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अंधेरे में भटक रही है युवा राजनीति

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-हरिवंश- स्वतंत्रता की लड़ाई में थके और संघर्ष से अघाये नेता जब आजाद भारत में कुरसी के लिए सब कुछ तजने को तैयार थे, तो भला किसके पास वक्त था?आवश्यक मार्गदर्शन के अभाव में पचास के दशक से ही इस देश का युवा-छात्र आंदोलन भटक गया. महाराष्ट्र के राष्ट्र सेवादल जैसे कुछ अपवाद संगठनों को […]

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-हरिवंश-

स्वतंत्रता की लड़ाई में थके और संघर्ष से अघाये नेता जब आजाद भारत में कुरसी के लिए सब कुछ तजने को तैयार थे, तो भला किसके पास वक्त था?आवश्यक मार्गदर्शन के अभाव में पचास के दशक से ही इस देश का युवा-छात्र आंदोलन भटक गया. महाराष्ट्र के राष्ट्र सेवादल जैसे कुछ अपवाद संगठनों को छोड़ दे, तो अधिकांश युवा संगठनों से आज आभिजात्य और सामंती सोचवाले युवा नेता ही शिखर पर है. फलस्वरूप युवा आंदोलन का चरित्र प्रतिक्रियावादी हो गया है.

देश के बड़े नेताओं के लघु संस्करण इन युवा नेताओं की कार्यशैली भी अपने आका नेताओं की तरह ही है. रातोंरात सत्ता में पहुंचाने की ललक, विदेश घूमने की तड़प कार्यकर्ताओं को गुलाम समझने और तिकड़म करने में माहिर इन युवा नेताओं की जड़े युवकों के बीच हैं ही नहीं. इस कारण इस देश में हुए युवा-छात्र आंदोलन कभी अपनी मिट्टी और बुनियादी सवालों से जुड़ ही नहीं सके.

1965-66 में भाषा के सवाल पर देशव्यापी उग्र युवा आंदोलन हुए, तब तक युवा-छात्र संगठनों पर अपराधी युवा नेताओं का आधिपत्य नहीं था. भाषा के सवाल पर हुए इस आंदोलन में कुछ सही सोच के दृष्टि संपन्न युवा नेता भी थे. फिर भी वह आंदोलन व्यापक नहीं हो सका. अवाम से नहीं जुड़ा. विषमता, भ्रष्टाचार, शासकों की मनमानी, शिक्षा पद्धति की निरर्थकता जैसे ज्वलंत मुद्दों पर लोकजागरण के अभाव में यह आंदोलन बिखर गया. लेकिन समाजवादी युवजन सभा के तेजतर्रार युवा नेताओं और युवा शक्ति के महत्व को पहचान कर तत्कालीन कांग्रेसी मठाधीशों के कान खड़े हो गये.

कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता युवकों-छात्रों के बीच अपने-अपने गुट बनाने लगे. कांग्रेस नेताओं को चाहिए थी. हुड़दंग मचानेवालों की एक प्रतिबद्ध भीड़. कांग्रेसी हुक्मरानों की शह पर अपराधी छात्र-युवक एकजुट होने लगे. पुलिस और प्रशासन भी ऐसे तत्वों की तीमारदारी में लग गये. बदले में ये अपराधी युवा नेता कांग्रेसी नेताओं की हर संभव मदद करने लगे. विरोधी पक्ष के उभरते युवा नेताओं की हत्या और आतंक के बल युवजन सभा, विद्यार्थी परिषद, माकपा और भाकपा के युवा संगठनों की सभाओं को भंग करना इन कथित युवा नेताओं का दैनिक शगल हो गया.

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प्रतिक्रियास्वरूप बाकी युवा संगठनों में भी अराजक तत्व पैदा हुए. उत्तरप्रदेश में इस पथभ्रष्ट और प्रतिक्रियावादी युवा-छात्र आंदोलन पर चौधरी चरण सिंह ने ईमानदारी से लगाम लगाने की कोशिश की थी. लेकिन इस बीमारी की जड़ें तो दिल्ली में थी. युवा आंदोलन जाति, धर्म और सांप्रदायिक राजनीति के अखाड़े बन गये. हिंसा और जोर जबरदस्ती के कारण ईमानदार युवक राजनीति से ही दूर होते गये. बाद में मुखर और तेजस्वी युवक नक्सल संगठनों से जुड़े. इस देश की एक पूरी तेजस्वी युवा पीढ़ी और उसके यथार्थ आक्रोश को हमने आतंक और गोलियों के बल कुचल दिया.

उसके बाद से आज तक युवा राजनीति के बारे में शिद्दत से महसूस करनेवाले युवा-छात्र भटक रहे हैं. 1987 में इन्हें कोई सही दिशा दे पायेगा. इसकी आशंका है.1972 में हुए नवनिर्माण आंदोलन में मुद्दे तो सही उठे, लेकिन आंदोलन के अगुआ उच्च मध्यवर्ग के दृष्टिहीन, फैशनपरस्त युवक थे. वस्तुत: यह महंगाई के खिलाफ उपजे आक्रोश का क्षणिक उबाल था, बुनियादी समस्याओं से जुड़ा विस्फोट नहीं. इस कारण युवा नेताओं के कंधों पर सवार राजनेता सत्ता में आ गये, लेकिन महंगाई, भ्रष्टाचार, की वृद्धि पर अंकुश का सवाल पिछड़ गया. हां ! कुछ युवा आंदोलनकारी अवश्य विधानसभा मे पहुंच गये.


1974 तक युवा राजनीति में दृष्टिहीन, उद्दंड और अपराधी प्रवृत्ति के युवकों की ही संख्या अधिक हो गयी. रामबदाहुर राय जैसे लोग अवश्य ही अपवाद थे. बिहार आंदोलन के दौरान कुछ समर्पित-समझदार युवक आंदोलन की धारा से जुड़े, लेकिन संकुचित मनोवृत्तिवाले युवा नेताओं द्वारा वे धकिया दिये गये. बिहार आंदोलन के दौरान ही संघर्ष कोष के प्रभारी श्री चंदावार ने जे.पी. से शिकायत की कि आंदोलनकारी छात्र और नौजवान उन्हें छुरा दिखा कर खर्च के लिए पैसे की मांग करते हैं. 1977 के चुनाव में ऐसे युवा नेताओं की बन आयी, जिन्हें ‘विधायक’ शब्द लिखना नहीं आता था, वे भी मंत्री बने. रही सही कसर 1980 में संजय गांधी ने पूरी कर दी. युवा राजनीति पर संजय बिग्रेड का कब्जा हो गया.

युवा (संजय) कांग्रेस सम्मेलनों के दौरान स्टेशनों पर लूटमार की अनेक घटनाएं हुई. रूस में हुए अंतरराष्ट्रीय युवा मेले में भारतीय प्रतिनिधिमंडल की शर्मनाक करतूतें बेमिसाल थीं. लेकिन इस प्रवृत्ति को रोकने की आवाज किसी कोने से नहीं उठी. फिलहाल मदिरापान, वेश्यागमन और बलात्कार युवा राजनीति की आधुनिक ‘सांस्कृतिक पहचान’ हैं. दिशाहीन युवा राजनीति को पटरी पर लाने के लिए राजनीति से उदासीन युवकों को एकजुट होना पड़ेगा. यह एकता मौजूदा तत्वहीन शिक्षानीति बेरोजगारी जैसे अहम मुद्दों के आधार पर हो सकती है. लेकिन ऐसे संघर्ष के लिए अभी पृष्ठभूमि नहीं बनी है.

1987 में ऐसे संघर्ष की तीव्र आवश्यकता महसूस होगी. आज के युवा नेता देश के बड़े नेताओं के पुछल्ले हैं. इनकी नकेल किसी और के पास है. बूढ़े हो कर भी विश्वविद्यालय-कॉलेजों में सांसद-विधायक बनने तक टिके रहनेवाले, युवा नेताओं के लिए विश्वविद्यालय की राजनीति एक फायदेमंद पेशा है. पढ़ाई से ऐसे नेताओं का रिश्ता दशकों पहले टूट चुका है. बलात छात्रावासों में रहने, छात्रसंघ की सुविधाओं का उपभोग करने और नये छात्रों को डरा-धमका और बरगला कर वसूली करने में पारंगत युवा नेता विश्वविद्यालय में ही अब ठेकेदारी भी करते हैं.


पिछले 25 वर्षों के दौरान देश में हुए युवा-छात्र आंदोलनों का सर्वे किया जाये, तो इन नेताओं की असली कलई खुल जाती है. खासकर विश्वविद्यालयों में जुलाई में नये लड़कों के आने और नया सत्र आरंभ होने के साथ ही पेशेवर युवा नेताओं के दिन लौटने लगते हैं. जगह-जगह जा कर छात्रों को भरमाया-भड़काया जाता है. कुछ मुट्ठी भर नये छात्रों को साथ ले कर तोड़-फोड़ होती है, विश्वविद्यालय लंबे समय के लिए बंद कर दिये जाते है. ‘बूढ़े युवा’ नेता ऐसे अवसरों की ताक में बैठे रहते हैं. यहां के युवा आंदोलनों का यही इतिहास है. यही बार-बार दोहराया जाता है. 50 वर्ष की उम्रवाले कुछ अनुभवी युवा नेता अपना पूरा समय विश्वविद्यालयों के छात्रों के ‘कल्याण’ के लिए देते हैं. इन्हीं छात्रों के मत्थे इन युवा नेताओं का गुजारा भी होता है. इनके पिछलग्गू उद्दंड छात्रों की तादाद भी काफी कम है. 90 फीसदी तटस्थ छात्रों के भाग्यों का निर्णय भी वर्षों से ऐसे लोग ही कर रहे हैं.

इन युवा नेताओं और इनके अनुयायी छात्रों की मूल पूंजी है, आतंक और अशिष्टता. देश के बड़े नेताओं और तस्कर सरदारों से युवा नेताओं को अभयदान मिलता है और ये युवा नेता अपने पिछलग्गुओं को भी भयमुक्त बनाते हैं. आखिर नेतागीरी का पाठ्यक्रम कहां यह छूट देता है कि छात्र संघ की गाड़ी का आप निजी कामों के लिए इस्तेमाल करें. फोन का दुरुपयोग करें. मनपसंद ठेकेदारों को ठेके दिलाने के लिए विश्वविद्यालय कॉलेज प्रशासन पर दबाव डालें, छात्रसंघ के मत्थे गुलछर्रे उड़ाये. पुलिस से मुठभेड़ हो, तो मौका देख कर भाग निकले. निर्दोष छात्रों को पुलिस से पिटवाने में माहिर इन युवा नेताओं में समझ और दृष्टि का अभाव है. तिकड़म-फरेब और झूठ बोलना इनकी कला है.

सत्तर के दशक तक समझ-बूझवाले, योग्य और अपने विषय में पारंगत युवा छात्र ही छात्रों की अगुवाई करते थे. उन दिनों युवा नेताओं की दृष्टि व्यापक थी. हंगरी-चेकोस्लोवाकिया में रूसी हस्तक्षेप, वियतनाम में अमेरिकी नरसंहार, देश में भ्रष्टचार और विश्वविद्यालय के अध्यापकों की ओछी राजनीति के सवाल पर ये एक समान आंदोलित होते थे. गंभीर बहसें होती थीं. गोष्ठियां होती थीं. बाहर के विद्वान वक्ता युवा संघों के मंच से बोलते थे. समाजवादी युवजन सभा के अनेक मशहूर नेता आज भारत सरकार में वरिष्ठ प्रशासिनक पदों पर हैं. उनमें से अधिकतर आज विरोधी दलों और कांग्रेस के समझदार और दृष्टिसंपन्न नेता हैं. अब से युवक युवकों की रहनुमाई के लिए आगे ही नहीं आते.

काशी विश्वविद्यालय देश की युवा राजनीति का नब्ज समझा जाता है. वहां अब हरिकेश बहादुर (भूतपूर्व सांसद), दुर्गा सिंह चौहान (प्राध्यापक, इंजीनियरिंग कॉलेज) चंचल (पत्रकार और चित्रकार) आनंद कुमार (प्राध्यापक) और मोहन प्रकाश (विधायक) जैसे युवा नेता नहीं उभर रहे हैं. शिष्ट और अपने विषय में प्रवीण हरिकेश बहादुर कहीं भी अच्छे इंजीनियर बन सकते थे. कार्टूनिस्ट और पत्रकार चंचल की प्रतिभा से हिंदी पाठक और प्रकाशक बखूबी परिचित हैं. अनुशासित और गंभीर दुर्गा सिंह चौहान संघ से जुड़े थे. लेकिन संघ के चालबाज लोग उनका इस्तेमाल नहीं कर सके. आनंद कुमार जैसे तेजतर्रार और मोहन प्रकाश जैसे लड़ाकू युवा नेता अब नहीं निकल रहे.

इन प्रतिभावान युवकों के लिए राजनीति मजबूरी या पेशा नहीं थी. काशी विश्वविद्यालय ही क्यों, उसके बाहर भी आरिफ मुहम्मद खां, मोहन सिंह जैसे युवा नेता निकले. आरिफ उस पीढ़ी के आज सर्वश्रेष्ठ उदाहरण और गौरव हैं. फिलहाल जो युवा नेता हैं, अगर वे नेतागीरी छोड़ दे, तो उन्हें खाने के लिए लाले पड़े. ऐसे युवा नेता एक पूरी पीढ़ी के भविष्य को बंधुआ बना कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

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