बच्चों को भरपूर प्यार देना तो आपके हाथ में है
आठवीं-नौवीं में पढ़नेवाले बच्चे इतने समझदार होते हैं कि यदि आप उन्हें मजबूरी बताकर कहें कि बेटा इस बार हम ये खर्च नहीं कर पायेंगे, अगले महीने आपको दिला देंगे तो बच्चा समझ जायेगा. आप उन्हें अपनी चादर का एहसास कराते रहें, जिससे वे पांव बाहर निकालने के लिए न सोचें. ये तो भौतिक चीजें […]
आठवीं-नौवीं में पढ़नेवाले बच्चे इतने समझदार होते हैं कि यदि आप उन्हें मजबूरी बताकर कहें कि बेटा इस बार हम ये खर्च नहीं कर पायेंगे, अगले महीने आपको दिला देंगे तो बच्चा समझ जायेगा. आप उन्हें अपनी चादर का एहसास कराते रहें, जिससे वे पांव बाहर निकालने के लिए न सोचें. ये तो भौतिक चीजें हैं, जो अभाव के कारण आप उन्हें खरीदकर नहीं दे सकते, मगर प्यार तो आपके हाथ में है, आप जी भरके उन्हें प्यार दें. उस आर्थिक कमी को अपने प्यार की दौलत से भर दीजिए.
मुझे मेरे मां –पापा ने इतना फ्रैंडली रखा कि हर बात पापा से बताती थी, बल्कि होता यह था कि मम्मी कहती थीं कि जो बात नहीं बताने की बात होती है, वह भी ये बता देती है और मेरे पापा यही कहते थे कोई बात नहीं, मैं समझा दूंगा. यही संस्कार मैंने अपने बच्चे में डाले.
संस्कार कोई घुट्टी नहीं कि घोलकर पिलायी जाये, बल्कि वह आचरण हैं जो हम अपने बच्चों में चाहते हैं, लेकिन हमें उनका प्रयोग बच्चों के सामने बार-बार करना पड़ता है और इतना कि वह बच्चों की आदत में शामिल हो जायें. बच्चे कब, क्या कह रहे हैं? किससे किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं? किसका मजाक उड़ा रहे हैं? किससे बद्तमीजी से बात कर रहे हैं? इन सारी बातों पर हम अभिभावक को ही नजर रखनी होगी. अगर आप बच्चों को पहली बार में ही टोके देंगे, तो उनको समझ आ जायेगा कि इस तरह से बात नहीं करनी या जब-जब वे ऐसी बात करें जो बच्चों के लिए उचित नहीं, तब-तब आप उन्हें मना करें. शुरू में आपको ध्यान रखना पड़ेगा फिर उनकी आदत में शामिल हो जायेगा.
ये माहौल हमारे घर में था. हम पापा-मम्मी की इज्जत करते थे, लेकिन डर जैसा कुछ नहीं था. जो बात होती थी, खुलकर बताते थे. यही माहौल मेरी दोस्त के घर का भी होता, तो वह अपने पापा के लिए इस तरह नहीं बोलती. लेकिन वह माहौल मेरी दोस्त के घर का नहीं था और उसने हम सबके बीच इस तरह कहा. आठवीं-नौवीं में पढ़नेवाले बच्चे इतने समझदार होते हैं कि यदि आप उन्हें मजबूरी बताकर कहें कि बेटा इस बार हम ये खर्च नहीं कर पायेंगे, अगले महीने आपको दिला देंगे तो बच्चा समझ जायेगा. आप उन्हें अपनी चादर का एहसास कराते रहें, जिससे वे पांव बाहर निकालने के लिए न सोचें. ये तो भौतिक चीजें हैं, जो अभाव के कारण आप उन्हें खरीदकर नहीं दे सकते, मगर प्यार तो आपके हाथ में है, आप जी भरके उन्हें प्यार दें. उस आर्थिक कमी को अपने प्यार की दौलत से भर दीजिए.
जब में नौवीं में थी, तभी की बात है. मेरे भाई ने कोई डिमांड की और पापा ने हंसकर कहा कि अभी नहीं बाद में. तो जो किशोर बच्चों का जोश होता है, उसी जोश में भाई ने कहा कि आप कैसे खर्च करते हैं, आप इतना भी नहीं बचा पाते. मुझे मिलता इतना रुपया तो मैं दिखाता कि कैसे रुपये बचाये जाते हैं. पापा ने कहा अगले महीने खर्च तुम चलाना और मम्मी से कहा कि तनख्वाह भइया को दे दें और हम दोंनो ने मिलकर मैन्यू तैयार किया और जब मम्मी बताती तो सामान आता और बाकी घर के खर्च, बिल वगैरह सब भाई ने मैनेज किया. एक उत्साह रहा और सारी सैलरी हाथ में आने पर यह लगा कि इतना रुपया हाथ में है. उस महीने रुपये कम पड़ गये. अगले महीने हम दोनों ने मिलकर कुछ खर्च कम किये, फिर भी महीने के अंत से पहले रुपये खत्म हो गये और जब पापा ने भैया से कहा कि मुझे ऑफिस के लिए तो कुछ खर्च दो.
भैया ने कहा आपको दिये तो थे, तब पापा ने हिसाब बता दिया. उसमें ज्यादा खर्च वह था जो वे रोज शाम को हम लोगों के लिए कुछ न कुछ लाते थे. तब भैया ने कहा. एक्चुअली पापा रुपये तो खत्म हो गये. पापा ने कहा ऐसे कैसे खत्म हो गये, अभी तो नौ दिन बाकी हैं और भैया ने बिना कुछ कहे ‘सॉरी’ बोल दिया. भैया को समझ आ चुका था. उस रात पापा ने हम दोनों से ढेर सारी बातें कीं और हमें जीवन, रुपया, खर्च न जाने किन-किन बातों को समझाया. ये वाकया मुझे याद आ गया, इसलिए बताया. आठवीं-नौवीं में पढ़नेवाले बच्चे समझदार होते हैं. जरूरत है तो उन्हें पॉलिश करने की. उन्हें समझाने की. रात में अक्सर ही पापा-मम्मी हमारे साथ, लूडो, कैरम वगैरह खेलते थे और उस समय हम सारी बातें शेयर करते थे. हम पापा से कभी डरे नहीं, उन्होंने कभी भी गुस्सा किया ही नहीं. मगर वे समझाते बहुत थे. बहुत बात करते थे. अब जब मैं सोचती हूं तो मुझे लगता है कि वह जो किस्से सुनाते थे, उनके पीछे अप्रत्याशित रूप से कहीं न कहीं मकसद यह था कि वे चाहते थे कि वैसा आचरण उनके बच्चों का हो.
उन किस्सों को रोचक बनाने के लिए उसमें हंसी-मजाक भी शामिल होता था, लेकिन जरा आप सोचिए कि आज कितने माता-पिता रोज बच्चों को किस्सा सुनाते हैं, कितना समय दे पाते हैं ? बीच की जेनरेशन में इनसान का मशीनीकरण और रुपये की जरूरत इतनी बढ़ गयी कि विवाह के वक्त लड़कों की डिमांड होती थी कि लड़की जॉब करती हो, जिससे रुपये-पैसे की तंगी न हो मगर उस जुगाड़ में हमने जिनके लिए धन कमाया, उन्हीं की अनदेखी की. रुपये से आप बच्चों को सुविधा मुहैया करा सकते हैं, मगर उन्हें प्यार की सबसे ज्यादा जरूरत होती है और यह जरूरत जीवन के हर चरण में होती है.
जबसे बच्चा जन्म लेता है, उस समय से तब तक जब वह खुद माता-पिता क्यों न बन जाये, उसे हमारी जरूरत रहती है. जब भी बच्चा कोई मुसीबत में होता है तो सबसे पहले अपने माता-पिता को ही याद करता है. हां, किशोर और युवा बच्चों को लगता है कि उनकी निजता भंग न हो, या वे खुद सक्षम हैं मगर वह बच्चों की सोच है. सच तो यह है कि उन्हें आपकी हर कदम पर जरूरत है.
वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार व स्तंभकार,
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