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हानिकर है सिद्धांतहीन गठबंधन

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प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com भारतीय राजनीति के दो पासों वाले जुए में सैद्धांतिकता तथा अनैतिकता के पासों का एक ही खांचे में जा पड़ना ही विजेता तय करता है. लालचभरी महत्वाकांक्षा के शोर-शराबे में पंथ निरपेक्षता की आवाज डूब चुकी है. यहां तक कि राष्ट्रीयता तथा उदारवादिता के ध्रुवीकरण […]

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प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
भारतीय राजनीति के दो पासों वाले जुए में सैद्धांतिकता तथा अनैतिकता के पासों का एक ही खांचे में जा पड़ना ही विजेता तय करता है. लालचभरी महत्वाकांक्षा के शोर-शराबे में पंथ निरपेक्षता की आवाज डूब चुकी है. यहां तक कि राष्ट्रीयता तथा उदारवादिता के ध्रुवीकरण में भी दरारें दिख रही हैं. महाराष्ट्र के मनमौजियों ने यह प्रदर्शित कर दिया कि केवल सत्ता ही वह योजक शक्ति है, जो परस्पर विरोधी विचारधाराओं और अहं को जोड़ सकती है. असंभावना ही अब एकमात्र संभावना बन चुकी है.
कट्टर हिंदुत्व की प्रबल पैरोकार शिवसेना भाजपा के साथ अपनी 30-वर्षीय साझीदारी को तिलांजलि देकर वैसे जिस किसी का भी साथ स्वीकार करने को राजी है, जो भारत के इस सर्वाधिक समृद्ध राज्य के मुख्यमंत्रित्व के लिए उसके दावे को अपना समर्थन दे सके.
दो सुसंगत विचारधाराओं की सियासी शादी अंततः सत्तासुखी साथियों के बीच सिर्फ एक ‘लिव इन’ संबंध ही साबित हो सकी. भारतीय चुनावी मैरेज ब्यूरो के मंच पर विवाह और तलाक होते ही रहते हैं. वर्ष 1977 में वैचारिक रूप से विरोधी पार्टियां इंदिरा गांधी की पराजय पक्की करने हेतु मिल गयीं. आरएसएस समर्थित जनसंघ ने अपनी पहचान भुलाकर जनता दल के उसी समंदर में स्वयं का विलय कर दिया, जिसकी शरण मोराजी देसाई, चंद्रशेखर एवं जगजीवन राम जैसे कांग्रेसियों ने भी गही. वैचारिक विरोधों के इसी संघर्ष ने जनता दल का पराभव सुनिश्चित किया. अचानक ही समाजवादियों का भगवा विरोध जाग उठा और उन्हें संघ से शुद्धीकरण जरूरी लगने लगा.
जब जनता दल का महल ढहा, तो जिन चरण सिंह ने इंदिरा गांधी को जेल भेजा था, उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से ही सरकार बना डाली. चार ही माह बाद, इंदिरा गांधी ने अपना समर्थन वापस लेकर दो-तिहाई बहुमत से वापसी कर ली. अगले नौ वर्षों के लिए गांधियों ने राष्ट्रीय राजनीति पर अपना दबदबा बनाये रखा. पर राजीव गांधी के अनगढ़ सियासी कौशल के कारण वीपी सिंह, अरुण नेहरू एवं आरिफ मुहम्मद खान जैसे प्रमुख कांग्रेसी नाराज हो उठे. उसके बाद के दशक सुविधाओं के, न कि सिद्धांतों के, गठबंधनों के गवाह हुए.
वर्ष 1989 में वीपी सिंह देश की बहुदलीय सरकार के मुखिया बने. यह एक सैद्धांतिक खिचड़ी थी, जिसमें टीडीपी, डीएमके तथा एजीपी जैसे क्षेत्रीय तत्वों की छौंक तो पड़ी ही थी, वामपंथियों एवं भाजपा का वरक भी लगा था.
यह एक साल भी न चल सकी. राजीव गांधी ने चंद्रशेखर की महत्वाकांक्षा को भुनाकर उन्हें जनता दल से बाहर लाया तथा बीजू पटनायक, देवी लाल और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे कट्टर कांग्रेस विरोधियों ने वीपी सिंह का साथ छोड़ कांग्रेस की बैसाखी पर चलना स्वीकार किया. चंद्रशेखर सरकार पांच माह भी पूरे न कर सकी. उसके बाद के चुनाव ने राजीव गांधी की बलि लेकर पीवी नरसिंह राव की अल्पमतीय सरकार को पांच वर्षों तक बनाये रखा.
वर्ष 1996 ने राव की राजनीति को कमजोर कर देश को उसकी पहली त्रिशंकु संसद दी. एक बार फिर, सभी विपक्षी पार्टियां संसद की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सत्ता से बाहर रखने को साथ हो लीं. देवेगौड़ा नीत संयुक्त मोर्चे ने चुनाव-पश्चात का गठबंधन बनाया, जिसमें जनता दल, डीएमके, टीएमसी, एजीपी, एसपी, सीपीआइ एवं कुछ अन्य पार्टियां शामिल थी, जबकि सीपीएम तथा कांग्रेस पार्टी बाहर से समर्थन दे रही थीं. इस अवसरवादिता के औचित्य के लिए एक सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम भी बना.
पर चूंकि देवेगौड़ा तथा कांग्रेस पुराने प्रतिद्वंद्वी थे, इसलिए यह संबंध टूट गया. कांग्रेस ने देवेगौड़ा के उत्तराधिकारी के रूप में आइके गुजराल को आगे किया. मगर राजीव गांधी की हत्या का अन्वेषण करनेवाले जैन आयोग ने जब द्रविड़ पार्टियों पर उंगली उठायी, तो गुजराल ने डीएमके मंत्रियों की रक्षा करते हुए इस्तीफा देना बेहतर समझा. चौबीस माह के अंदर डीएमके एक विश्वस्त मित्र से घातक शत्रु बन चुका था. चंद्रशेखर को कांग्रेस के समर्थन की पूर्वशर्त भी यही थी कि तमिलनाडु में डीएमके सरकार बर्खास्त होनी चाहिए.
वर्ष 1998 में संयुक्त मोर्चे की सरकार के पतन के पश्चात एक अन्य गठबंधन ने जन्म लिया. संसद में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा ने 13 सियासी संगठनों के सहयोग से कुल 240 सांसदों का समर्थन जुटाया, जिनमें कई परस्पर विरोधी विचारधाराओं से आते थे. मगर जब अटल बिहारी वाजपेयी ने एआइएडीएम के के कहने पर तमिलनाडु में डीएमके सरकार को बर्खास्त करने से इनकार कर दिया, तो एआइएडीएमके ने उनकी सरकार गिरा दी. वर्ष 1999 में देश ने एक बार फिर त्रिशंकु संसद के लिए वोट दिया. भारतीय इतिहास में 23 दलों के सबसे बड़े गठबंधन के समर्थन से वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने. सरकार अपने पूरे कार्यकाल तक चली, मगर जब चुनाव निकट आये, तो टीडीपी एवं डीएमके इस गठबंधन से अलग हो गये.
वर्ष 2004 में अपनी वापसी को लेकर आत्मविश्वास से भरी भाजपा कई क्षेत्रीय साझीदारों को छोड़ मात खा गयी. अंततः सोनिया गांधी ने एक गठबंधन का प्रस्ताव किया, जिसमें डीएमके, एआइएमआइएम, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राजद, टीआरएस के अलावा अन्य कई पार्टियां शामिल थीं. सोनिया के नेतृत्व में ही इन पार्टियों ने अगले एक दशक में दो सरकारें चलायीं. तभी मोदी ने भाजपा का नेतृत्व संभाल उसे अपने दम पर पहला बहुमत दिलाया. साल 2019 में 300 से ज्यादा सीटें जीत मोदी ने इतिहास रच दिया और वे भारत के निर्विवाद राष्ट्रीय नेता बने रहे.
मगर अब उनका यह वोट भंडार कुछ खिसकता लगता है. कई राज्यों में भाजपा अपनी जीत को दोहरा पाने में असमर्थ रही. पिछले वर्ष मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसके हाथ से निकल गये. गुजरात में वह बस किसी तरह बहुमत में आ सकी, जबकि कर्नाटक में वह सरकार नहीं बना सकी. इस वर्ष महाराष्ट्र और हरियाणा उसके लिए नये वॉटरलू सिद्ध हुए.
शिवसेना तथा जेजेपी क्षेत्रीय दलों के पुनरोदय का संकेत करते हैं. अपनी सांस्कृतिक एवं सियासी विविधता से जीवंत विशाल भारत केवल एक विकेंद्रित लोकतंत्र द्वारा ही ठीक से प्रबंधित किया जा सकता है. अगले वर्ष दिल्ली तथा झारखंड में होते चुनावों के साथ ही लोकतंत्र ने योद्धाओं को चुनौती दी है. एक लचीले राजनेता के रूप में मोदी के लिए यही वक्त है कि वे भविष्य की समावेशिता को सीने से लगा संघवाद के शत्रुओं को पराजित कर दें.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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