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प्रेम के मौसम में प्रेमरसिया पुरबिया उस्ताद महेंदर मिसिर का जन्मदिन

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-चंदन तिवारी- बसंत जब उफान पर होता है और प्रेम का महीना उत्सवधर्मिता की ओर अग्रसर होता है, वैसे मौसम में महेंदर मिसिर की जयंती मनायी जाती है. वैसे तो महेंदर मिसिर को लोकगायकी व लोकरचना की दुनिया में पुरबी का जनक, पुरबी का पुरोधा आदि कहा जाता है. मैं उन्हें पुरबिया उस्ताद कहती हूं. […]

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-चंदन तिवारी-

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बसंत जब उफान पर होता है और प्रेम का महीना उत्सवधर्मिता की ओर अग्रसर होता है, वैसे मौसम में महेंदर मिसिर की जयंती मनायी जाती है. वैसे तो महेंदर मिसिर को लोकगायकी व लोकरचना की दुनिया में पुरबी का जनक, पुरबी का पुरोधा आदि कहा जाता है. मैं उन्हें पुरबिया उस्ताद कहती हूं. पुरबी गायन के वे पर्याय थे या यूं कहें कि पुरबी को एक आकार देते हुए विस्तार देने में उनकी अहम भूमिका थी.

उनका नाम आते ही आगे—पीछे पुरबी लगाया जाता है. मैं जब भी महेंदर मिसिर के गीतों से गुजरती हूं, उनके गीतों को पढ़ती हूं, यथासंभव गाती हूं तो मुझे उन्हें याद करते हुए पुरबी से ज्यादा प्रेम हो जाता है. महेंदर मिसिर लोकभाषाओं की दुनिया में प्रेम को केंद्रीय विषय बनाकर अनन्य रचनाकार हुए. प्रेम का अनन्य रचनाकार कहने का मतलब यह कतई नहीं कि दूसरे विषयों पर उनकी रचनाएं कोई कमतर थी.

उन्होंने जो भी लिखा वह बेमिसाल बन गया. उन्होंने आजादी का भी तराना लिखा ‘हमरा निको नाही लागेला गोरन के करनी…’ उन्होंने दूसरे विषयों को केंद्र बनाकर अनेकानेक रचनाएं की लेकिन प्रेम अहम विषय रहा. उनकी रचनाओं से गुजरते हुए कई बार ऐसा लगता है जैसे वे अपने समय में प्रेम को केंद्र में रखकर स्त्री मुक्ति की राह बना रहे थे. भोजपुरी समाज की जड़ताओं को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे. देहरी के अंदर रहनेवाली स्त्रियों के मन में पलनेवाले प्रेम को स्वर देकर उन्हें मजबूत करना चाह रहे थे. महेंदर मिसिर की रचनाएं स्त्रियों की इच्छा-आकांक्षाओं को समर्पित है. सोचती हूं कि कितना कठिन रहा होगा उनके लिए. किस तरह उन्होंने स्त्री मन के अंदर की बातों को, एकदम से शब्दों में उतारा होगा. कितनी गहराई में डूब जाते होंगे वे. स्त्री ही तो बन जाते होंगे, लिखते समय…

अब जब प्रेम के मौसम बसंत में प्रेम के कवि-रचनाकार का जन्मदिन आया है तो हम उनकी जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यह प्रयास करें कि लोकभाषाओं के विशेष रूप से भोजपुरी के गीतों का भाव-स्वभाव स्त्रैण हो. लोकगीत स्त्रियों की ही चीज है. विविध विधाओं के पारंपरिक गीतों की दुनिया देख लीजिए या महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर, विश्वनाथ सैदा से लेकर तमाम दूसरे रचनाकारों के गीत, केंद्र में स्त्रियां ही मिलेंगी.

क्या हम बसंत के मौसम में प्रेम कवि को याद करते हुए इतना कर सकते हैं कि होली के ऐसे ही गीतों को बजायें, जिसमें प्रेम तो हो लेकिन वह उन्मादी रूप में न हो. वह ऐसा प्रेम हो, जिससे स्त्रियां जुड़ सकें. जिसमें स्त्रियां सहभागी हों. वह अपनी जगह भी उसमें तलाश सकें. जैसा कि महेंदर मिसिर अपने गीतों में रचते थे. प्रेम विषय होता था और पात्र स्त्रियां लेकिन स्त्रियों का तन नहीं मन प्रमुख होता था.

{लेखिका लोकगीत की गायिका हैं)

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