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बिहारियों के श्रम से मॉरीशस स्वर्ग बना

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– हरिवंश – बहुत वर्षों बाद, (डॉ भारती की मृत्यु के कुछ महीने पहले) हम सपरिवार उनके घर गये थे. उनका स्नेह था. हिंदी राज्यों को लेकर उनकी बेचैनी, उनकी पीड़ा, उनके लेखन में तो है ही, उनकी बातचीत में भी प्रमुख विषय रहता था. हिंदी इलाकों के प्रति इतना कंसर्न (लगाव), उनके स्वाभिमान की […]

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– हरिवंश –
बहुत वर्षों बाद, (डॉ भारती की मृत्यु के कुछ महीने पहले) हम सपरिवार उनके घर गये थे. उनका स्नेह था. हिंदी राज्यों को लेकर उनकी बेचैनी, उनकी पीड़ा, उनके लेखन में तो है ही, उनकी बातचीत में भी प्रमुख विषय रहता था. हिंदी इलाकों के प्रति इतना कंसर्न (लगाव), उनके स्वाभिमान की बातें, तेवर की बातें, इतिहास में उनके साथ किये गये छल, उनकी कुरबानियों और बलिदान की बातें, बहुत कम लोगों से मैंने सुनी है.
जोगिया रंग की खद्दर की आधे बांह की गंजी और उसी रंग की लुंगी में उन्होंने मुझे शारदा सिन्हा से मिलने की बात सुनायी. और फिर उनके कई गीतों के मर्म समझाये. बताया कि महज गीत नहीं, इनमें हिंदीभाषियों की पीड़ा और व्यथा की एक-एक दास्तान है. पनिया के जहाज से पलटनिया बन के अइहा पिया महज गीत नहीं है, यह भोजपुरी इलाके की धरती की व्यथा का काव्य है.
इसी तरह डॉ भारती ने शारदा सिन्हा के उस गाने का भी उल्लेख किया, जिसमें पति अपनी तुरंत ब्याही पत्नी को छोड़ कर जाता है, ताकि उसे सुख से रख सके. जब वह कमा कर लौटता है, तो उसे आंखों से दिखायी नहीं देता.

वह कुएं पर खड़ी एक महिला से पूछता है, अपने घर का पता. संयोग से वह उसकी पत्नी होती है. फिर उन्होंने कहा कि भोजपुरी गानों और गीतों में क्या भाव, तथ्य और दर्द है, वह आज के लोग नहीं जानते-समझते. भोजपुरी धरती ने अपने स्वाभिमान की कीमत चुकायी.

मेरे एक युवा साथी हैं, जो जगदीशपुर इलाके से आते हैं, उन्होंने मॉरीशस से लौटने पर बताया कि आज भी लोग याद करते हैं कि कैसे लोग किन गांवों से वहां गये. बहुत स्पष्ट तो नहीं, पर बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि उनके दादा-परदादा कहते थे कि आरा के निकट कई गांवों से लोग परदेश जाते थे. हरिगांव जो हाल में चर्चित रहा, वह भी इसी इलाके में पड़ता है. बिहिया, बेलबनिया, सलेमपुर इलाकों में कई गांव हैं, जहां से लोगों के बाहर जाने की बात कही जाती है.
26 अप्रैल की शाम को भारत की राष्ट्रपति ‘इंदिरा गांधी सेंटर फॉर इंडियन कल्चर’ में बोल रहीं थीं, तो उन्होंने मॉरीशस के ही एक कवि विश्वामित्र गंगा आशुतोष की कविता का हवाला दिया.
नो गोल्ड डिड दे फाइंड
अंडरनिथ एनी स्टोन
दे टच्ड एंड टर्न्ड
येट, एवरी स्टोन दे टच्ड
इन टू सॉलिड गोल्ड दे टर्न्ड
(किसी पत्थर के नीचे
दबा कोई सोना
उन्हें नहीं मिला,
उन्होंने उसे छुआ
और बदल दिया
हरेक पत्थर को
ठोस सोने के रूप में)
मेरे मित्र राज हिरामन मुझे मॉरीशस के सुदूर गांव में ले गये. यह 1978 की मित्रता है, जब राज हिरामन को मॉरीशस से, डॉ रामगुलाम ने बंबई के टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप (धर्मयुग) में प्रशिक्षण के लिए भेजा था. तब से राज से गहरा जुड़ाव है. वह कई बार भारत आये. बिहार-झारखंड भी आना हुआ. मुझसे मिले भी. उन्होंने कई चर्चित किताबें लिखीं हैं. फिलहाल महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट में वह वसंत और रिमझिम पत्रिकाओं के वरिष्ठ सहायक संपादक हैं. अत्यंत जीवंत. उन्होंने रात में ही कहा-फजिरे में बात करूंगा.
यह शब्द खटका. न जाने कितने दशकों के बाद सुना. क्योंकि गांवों में भी अब ऐसे शब्द आधुनिकता की भेंट चढ़ रहे हैं. प्रयोग से गायब हो रहे हैं. गांवों या पोर्ट लुई के शहर में देखा, भारत से गये हिंदू घरों में ठीक बाहर, हर घर में तुलसी चौरा और महावीर स्वामी. यहां लगभग 51 प्रतिशत हिंदू हैं.
17 प्रतिशत मुसलमान हैं. इनमें से भी अधिक हिंदी राज्यों से ही गये थे. आज 28 प्रतिशत क्रियोल, शेष अन्य हैं. हालांकि भारतीयों ने खूब प्रगति की है, पर आज भी यहां की अर्थव्यवस्था पर एक प्रतिशत फ्रांसीसी मॉरीशस समूह के लोगों का कब्जा है. तीन प्रतिशत चीनी लोगों का रिटेल व्यवसाय और अन्य प्रोफेशनल क्षेत्रों में दबदबा है. क्रियोल ग्रुप आंशिक और सामाजिक रूप से पीछे है. हालांकि सरकार इन्हें खूब राहत देती है. कुछ लोग कहते भी हैं कि दान और याचना ने इन्हें कर्मविमुख कर दिया है. पग-पग राहत, मदद के बंदोबस्त हैं, एक बड़ा समूह मानता है कि सरकार की खैरात ने इन्हें परजीवी बना दिया है.
श्रम करने की ताकत हर ली. पर उल्लेखनीय बात है कि इस तरह की मिली जुली जनसंख्या के बावजूद कभी कोई दंगा नहीं हुआ. भारतीय संस्कृति पूरी तरह जीवंत है. राज ने सुनाया, नरसिंह राव का एक बयान. भारत के लोग जब अपनी संस्कृति भूल जायेंगे, तो उसके पार्ट-पुरजे कल मॉरीशस से ही मिलेंगे. आज भी यहां हिंदुओं में संयुक्त परिवार की व्यवस्था है. फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो, गुयाना वगैरह देशों में जहां भारतीय मूल के लोग हैं, वहां ओल्ड एज होम बन रहे हैं, पर मॉरीशस में अब भी अनाथालय या वृद्धाश्रम नहीं हैं.
एक गांव प्रेमनगर जाना हुआ, जिसका पुराना फ्रेंच नाम क्योंतोरेल था. उस गांव में देखा, सूरन, गागल, लीची, लौकी, आम के पेड़-खेती और बगीचा. एक गांव का नाम चित्रकूट है, जो कि राम की याद में है. दूसरा पंचवटी भी है. रामगुलाम के नाम पर केवलनगर भी है. घर में लोग मोटिया बोलते हैं. मोटिया यानी गांव की पुरानी भाषा. यहां साईं बाबा (पुट्टपुर्थी) के बहुत अनुयायी हैं. उनके बाद बाबा रामदेव लोकप्रिय हैं.
घर-घर में मंदिर, घरों के अंदर सरस्वती, कृष्ण, महावीर स्वामी, गांव-गांव मंदिर. प्रेमनगर जाना हुआ, जहां 300-350 परिवार रहते हैं. बताया गया कि सब भोजपुरिया हैं. सबके घर में कारें हैं. टोयोटा कारें, अन्य वाहन, हर घर में गांधी की तसवीर भी है. यहां बड़े-बड़े तूफान आते हैं, समुद्री द्वीप है इसलिए. तूफानों के नाम औरतों के नाम पर हैं. 1960 तक यहां अगौर के घर थे. अगौर यानी ईख की सूखी पत्तियां से बने. यहां हल्दी, बैंगन, प्याज, लहसुन, चावल, टमाटर, कोहड़ा, लौकी, भिंडी, पपीता, लीची, नींबू, लागैन (सब्जी) सब थे.
गांव के बाहर काली मंदिर, गांव में घरों के बड़े-बड़े गेट नहीं, न कहीं मजबूत बाउंड्री. पता चला, क्राइम रेट वहां कम है. पर अमेरिकी आधुनिकता की लहर यहां के युवाओं पर भी है. लेकिन इन सबसे अलग उल्लेखनीय पहलू है, अपने श्रम, साहस और धीरज से पत्थर को भी सोने में बदल देने वाले भारतीय मूल के लोगों की भूमिका की दास्तान.
मॉरीशस के सुविख्यात रचनाकार और दुनिया में चर्चित अभिमन्यु अनंत से मुलाकात में यह बात और साफ हुई. उनके घर में हम बतिया रहे थे. पूछा, आजकल क्या लिख रहे हैं? उनका जबाव था. नाटक लिख रहा हूं. वह पहले भी नाटक लिख चुके हैं. मंचन भी किया है.
निर्देशन भी. मॉरीशस के जागरण में इन सांस्कृतिक या साहित्यिक हस्तक्षेपों की बड़ी भूमिका रही है. उनके नये नाटक का मूल मर्म एक गरीब किसान पर आधारित है. शीर्षक है ‘प्रगति’. वह पूछते हैं मॉरीशस को किसने स्वर्ग बनाया? न तो मुंबई वालों ने, न दिल्ली वालों ने, न कोलकाता वालों ने. संघर्ष किया बिहारियों ने. जब वे बिहारी बोलते हैं, तो उनका आशय हिंदी इलाकों से गये सभी प्रांतों के लोग हैं.
फिर बताते हैं आज बिहारी अच्छे घरों में हैं. उनके पास एक टुकड़ा जमीन है, घर-आंगन है, गाड़ी है. 30 वर्षों पहले ऐसा नहीं था. वह कहते हैं चाचा रामगुलाम और विष्णु दयाल, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बदलाव के प्रणेता थे. इन दोनों की बदौलत आजादी मिली.
देश में एकता हुई. वह कहते हैं आज की नयी पीढ़ी नहीं समझ रही कि लंगोटी पहने, लोटा लेकर शौच जानेवाला कैसे रहता था? यह एक व्यक्ति की कहानी नहीं, घर-घर की कहानी है, दास्तान है. घरों के दरवाजे छोटे होते थे, मांद जैसे. हर घर में निहुर कर घुसना होता था. घर का छाजन गन्ने के पत्तों से होता था. हमारे श्रम ने हमारी किस्मत बदली, 30 वर्ष बाद सिर से गन्ने का छाजन हटा. टीन की चादर चढ़ी. 30 वर्ष बाद कंक्रीट की छत हुई.
यह हमारे श्रम और खून के उत्सर्ग से मिली प्रगति है. खून-पसीना और श्रम ने हमें जिंदगी में रास्ते दिये. यह समृद्धि या बेहतरी अचानक नहीं आयी, श्रम से, धीरे-धीरे आयी. हर घर में. अभिमन्यु अनंत मानते हैं कि इसमें सबसे बड़ा योगदान महिलाओं का रहा. घर की महिलाएं गाय-बकरियां पालती थीं. पुरुष खेतों में काम करते थे, कुली-मजदूरों के रूप में. अगर हमारी महिलाएं गाय-बकरियां नहीं पालतीं, तो हमारे घर कैसे होते? महिलाएं जंगल से घास काटतीं, बोझा के बोझा ढोतीं, तब जाकर मवेशी जीते थे. मर्दों से ज्यादा संघर्ष महिलाओं ने किया है. उन्होंने बताया कि जिस होटल में आप ठहरे हैं, वहां जंगल था.
वहां से घास ढोकर लाते थे. घर में महिलाएं जांत (आटे की घरेलू चक्की) पीस कर काम करती थीं. ओखल-मूसल से. भोजपुरी-हिंदी की पूरी सांस्कृतिक थाती इन्होंने ही बचा कर रखी. अनंत के घर में बैठा, मैं स्तब्ध यह सारी दास्तान सुन रहा था. कैसे परिश्रम से तकदीर बदली जाती है. याद आयी, सिंगापुर की यात्रा.
वहां हम सिंगापुर का इतिहास जानने संग्रहालय गये थे. कैसे मछुआरों के पिछड़े, साधनहीन और लगभग जंगली इलाकों को श्रम, संकल्प और दृष्टि से लोगों ने बदल दिया. विश्व के श्रेष्ठ देशों में से एक बना दिया.
(जारी)
दिनांक : 13.09.2011

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