नयी दिल्ली : देश के विभिन्न नामी-गिरामी निजी आैर सरकारी अस्पतालों में बनी दवा की दुकानों के दुकानदारों के दाम का खेल आखिरकार सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच ही गया. आम तौर पर अस्पतालों में संचालित होने वाली दवा की दुकानों पर खरीदारों को रियायत नहीं दी जाती है. एेसे ही एक मामले में अपनी मां के इलाज के लिए आवश्यक दवाओं की अत्यधिक कीमतों के खिलाफ कानून के एक छात्र ने सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को एक याचिका दायर की है, जिसमें उसने अस्पतालों में स्थित दवाइयों की दुकान से ही दवा खरीदने के लिये मरीजों को बाध्य नहीं करने का निर्देश देने का अनुरोध किया है.
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शीर्ष अदालत कानून के छात्र और उसके वकील पिता की संयुक्त याचिका पर विचार करने के लिए सहमत हो गयी है. याचिका में आरोप लगाया गया है कि दवाओं, मेडिकल उपकरणों और इस्तेमाल होने वाले दूसरे मेडिकल सामानों की कीमतें दवा निर्माताओं की सांठगांठ से बढ़ा दी जाती हैं. न्यायमूर्ति एसए बोबडे और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की पीठ ने इस याचिका पर केंद्र और सभी राज्यों को नोटिस जारी किया है. इन सभी से चार सप्ताह के भीतर जवाब मांगा गया है.
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कानून के छात्र सिद्धार्थ डालमिया के साथ संयुक्त याचिकाकर्ता और अधिवक्ता विजय पाल डालमिया व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में पेश हुए. उन्होंने कहा कि देश भर में अस्पतालों में मरीजों की स्थिति और अज्ञानता का लाभ उठाते हुए लोगों को अस्पताल की ही दवा की दुकानों से दवाएं खरीदने के लिए बाध्य किया जाता है. इस याचिका में छात्र ने ‘ब्रेस्ट कैंसर’ से ग्रस्त अपनी मां के इलाज के दौरान पेश आयी मुश्किलों का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी सर्जरी हुर्इ और फिर छह कीमोथेरेपी और दूसरे उपचार हुए. प्रत्येक 21 वें दिन बाइसेल्टिस इंजेक्शन लगते थे.
इस उपचार के दौरान ही उन्हें पता चला कि यह इंजेक्शन अधिकतम खुदरा मूल्य 61,132 रूपये पर बेचा जा रहा है, जबकि बाजार में यही रियायत के साथ 50,000 रुपये में मिल रहा था. यही नहीं, इसकी निर्माता कंपनी मरीज सहयोग कार्यक्रम के तहत चार इंजेक्शन खरीदने पर मरीज के लिए एक इंजेक्शन मुफ्त देती है. याचिका में कहा गया है कि एक इंजेक्शन मुफ्त मिलने की स्थिति में एक इंजेक्शन की कीमत करीब 41,000 रूपये ही पड़ती है, जबकि इसका अधिकतम खुदरा मूल्य 61,132 रूपये है.
याचिका में कहा गया है कि अभी तक इस उपचार पर 15 लाख रूपये खर्च हुए हैं और पूरे उपचार का खर्च करीब 30 लाख रूपये होगा. डालमिया ने कहा कि अस्पताल और उसकी अपनी दवा की दुकान ने उन्हें कंपनी द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा मुफ्त इंजेक्शन नहीं दिया और उन्होंने पहली बार महसूस किया कि अस्पतालों, नर्सिंग होम और स्वास्थ्य सेवा संस्थाओं ने उनसे ही दवा खरीदने के लिए बाध्य करके मरीजों को लूटने का एक संगठित तरीका अपना रखा है.
याचिका में अदालत से यह निर्देश देने का अनुरोध किया गया है कि मरीज अपनी पसंद की दुकानों से दवा, मेडिकल उपकरण और दूसरे चिकित्सीय सामान खरीदने के लिए स्वतंत्र होंगे आैर अस्पताल उन्हें सिर्फ अपनी ही दुकानों से खरीदारी के लिए बाध्य नहीं कर सकते. याचिका में केंद्र और सभी राज्य सरकारों को यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया है कि वे मरीजों और दवा, मेडिकल उपकरण और दूसरे चिकित्सीय सामान खरीदने वालों के हितों की रक्षा के लिए इस तरह के गोरखधंधे पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए.
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