्षा बजट बढ़ जायेगा. दुष्चक्र ज्यादा बड़ा और गंभीर हो जायेगा. चीन बिना युद्ध किये ही भारत से जीता हुआ है.
भारत इस लाचार विदेशी और घरेलू मोरचे पर संकटों से घिरा है. आतंकवाद अलग चुनौती है. पर ऐसे सवालों पर आपने शासक दल कांग्रेस का सपना सुना? चिंता सुनी?
यही नहीं, सत्ता में रहते हुए भी कांग्रेस के नेता, अपनी मर्यादा नहीं समझ रहे हैं. कांग्रेसी क्षेत्रीय दलों के नासमझ और गैरजिम्मेदार नेताओं से भी अधिक इररिस्पांसिबिल बनते जा रहे हैं.
चुनाव आयोग की पवित्रता पर उत्तर प्रदेश चुनावों में सबसे अधिक हमले कांग्रेस के लोगों ने किया. वह भी वैसे लोग, जो केंद्र में वरिष्ठ मंत्री पदों पर बैठे हैं. कानून मंत्री सलमान खुर्शीद चुनाव आयोग की धज्जियां उड़ाते घूम रहे थे. केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और श्रीप्रकाश जायसवाल जैसे लोग ही चुनाव आयोग को अप्रासंगिक बनाने के माहौल में लगे थे. राष्ट्रीय संस्थाओं को कमजोर और खत्म करने का प्रयास करके कांग्रेस, क्या आदर्श प्रस्तुत कर रही थी? क्या इस रास्ते कोई पार्टी राष्ट्रीय बनेगी?
कांग्रेस में बड़े नेता दिग्विजय सिंह के बयान समझ से परे थे. उनके नेतृत्व में कांग्रेस का एक बड़ा खेमा, बटाला हाउस, दिल्ली में मारे गये आतंकवादियों को निर्दोष कहता घूम रहा था. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सबूतों के आधार पर उन्हें आतंकवादी बता रहे थे. क्या ऐसे कोई पार्टी या सरकार चलती है? इन चुनाव परिणामों से कांग्रेस पार्टी का मनोबल पस्त होगा. राहुल गांधी के आसपास जो ग्लैमर बन रहा था, वह घटेगा. क्योंकि जनतंत्र में प्रजा की इच्छा का सम्मान नहीं हुआ, तो उसके परिणाम गंभीर होते हैं.
तीसरे मोरचे की राजनीति अब तेज होगी. नवीन पटनायक इस मोरचे की कमान संभालने के लिए सक्रिय हो गये हैं. मुलायम सिंह 2014 के बड़े खिलाड़ियों में से होंगे. जयललिता का रुख और तेवर देखने लायक होगा. ममता बनर्जी अपने अलोकप्रिय कामों से खुद अपनी लोकप्रियता को दावं पर लगा रही हैं. बंगाल में माकपा का उदय, नयी स्थिति को जन्म देगा. पर इन सबके बीच चुपचाप अपने काम में लगे नीतीश कुमार की छवि का अलग असर होगा, 2014 की राजनीति में.
इन चुनावों के पहले बीजेपी के आधार खिसकने के अनुमान थे. पर इन चुनाव परिणामों के बाद बीजेपी नये ढंग से सक्रिय होगी. 2014 के लिए. उत्तर प्रदेश ने उसे निराश किया है. पर अन्य जगहों पर उसकी स्थिति अच्छी ही रही है. उत्तराखंड में लोग उसे 15-20 से अधिक सीटें नहीं दे रहे थे. पंजाब में भी अकाली दल के साथ वह सत्तारूढ़ हो गयी है. हालांकि भाजपा के अंदर नरेंद्र मोदी खुद एक चुनौती रहे हैं. फिर भी भाजपा और आक्रामक होगी, कांग्रेस के खिलाफ.
2014 के देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के चयन की राजनीति और भीतरनीति भी, इन्हीं चुनाव परिणामों के गर्भ से निकलती दिख रही है. केंद्र में मिलीजुली सरकारों का दौर रहेगा. भारत की अर्थनीति पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. क्योंकि कमजोर सरकारें, साहसिक फैसला नहीं लेतीं. अर्थनीति की चुनौतियां बढ़ेंगी, तो राजनीति अस्थिर होगी. इसलिए आनेवाले वर्षों में राजनीतिक अस्थिरता का दौर और चुनौतीपूर्ण होगा.
कांग्रेस देश के दो मुख्य राज्यों से लगभग बाहर है. बिहार और उत्तर प्रदेश से. राजस्थान, मध्यप्रदेश इसके लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं. गुजरात या छत्तीसगढ़ पर वह बहुत निर्भर नहीं कर सकती. आंध्र में हवा उसके खिलाफ है. महाराष्ट्र में भी बहुत आश्वस्तकारी स्थिति नहीं है. इन राज्यों में बीजेपी की भी लहर नहीं है. इसलिए फिर मिलीजुली सरकारों का दौर होगा.
इन चुनाव परिणामों के कुछ-कुछ निष्कर्ष हैं. सशक्त धारा के रूप में नहीं. संकेतों के रूप में. देश की राजनीति मुद्दों-सपनों की तलाश में है. उसे भरनेवाला चाहिए. साफ-सुथरी राजनीति (क्लीन पालिटिक्स) की आहट है. ‘डेलीवरी की राजनीति’ (वादों को धरातल पर उतारनेवाले) चाहिए.
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के अंदर शायद इसी छवि को देख कर लोगों ने जबरदस्त समर्थन दिया है. आइआइएम के अभिषेक मिश्रा को समाजवादी पार्टी ने टिकट देकर जिताया है. यह पार्टी में बदलाव के संकेत हैं. रायबरेली, सुल्तानपुर और अमेठी में गांधी परिवार को यह शिकस्त, शायद किसी को उम्मीद नहीं थी. उत्तराखंड में खंडूरी ने पस्त भाजपा को इस स्थिति में ला खड़ा किया, हालांकि वह खुद चुनाव हार गये.
पार्टी की अंदरूनी स्थिति से. इसी तरह गोवा में भाजपा जीती. जीत का श्रेय है, मनोहर पर्रिकर को. यानी राजनीति में अच्छे और सही लोगों के दिन लौटते लग रहे हैं. पंजाब में 46 वर्षों बाद, सत्तारूढ़ दल को दोबारा समर्थन मिला है.
यूपी : सिमटतीं कांग्रेस-भाजपा
वर्ष भाजपा कांग्रेस सपा* बसपा
1989 57 94 208 13
1991 221 46 34 12
1993 177 28 109 67
1996 174 33 110 67
2002 88 25 143 98
2007 51 22 97 206
2012 47 28 224 80
*1989 में सपा नहीं थी, बल्कि सभी समाजवादी गुटों ने जनता दल के रूप में चुनाव लड़ा था. 1991 में जनता दल दो हिस्सों में बंट गया. एक हिस्सा समाजवादी जनता पार्टी के नाम से बना, जो बाद में सपा में तब्दील हो गया.
दिनांक : 07.03.2012

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