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आत्ममंथन का समय है यह

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हम झुग्गियों को वैसी जगहों से हटाना चाहते हैं, जो संभवत: रहने लायक जगहें हैं और उन्हें कहीं और 20-30 मील दूर ले जाना चाहते हैं, जहां लोगों के काम करने की जगहें अलग हो जाती हैं.

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रतन टाटा

चेयरमैन, एमेरिटस, टाटा ग्रुप

delhi@prabhatkhabar.in

मैं हमेशा से आर्किटेक्ट बनना चाहता था. मेरे पिताजी मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे. मैंने दो साल इंजीनियरिंग कॉलेज में बिताया भी था. इसके बाद लॉस-एंजिलिस में एक आर्किटेक्चर ऑफिस में दो साल काम भी किया, पर उसके बाद इससे मेरा नाता टूट गया. लेकिन आर्किटेक्चर में जो संवेदनशीलता और मानवतावाद है, उससे मैं प्रेरणा लेता रहा हूं. आज जब हम सस्ते आवास और झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने की बात करते हैं, तो हम दो परस्पर विरोधी मसलों को सामने पाते हैं. हम झुग्गियों को वैसी जगहों से हटाना चाहते हैं, जो संभवत: रहने लायक जगहें हैं और उन्हें कहीं और 20-30 मील दूर ले जाना चाहते हैं, जहां लोगों के काम करने की जगहें अलग हो जाती हैं.

झुग्गियों की जगह महंगी आवासीय कॉलोनियां बना दी जाती हैं. झुग्गियां अवशिष्ट हो जाती हैं और उनकी जगह बहुमंजिला झुग्गियां बना दी जाती हैं, जहां स्वच्छता कम होती है और खुली जगहें नहीं होतीं. मेरे विचार से कोरोना वायरस संक्रमण के मामले में यह हुआ है कि रहने की जैसी व्यवस्थाएं बनायी गयी हैं, उनसे नयी समस्याएं पैदा हो गयी हैं. पिछले कुछ महीने से यह इंगित हो रहा है कि इस तरह बिना साफ हवा-पानी और खुली जगह के बहुत नजदीक रहने से तथा काम की जगहों से रहने की जगहें दूर होने से मुश्किलें पैदा हो रही हैं.हमने इस तरह की व्यवस्था की है और इस पर हमें शर्मिंदा होना चाहिए. एक तरफ हम अपनी खास छवि दिखाना चाहते हैं, तो दूसरी तरफ बहुत कुछ छुपा लेना चाहते हैं. जब कोई इस कमी की ओर संकेत करता है, तो हमें खराब लगता है. आर्किटेक्ट के रूप में, आवासीय परियोजनाओं के बनानेवाले के रूप में हमारी एक सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि हम कुछ ऐसा करें, जिसके लिए हमें शर्मसार न होना पड़े.

हमें उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए, जो एक-दूसरे के ऊपर रहकर जीने को मजबूर हैं और जिन्हें ताजा हवा हासिल नहीं है. हम भ्रष्टाचार और धौंस से जी रहे हैं तथा इससे संतुष्ट हैं. हम आर्किटेक्ट और डेवलपर लोगों के लिए कोरोना महामारी जाग जाने की एक घंटी है कि हम कहां हैं और क्या कर रहे हैं.मेरे विचार में अब समय आ गया है कि हम जीवन की गुणवत्ता के बारे में अपनी समझ की समीक्षा करें. हमें उन जगहों के बारे में सोचना होगा, जहां झुग्गियां बसायी जा रही हैं. मैं फिर कहूंगा कि झुग्गियां को हम अवशिष्ट मानते हैं. यह इसी तरह है कि हम कचरे को एक जगह जमा कर दें और इसे एक समुदाय का नाम दे दें. उसे शहर से कहीं दूर बसा दें और उन लोगों के गुजर-बसर को बहुत मुश्किल बना दें. उन जगहों को ठगों के हवाले कर दें. इसलिए यह समझने का समय है कि हम एक मानव समुदाय के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जो हमारी आबादी का एक हिस्सा है और जो नये भारत का हिस्सा होना चाहता है. आर्किटेक्ट और डेवलपर के रूप में हम इस मसले से अपनी नजरें चुरा रहे हैं.

हम ऐसे समुदाय बना रहे हैं, जिनके लिए हमें शर्मिंदा होना चाहिए. हम अगर सस्ते आवास भी बना रहे हैं, तो वे अच्छे होने चाहिए और उस पर हमें गर्व करना चाहिए. इन सारी बातों की शुरुआत होनी चाहिए. जहां तक घर से काम करने की मौजूदा स्थिति और इससे जुड़े शहरी बनावट की बात है, इस पर मेरे लिए कुछ कहना मुश्किल है. मुझे लगता है कि हमें हर जगह और हर स्तर पर जीवन की गुणवत्ता के मसले पर चिंता करनी चाहिए. हम ऐसा नहीं सोच सकते हैं कि यह उनकी समस्या है, हमारी नहीं. हमें अपने आप से यह पूछना चाहिए कि जो कुछ हम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं, उस पर हम शर्मिंदा हैं या उस पर हमें गौरव की अनुभूति होती है! क्या हम लोगों को वह सब कुछ दे रहे हैं, जिसकी उन्हें जरूरत है या हम उन्हें वही चीजें दे रहे हैं, जो कि हम उन्हें देना चाहते हैं? हमें पूरे शहर के सभी बाशिंदों को एक समुदाय के रूप में देखने की जरूरत है.

ऐसा नहीं होना चाहिए कि सुबह-शाम एक व्यक्ति सफेद कमीज और टाई लगाकर हमारी ऑफिस संस्कृति का हिस्सा है और एक भूमिका निभा रहा है, वह वापस फिर वह एक ऐसी जगह जाता है, जिसे लेकर हम शर्म महसूस करते हैं. हमें इससे उबरना होगा. हमें झुग्गियों में किराये पर रहने की मजबूरी की जगह उसका मालिकाना हक देने की संभावनाओं पर विचार करना चाहिए ताकि उसे अपने पास कुछ होने का एहसास हो सके. मुझे किसी सवाल का निश्चित जवाब देने में दिक्कत है, सिवाये इसके कि जो मैं दिल में महसूस कर रहा हूं. हमें अपने-आप पर शर्मिंदा होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं, हमें ऐसी चीजें करने पर विचार करना चाहिए, जिन पर हम गर्व कर सकें.

हम जो बदलाव करें, वह वास्तविक हो, झूठा नहीं.बीते कुछ महीनों से जो कुछ भी हो रहा है, वह हमें जगाने की एक घंटी है या इसे ऐसा होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं और क्या नहीं कर रहे हैं, वे क्या मसले हैं, जिनकी हम ठीक से चिंता नहीं कर पा रहे हैं या जिन्हें हमने अपने चारों ओर कालीन के नीचे दबा दिया है. मैं कहूंगा कि बीते महीनों में एक समुदाय के रूप में हम नरम हुए हैं, हम यह जानकर नरम हुए हैं कि एक रोग पूरे विश्व में फैलकर हमारे रहन-सहन के तौर-तरीकों, हम क्या करते हैं, जीने के तरीके, आपसी संबंधों, विवादों आदि जैसे पहलुओं को बदल कर रख सकता है तथा बचने-बचाने के लिए हमें अलग-थलग रहने पर मजबूर कर सकता है.

यह समय है कि एक जैसी सोच रखनेवाले कुछ लोग बैठें, अपनी आत्मा आलोचना करें, जो हम बहुत समय से नहीं कर रहे हैं. ऐसा इसलिए कि और भी कई आपदाएं हमारे सामने आ सकती हैं, जिनके लिए हमें तैयार रहना चाहिए और आगे की राह के बारे में सोच-विचार करना चाहिए. हमें लोगों को अपनी सृजनात्मकता में हिस्सेदार बनाना चाहिए, न कि वही देते रहना चाहिए, जो हम देते रहे हैं.(‘कॉर्पजिनी’ द्वारा इंटरनेट पर आयोजित वर्चुअल पैनल डिस्कशन ‘फ्यूचर ऑफ डिजाइन एंड कंस्ट्रक्शन’ में रतन टाटा के बयानों का संपादित और अनुदित अंश. साभार.)

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