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वैचारिक टकराव के दौर में देश

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com नौ जनवरी (गुरुवार) को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को संवैधानिक घोषित करने के लिए दायर याचिका पर शीघ्र सुनवाई से इनकार करते हुए यह कहा कि देश में बहुत अधिक हिंसा हो रही है और देश कठिन दौर से गुजर रहा है. दो […]

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रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

ravibhushan1408@gmail.com

नौ जनवरी (गुरुवार) को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को संवैधानिक घोषित करने के लिए दायर याचिका पर शीघ्र सुनवाई से इनकार करते हुए यह कहा कि देश में बहुत अधिक हिंसा हो रही है और देश कठिन दौर से गुजर रहा है.

दो वर्ष पहले (12 जनवरी, 2018) सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों (जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ) ने सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करके चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर आरोप लगाते हुए यह कहा था कि ‘अगर हमने देश के सामने ये बातें नहीं रखी और हम नहीं बोले, तो लोकतंत्र खत्म हो जायेगा.’ बाद में इनमें से एक जज जस्टिस रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने. बारह जनवरी, 2018 के बाद भारतीय लोकतंत्र आज किस अवस्था में है, यह इसलिए भी अधिक विचारणीय है कि आज देश में अधिक हिंसा हो रही है.

हिंसा के कारणों और देश के कठिन दौर से गुजरने के कारणों पर आज अधिक विचार करने की जरूरत है. रोग का इलाज बिना उसके कारणों की जांच के संभव नहीं है. प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने इस पर आश्चर्य प्रकट किया कि ‘पहली बार कोई किसी कानून को संवैधानिक घोषित करने का अनुरोध कर रहा है.’ पुनीत कौर ढाड़ा की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह कहा गया कि ‘ऐसी याचिकाएं शांति लाने में मददगार नहीं होंगी.’ सुप्रीम कोर्ट में सीएए पर 60 से अधिक याचिकाएं दायर की गयी हैं.

एक वकील सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन कानून को संवैधानिक घोषित किये जाने की मांग कर रही हैं और दूसरी ओर चार जून, 2012 से 30 दिसंबर, 2018 तक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे जस्टिस मदन लोकुर ने परंजय गुहा ठाकुरता द्वारा की गयी एक एक्सक्लूसिव बातचीत में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट इस कानून को ‘असंवैधानिक’ घोषित कर सकता है.

देश फिलहाल दो भागों में बंट रहा है. एक और सरकार के, भाजपा के, मोदी-शाह के और संघ परिवार के समर्थक लोग हैं, तो दूसरी ओर उनके विरोधी लोग हैं.

इन दोनों तबकों में एक बड़ी संवादहीनता है. संवादहीन लोकतंत्र किसी भी दृष्टि से किसी को स्वीकार्य नहीं हो सकता. इससे अधिनायकवाद जन्म लेता है. संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए देश के प्राय: प्रत्येक हिस्से में प्रदर्शन हो रहे हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को भी स्वीकारा नहीं जा रहा है. आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा बड़ा देश है. करीब 130-35 करोड़ जनता सदैव खामोश नहीं रह सकती. उग्र प्रदर्शन और शांतिपूर्ण प्रदर्शन में अंतर है. शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर रोक लगाकर शांति बहाल नहीं की जा सकती. जेएनयू में नकाबपोश गुंडों की शिनाख्त नहीं हुई है. यह सब जानते हैं कि सही खबरें कम प्रकाशित-प्रसारित हो रही हैं.

ऐसे विकट समय में प्रत्येक नागरिक, पत्रकार, संपादक, कवि, लेखक, बौद्धिक की यह नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि वे शांति कायम करने का प्रयत्न करें. पुलिस ने सदैव शांति कायम नहीं की है. उसके संरक्षण में कुछ लोग शांत प्रदर्शनकारियों के सर फोड़ते हैं. यह समझ गलत है कि सरकार ठीक है और प्रदर्शनकारी गलत हैं, लोकतंत्र विरोधी और राष्ट्र विरोधी हैं.

शांति कायम करना सरकार के हाथ में है, क्योंकि उसके पास पुलिस बल है. पुलिस की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं. दिल्ली पुलिस ने पिछले दिनों अपनी साख गंवायी है. सरकार सबको खामोश नहीं कर सकती. प्रश्न मौलिक अधिकार का है. अभी सुप्रीम कोर्ट ने अपने 103 पेज के फैसले में संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इंटरनेट के इस्तेमाल को मौलिक अधिकार घोषित किया है.

सुप्रीम कोर्ट कहता है कि लोगों को असहमति जताने का पूरा अधिकार है, पर असहमति प्रकट करनेवालों को राष्ट्रद्रोही, अर्बन नक्सल आदि कहना एक फैशन बन गया है. देश को कठिन दौर से निकालने में मीडिया और न्यायपालिका की विशेष भूमिका होती है. लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का इन दोनों पर बड़ा दायित्व है. असहमति, विरोध और प्रदर्शन का एक स्वस्थ लोकतंत्र सदैव सम्मान करता है.

पांच जनवरी को जेएनयू में नकाबपोशों की गुंडागर्दी सामान्य घटना नहीं है. यह इसका प्रमाण है कि देश सामान्य स्थिति में नहीं है. वर्तमान कुलपति के आगमन और 2014 के पहले जेएनयू की यह दशा नहीं थी.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एनवी रमण ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि ‘बोलने की आजादी को दबाने के लिए धारा 144 लगाना सत्ता का दुरुपयोग है.’ उन्होंने चार्ल्स डिकेंस (7 फरवरी, 1812 – 9 जून, 1870) के उपन्यास ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज’ की ऐतिहासिक पंक्तियां भी उद्धृत कीं- ‘यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे बुरा समय था. यह बुद्धि का युग था, मूर्खता का युग भी था. यह विश्वास और अविश्वास का युग था, प्रकाश और अंधकार का मौसम था.

हमारे सामने सब कुछ था, हमारे सामने कुछ भी नहीं था. हम स्वर्ग जा रहे थे, हम सभी दूसरे रास्ते से सीधे जा रहे थे.’ हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि शासक इतिहास में गुम हो जाते हैं और लेखक-बुद्धिजीवी सदैव जीवित रहते हैं. बुरे और अच्छे में, बुद्धि और मूर्खता में, प्रकाश और अंधकार में, सत्य और झूठ में, सदैव अच्छाई की बुद्धि, प्रकाश और सत्य की ही जीत होती है. कठिन दौर अधिक समय तक बना नहीं रहता.

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