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क्या अपनी उपयोगिता खोते जा रहे हैं राज्यपाल!

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-मुकुंद हरि- देश की राजनीति में फिलहाल मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल की बर्खास्तगी पर बवाल मचा हुआ है. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते वक्त बेनीवाल वहां की राज्यपाल थीं और उस दरमियान दोनों के संबंध मधुर नहीं थे. इस मामले को लेकर एक तरफ जहां कांग्रेस समेत पूरा […]

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-मुकुंद हरि-

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देश की राजनीति में फिलहाल मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल की बर्खास्तगी पर बवाल मचा हुआ है. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते वक्त बेनीवाल वहां की राज्यपाल थीं और उस दरमियान दोनों के संबंध मधुर नहीं थे.

इस मामले को लेकर एक तरफ जहां कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष इसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन और राजनीतिक बदले की भावना से की गयी कार्रवाई करार दे रहा है वहीं दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार ने बेनीवाल को हटाने के पीछे बेनीवाल की विदाई के पीछे राजस्थान के जमीन घोटाले और सरकारी हवाई जहाज के निजी इस्तेमाल जैसे भ्रष्टाचार और सरकारी सुविधाओं के दुरुपयोग के आरोपों को वजह बताया है.मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल के रिटायरमेंट में महज दो महीने बचे थे. लेकिन सरकार ने उसके पहले ही उन्हें राजभवन से चलता कर दिया है.

राज्यपाल को लेकर इस देश में विवाद होना कोई नयी बात नहीं है. साल 1967 के बात राज्यपाल के पद और उसके उपयोगों और दुरुपयोगों को लेकर विवाद होते ही रहे हैं. ऐसे में ये सवाल अहम हो जाता है कि अंग्रेजों के द्वारा बनाये गए पद की आज के दौर में क्या अहमियत बची है और जब इस पद की गरिमा ही नहीं बच पा रही है तो इसे समाप्त क्यों न कर दिया जाये !

भारत में राज्यपाल के पद के सृजन का इतिहास

भारत में राज्यपाल के पद की अवधारणा ब्रिटिश राज के समय अस्तित्व में आयी थी. उन्नीसवीं सदी के अंत तक ब्रिटिश -भारत में देश आठ प्रांतों में बंटा हुआ था, जिसका प्रशासन राज्यपाल या उप-राज्यपाल करते थे. उसके बाद सन 1905-1911 में बंगाल विभाजन के दौरान असम और पूर्वी बंगाल जैसे दो और राज्यों का जन्म हुआ, जो उप-राज्यपाल द्वारा शासित किये जाते थे.

1947 में देश की आजादी के बाद भी हमारे नीति-निर्माताओं के द्वारा इस पद को बनाये रखा गया. 1950 से 1967 तक देश के राज्यों में कांग्रेसी सरकारें ही सत्ता में थी. नतीजतन राज्यपाल की नियुक्ति से पहले संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से विचार-विमर्श किये जाने की औपचारिक प्रथा का निर्वाह किया जाता था लेकिन सन 1967 के चुनावों में जब कुछ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ, तब इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया और मुख्यमंत्री से विचार विमर्श किए बिना राज्यपाल की नियुक्ति की जाने लगी. बस, इसी समय से राज्यपाल के गरिमामय पद की महत्ता अपना अर्थ खोने लगी.

राज्यपाल का पद और उससे जुड़े कुछ प्रमुख विवाद

राज्यपालों को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है. 1967 के बाद से लगभग हर दौर में ऐसे विवाद कायम रहे हैं और सत्ता में बैठी सरकारें और विपक्ष एक-दूसरे पर इस पद के दुरुपयोग को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे हैं. देश की कई प्रमुख सरकारों और उनके द्वारा बनाये गए राज्यपालों के दौर में हुए विवाद और उन राज्यपालों के ऊपर लगे आरोपों के अलावा केंद्र में बैठी तात्कालिक सरकारों के द्वारा इस पद के दुरुपयोग को आरोपित करते कई प्रमुख तथ्य इस बात को दिखाते हैं कि किस तरह से बीते कुछ दशकों में इस पद उपयोग अपने-अपने लाभ के लिए सरकारें और उस पद पर आसीन रहे लोग करते रहे हैं.

विशेषरूप से आपातकाल की समाप्ति और जनता पार्टी की सरकार के बाद दुबारा सत्ता में आईं इंदिरा गांधी के दौर में जब राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो उन्होंने ऐसे राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा शुरू की जो कि सक्रिय पार्टी कार्यकर्ता की तरह से काम करने वाले हों. यानि वो राज्यपाल के निष्पक्ष और संवैधानिक पद पर रहते हुए भी सत्ताधारी सरकार के विश्वासपात्र बने रहें. बाद में कांग्रेस द्वारा शुरू किये गए इसी तर्ज पर दूसरे दल भी चलने लगे.ऐसे ही कुछ विवादों पर एक नज़र डालते हैं ताकि ये निर्णय किया जा सके कि इस देश में राज्यपाल का पद अब कितना उपयोगी रह गया है –

हरियाणा :

राज्यपालों के पक्षपातपूर्ण रवैये को दर्शाती घटनाओं में से एक घटना हरियाणा की है. ये उस दौर की शुरुआत थी जिसमें केंद्र की सरकार राज्यपालों को अपने फायदे और विरोधियों के नुकसान के लिए इस्तेमाल करने लगी थी. इसी कड़ी में, हरियाणा में देवीलाल के साथ भी राज्यपाल ने सत्ता के आदेश पर अन्याय किया. उस समय हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल गणपतराव देवजी तपासे ने देवीलाल के पास ज्यादा विधायक होने के बावजूद उन्हें सरकार बनाने का मौका नहीं दिया और एक तरफा निर्णय लेते हुए राज्य में देवीलाल की जगह भजनलाल की सरकार बनवा दी थी. इस पक्षपातपूर्ण घटना पर उस वक्त देवीलाल राज्यपाल गणपतराव से इतने नाराज हो गए थे कि उन्होंने गुस्से में आकर तपासे की गर्दन ही पकड़ ली थी. ताऊ का ये गुस्सा सिर्फ मानवीय संवेदना की उपज नहीं था बल्कि लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन के विरोध का भी द्योतक था.

आंध्र-प्रदेश :

उसी दौर में इन नामों में आंध्र-प्रदेश के राज्यपाल रामलाल भी बहुत चर्चित रहे थे. दरअसल, आंध्र-प्रदेश से इंदिरा गांधी का विशेष लगाव था क्योंकि जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद वे आंध्र में ही मेडक से लोकसभा का चुनाव जीती थीं. उस वक्त राज्य में कांग्रेस का सफाया हो चुका था और एनटी रामाराव सत्ता में आ चुके थे.

इंदिरा गांधी के लिए एनटीआर का आंध्र की सत्ता में आना एक खतरनाक संकेत था क्योंकि उस ज़माने में रामाराव की लोकप्रियता और महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ चुकी थी कि वो खुद के प्रधानमंत्री बनने के सपने तक देखने लगे थे. एनटी रामाराव के इस डर से निपटने के लिए इंदिरा गांधी ने हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रामलाल को 1984 में आंध्र-प्रदेश का राज्यपाल बना कर भेजा. नतीजतन आंध्र-प्रदेश में कांग्रेस ने राजनीतिक तोड़-फोड़ शुरु कर दी. जरूरी बहुमत होने के बावजूद रामाराव की सरकार बर्खास्त कर दी गई और आंध्र-प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.

कर्नाटक :

ऐसा ही कुछ काम कर्नाटक में राज्यपाल बने पी. वैंकटसुबैय्या ने भी किया. उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई को विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका ही नहीं दिया. विरोधस्वरूप उनके इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. उच्चतम न्यायालय ने वैंकटसुबैय्या इस कदम को गलत ठहराते हुए न सिर्फ उसकी निंदा की थी बल्कि ये भी कहा कि बहुमत परीक्षण सदन में ही किया जाना चाहिए. कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक था और इस नजीर का आज तक पालन किया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट का यह महत्वपूर्ण फैसला आने के बाद राज्यपाल पी. वैंकट सुबैय्या को शर्मिंदगी की वजह से अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

धुर कांग्रेसी नेता और कर्नाटक के राज्यपाल रहे हंसराज भारद्वाज भी लगातर विवादों में घिरे रहे हैं. जनता पार्टी के शासन के दौरान यही हंसराज भारद्वाज इंदिरा गांधी व संजय गांधी के वकील हुआ करते थे. तत्कालीन शाह आयोग के सामने इन्होंने ही दोनों की पैरवी की थी. केंद्र में कानून-मंत्री रहते हुए उनके ही कार्यकाल में कोर्ट द्वारा बोफोर्स कांड के मुख्य आरोपी क्वात्रोची के सील किए गए बैंक खातों को मुक्त किया गया था जिसकी वजह से क्वात्रोची अपने उन खातों से पैसा निकाल पाया था. भारद्वाज ने राज्यपाल के रूप में विवादास्पद रूप से कर्नाटक की विधानसभा भंग करके केंद्र सरकार को वहां राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की सिफारिश करते अपनी रिपोर्ट भेजी थी मगर विपक्ष के दबाव और विरोध के कारण ऐसा हो नहीं.

उत्तर-प्रदेश :

वफादारी निभाने की कड़ी में ही इंटेलीजेंस ब्यूरो यानी आईबी के पूर्व निदेशक रहे टीवी राजेश्वर को भी सत्तारुढ़ दल कांग्रेस के साथ निष्ठा अदा करने का लाभ मिला. उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था. उस ज़माने में ये खबर आम थी कि जब इंदिरा गांधी के फार्म हाउस पर सी.बी.आई. का छापा पड़ा था तो उन्हें राजेश्वर की ही बदौलत उसकी पूर्व सूचना मिली थी. संकट के उस वक्त पर की गई उनकी इस सेवा को इंदिरा के परिवार ने कभी नहीं भुलाया. फलस्वरूप न सिर्फ उन्हें आईबी का प्रमुख बनाया बल्कि बाद में उत्तर प्रदेश का राज्यपाल भी बनाकर उनकी सेवा का पुरस्कार दिया गया था.

रोमेश भंडारी ने भी उत्तर-प्रदेश का राज्यपाल रहते हुए अपने कार्यकाल में विवादों को जन्म दिया. उन्होंने कल्याण सिंह को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने का मौका न देकर उनकी जगह जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया. उस समय लोकतांत्रिक कांग्रेस के नेता के तौर पर जगदम्बिका पाल का नाम महज 24 घंटे के मुख्यमंत्री के तौर पर दर्ज हो गया क्योंकि राज्यपाल भंडारी के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी गई चुनौती पर कोर्ट ने कर्नाटक मामले की तर्ज पर कहा था कि राजभवन जैसी जगह राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाई जानी चाहिए और सरकार बनने के बाद उसके बहुमत की परीक्षा सदन में ही की जानी चाहिए.

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