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मालवीय जी के सपनों के हत्यारे

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-हरिवंश- विश्वप्रसिद्ध याचक मदनमोहन मालवीय का सर्वोत्तम सपना था ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’. इस सपने को मूर्त रूप देने के लिए वह आजीवन भिक्षाटन करते रहे. महज धन के लिए ही वह नहीं भटके, बल्कि देश के कोने-कोने से अद्वितीय प्रतिभाशाली विद्याधरों को उन्होंने विश्वविद्यालय परिसर में एकजुट किया. इन ऋषितुल्य मार्गदर्शकों के सान्निध्य में इस […]

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-हरिवंश-

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विश्वप्रसिद्ध याचक मदनमोहन मालवीय का सर्वोत्तम सपना था ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’. इस सपने को मूर्त रूप देने के लिए वह आजीवन भिक्षाटन करते रहे. महज धन के लिए ही वह नहीं भटके, बल्कि देश के कोने-कोने से अद्वितीय प्रतिभाशाली विद्याधरों को उन्होंने विश्वविद्यालय परिसर में एकजुट किया. इन ऋषितुल्य मार्गदर्शकों के सान्निध्य में इस तपोवन से नये इनसान निकलें, यही उनकी अभिलाषा थी.

जीवन के अंतिम क्षण तक वह अपने इस सपने को साकार करने के लिए बेचैन रहे. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान अखाड़िये प्राध्यापकों और टुच्चे राजनेताओं ने महामना के इस सपने की हत्या कर दी. फरेबी शिक्षाविदों और मक्कार राजनेताओं ने इस विश्वविद्यालय का माहौल ही प्रदूषित कर दिया है. इस संस्थान से अब न ‘नये मनुष्य’ निकल रहे हैं, न स्वस्थ आदर्श-सपनों के पहरेदार. जिस विद्यागृह में ऐसे अध्यापक हों, जो विद्याध्ययन के इतर हर दुनियावी विषय में पारंगत हों, वहां का माहौल पठन-पाठन का नहीं हो सकता.

विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में एक वरिष्ठ प्राध्यापक के निर्देशन में 1979 में एक छात्रा ने शोध किया. 1983 में पुन: एक दूसरे छात्र ने उसी निर्देशक के तहत शोध कार्य किया. दोनों को पीएचडी की उपाधि मिली. बाद में पता चला कि 1983 में पीएचडी करनेवाले छात्र ने 1979 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त करनेवाली छात्रा के शोध प्रबंध से 64 पेज हू ब हू नकल किये हैं. पीएचडी प्राप्त करने के बाद वह छात्र इलाहाबाद के एक कॉलेज में प्रवक्ता नियुक्त हुआ. बाद में उक्त छात्रा ने शिकायत की, तो अब जांच हो रही है. ऐसी जांच का हश्र लीपापोती ही होता है, यह जगजाहिर तथ्य है.

विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग विश्वविख्यात था. काफी वर्ष पूर्व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पहल पर डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी व्याकरण’ की एक पुस्तक लिखी थी, लेकिन विश्वविद्यालय से उनकी मूल पांडुलिपि चोरी चली गयी. अब यह अफवाह है कि कोई सज्जन उसे अपने नाम से छपवा चुके हैं. हिंदी विभाग में ही एक और प्राध्यापक हैं. पिछले 16 वर्ष अध्यापन करने के बाद अब पता चला कि उनकी हाई स्कूल से लेकर एमए तक की डिग्रियां जाली हैं.

उन्होंने मकान बनाने के लिए विश्वविद्यालय से लगभग दो लाख रुपये बतौर ऋण लिये हैं. वाहन के लिए अलग कर्ज ले रखा है. अब उनकी करनी की जांच हो रही है. हिंदी विभाग की अनेक चर्चित घटनाएं हैं. इस विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्षों-प्राध्यापकों के स्वजन कैसे शोध कर रहे हैं या सर्वोच्च अंक प्राप्त कर रहे हैं या प्रवक्ता नियुक्त हो रहे हैं? अगर इन विषयों की जांच हो, तो इन ‘बौद्धिकों’ का असली चेहरा सामने आयेगा.

ऐसी घटनाएं सिर्फ किसी खास विभाग तक ही सीमित नहीं हैं. पहले विश्वविद्यालय का भूगोल विभाग काफी प्रतिष्ठित माना जाता था. इस विभाग में , 1977 में पांचवीं योजना के तहत स्वीकृत एक प्रोफेसर पद की नियुक्ति के लिए साक्षात्कार हुआ. उसी समय छठी योजना के आधार पर एक प्रभावशाली व्यक्ति ने एक अतिरिक्त पद सृजित करा कर अपनी नियुक्ति करा ली. बगैर पूर्व संस्तुति के ही तदर्थ आधार पर यह कार्य हुआ. इस विभाग में ही एक पूर्व विभागाध्यक्ष के कार्यकाल के दौरान 1,43,227.34 रुपये की विभागीय चीजें खरीदी गयीं.

घपले की आशंका के तहत इस खरीद-फरोख्त की जांच के लिए कार्यकारी परिषद ने एक सदस्यीय समिति नियुक्त की. उस समिति की रिपोर्ट आने के बाद इस संबंध में विश्वविद्यालय के वित्त अधिकारी ने विभागाध्यक्ष को लिखा कि ‘बिल का भुगतान नहीं किया जाये और पार्टी द्वारा दी गयी सामग्री उसे लौटा दी जाये.’ लेकिन विश्वविद्यालय के विख्यात प्राध्यापकों को अपनी ऐसी करनी से शर्म नहीं आती. इस विभाग में कार्यरत एक तकनीकी सहायक की पत्नी की नियुक्ति यहीं हुई. हालांकि वह समाजशास्त्र में एमए हैं. जिस पद पर उनकी नियुक्ति की गयी, उसके लिए अपेक्षित योग्यता में समाजशास्त्र में एमए की योग्यता का उल्लेख नहीं था.

ऐसा कार्य कल्चर विभाग में भी हुआ है. ‘आधुनिक इतिहास’ में पीएचडी करनेवाले सज्जन कल्चर विभाग में प्रवक्ता हैं. 1987 में ‘रीडर’ पद के लिए एक इंटरव्यू हुआ. उसमें विजिटर ‘नॉमिनी’ को ही ‘एक्सपर्ट’ मान लिया गया. वह सज्जन भौतिकशास्त्र में पारंगत थे. पता नहीं कैसे उन्होंने भूगोल विभाग में सिद्धहस्त व्यक्ति का चयन किया? एक दूसरे विभाग के सेवामुक्त प्रोफेसर विश्वविद्यालय में ही जमे रहना चाहते हैं, इस कारण उन्हें विभिन्न समितियों में घुसाया जाता है. उनके समर्थकों का तर्क है कि उनके पिता का इस विश्वविद्यालय के विकास में अमूल्य योगदान रहा है. इस आधार पर तो श्रद्धेय मालवीय जी के स्वजनों को यहां रखना चाहिए था. असलियत यह है कि उक्त प्रोफेसर शहर का अपना मकान किराये पर लगा चुके हैं. इस तरह दोहरा लाभ पाने के लिए वह विश्वविद्यालय के आलीशान भवन को खाली नहीं करना चाहते.

यह सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान विश्वविद्यालय का सत्र नियमित हो गया है, लेकिन प्रशासन फिर शिथिल हो गया है. कुछ छात्रावासों में मेस नहीं चलते. कुछ ही माह पूर्व बिड़ला छात्रावास में बीए का छात्र खाना (कमरा नं 56) बनाते समय बिजली स्पर्श के कारण मर गया था. कुलपति के दोनों कार्यकालों के दौरान लगभग 500 विभिन्न पद खाली हैं, लेकिन कुल 40-50 पदों पर ही नियुक्तियां हुई हैं.

विश्वविद्यालय के अनेक मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं, जिनमें लाखों रुपये स्वाहा हो रहे हैं. अस्थायी अध्यापकों के संबंध में उच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया था, उसे विश्वविद्यालय प्रशासन क्रियान्वित नहीं कर पाया. छात्र संघ को निरस्त करने से विश्वविद्यालय प्रशासन निरंकुश हो गया है. अधिकारियों-अध्यापकों की कारगुजारियों के भंडाफोड़ के लिए स्वस्थ छात्र संघ आवश्यक है. छात्रसंघ न होने के कारण अध्यापकों-प्रशासकों की बेजा हरकतें निर्बाध रूप से चल रही हैं.

विश्वविद्यालय की सर्वोच्च प्रशासकीय संस्था है ‘एग्जीक्यूटिव काउंसिल’ (कार्यकारी परिषद) अतीत में इस परिषद की गरिमा कायम रखने की हर संभव कोशिश होती रही है. पूर्व कार्यकारी परिषद के सदस्य थे, न्यायाधीश एचएम बेग और प्रख्यात वैज्ञानिक-शिक्षाविद डॉ जय कृष्णा, डॉ एआर वर्मा और डॉ महादेवन, विश्वविद्यालय के विधि संकाय के डीन और मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफेसर भी इस परिषद के सदस्य थे. लेकिन हाल में नयी परिषद का गठन केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने किया है. इस परिषद में अधिकतर सदस्य विश्वविद्यालय के ही हैं, बाहर के कम.

विश्वविद्यालय से प्रो एके बनर्जी ही इस परिषद के सबसे अनुभवी, प्रतिबद्ध और वरिष्ठ सदस्य हैं. विश्वविद्याय से जो अन्य दूसरे व्यक्ति इस परिषद में सदस्य नियुक्त किये गये हैं, उनमें से अधिसंख्य के लड़के-स्वजन इसी विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. एक सज्जन की पत्नी पढ़ाती हैं. दूसरे सज्जन अपने एक दूसरे पुत्र को विश्वविद्यालय में प्रवक्ता बनाने की जुगाड़ में हैं. केंद्रीय शिक्षा मंत्री के निजी सहायक के एक रिश्तेदार भी इस समिति में हैं. एक दूसरे सम्मानित सदस्य पर एक विदेश यात्रा के दौरान गोलमाल का आरोप लग चुका है. इस सर्वोच्च समिति में पहले विश्वविद्यालय के बाहर के यानी उच्चतम न्यायालय या दूसरी प्रतिष्ठित जगहों के विख्यात व्यक्ति सदस्य नियुक्त किये जाते थे. 8 या 9 लोगों की समिति में मुश्किल से 2 या 3 सदस्य विश्वविद्यालय के रहते थे, बाकी बाहरी. इससे समिति निरपेक्ष होकर कार्य करती थी. गोपनीयता बरकरार रहती थी. अब इस समिति से ऐसी अपेक्षा नहीं रह गयी है.

इसी तरह की दूसरी महत्वपूर्ण सूची बनती है ‘विजिटर्स नॉमिनी’ की. राष्ट्रपति इस विश्वविद्यालय का पदेन विजिटर होता है. प्रति तीन वर्ष के लिए उसके प्रतिनिधि नियुक्त किये जाते हैं, जो विभिन्न पदों के चयन के दौरान चयन समिति में मौजूद रहते हैं. दरअसल, इस सूची को शिक्षा मंत्रालय अंतिम रूप देता है. इस बार अधिसंख्य सदस्य एक खास जाति और राज्य से चुने गये हैं.

इस तरह विश्वविद्यालय की सर्वोच्च प्रशासकीय समितियों में घृणित राजनीति घर कर गयी है. अध्यापक, अध्यापकी छोड़ कर अन्य धंधों में जुट गये हैं. छात्र संघ के अभाव में छात्र दिशाहीन और भ्रमित हैं. ऐसा नहीं है कि यह विश्वविद्यालय निष्प्राण हो गया है. अनेक विषयों के प्रख्यात विद्वान यहां हैं, पर वे उपेक्षित और मुख्यधारा के कटे हुए हैं. फिलहाल विश्वविद्यालय पर जो तत्व काबिज हैं, वे इसे निष्प्राण बनाने की हर संभव जुगत कर रहे हैं.

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