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#Section377 : सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सहमति से बने समलैंगिक संबंध अपराध नहीं

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नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने गुरूवार को एकमत से 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अपराध था. न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार का […]

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नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने गुरूवार को एकमत से 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अपराध था. न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन करता है. प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने परस्पर सहमति से स्थापित अप्राकृतिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने वाले, धारा 377 के हिस्से को तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव नहीं करने योग्य करार दिया.

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संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल हैं. संविधान पीठ ने धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त करते हुये कहा कि इससे संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार और गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन होता है. न्यायालय ने कहा कि जहां तक एकांत में परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन कृत्य का संबंध है तो यह न तो नुकसानदेह है और न ही समाज के लिए संक्रामक है. पीठ ने चार अलग -अलग परंतु परस्पर सहमति के फैसले सुनाये. इस व्यवस्था में शीर्ष अदालत ने 2013 में सुरेश कौशल प्रकरण में दी गयी अपनी ही व्यवस्था निरस्त कर दी. सुरेश कौशल के मामले में शीर्ष अदालत ने समलैंगिक यौन संबंधों को पुन: अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया था.

शीर्ष अदालत ने हालांकि अपनी व्यवस्था में कहा कि धारा 377 में प्रदत्त, पशुओं और बच्चों से संबंधित अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध की श्रेणी में रखने वाले प्रावधान यथावत रहेंगे. न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था, जिसके कारण इससे भेदभाव होता है. धारा 377 ‘अप्राकृतिक अपराधों’ से संबंधित है और इसमें कहा गया है कि जो कोई भी स्वेच्छा से प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत किसी पुरूष, महिला या पशु के साथ गुदा मैथुन करता है तो उसे उम्र कैद या फिर एक निश्चित अवधि के लिये कैद जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है, की सजा होगी और उसे जुर्माना भी देना होगा.

न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अभी तक एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल की जाती रही है जिससे भेदभाव होता था. न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ने अपने अलग फैसले में कहा कि इस समुदाय के सदस्यों को उनके अधिकारों से वंचित करने और उन्हें भय के साथ जीवन गुजारने पर मजबूर करने के लिए इतिहास को उनसे क्षमा मांगनी चाहिए. शीर्ष अदालत ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय के लिए अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार हैं। अदालतों को व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि गरिमा के साथ जीने के अधिकार को मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता दी गई है. यौन रुझान को जैविक स्थिति बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. प्रधान न्यायाधीश ने अपनी और न्यायमूर्ति खानविलकर की ओर से लिखे फैसले में कहा कि अपनी अभिव्यक्ति से वंचित करना मौत को आमंत्रण देने जैसा है. न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि सरकार तथा मीडिया को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का व्यापक प्रचार करना चाहिए ताकि एलजीबीटीक्यू समुदाय को भेदभाव का सामना नहीं करना पड़े.

न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने अपने अलग फैसले के मुख्य अंश पढ़ते हुये कहा कि धारा 377 की वजह से इस समुदाय के सदस्यों को निशाना बनाया जाता रहा है और उनका शोषण किया गया है. उन्होंने कहा कि इस समुदाय के सदस्यों को भी दूसरे नागरिकों के समान ही सांविधानिक अधिकार प्राप्त हैं। न्यायालय ने कहा कि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है और यह पूरी तरह से एक स्वाभाविक स्थिति है. संविधान पीठ ने नृत्यांगना नवतेज जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ ऋतु डालमिया, होटल कारोबारी अमन नाथ और केशव सूरी, व्यावसायी आयशा कपूर और आईआईटी के 20 पूर्व तथा मौजूदा छात्रों की याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया.

इन सभी ने दो वयस्कों द्वारा परस्पर सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध करते हुये धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। समलैंगिक यौन संबंधों का मुद्दा पहली बार गैर सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया था. हाईकोर्ट ने 2009 में अपने फैसले में धारा 377 के प्रावधान को गैरकानूनी करार देते हुये ऐसे रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था.

हाईकोर्ट के इस फैसले को 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था. इसके बाद शीर्ष अदालत ने अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए दायर याचिका भी खारिज कर दी थी. हालांकि, शीर्ष अदालत में इस फैसले को लेकर दायर सुधारात्मक याचिकाएं अभी भी लंबित हैं. न्यायालय में नये सिरे दायर याचिकाओं का अपोस्टोलिक एलायंस आफ चर्चेज और उत्कल क्रिश्चियन एसोसिएशन तथा कुछ गैर सरकारी संगठनों और सुरेश कौशल सहित अन्य व्यक्तियों ने विरोध किया था.

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