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गांधी की राह पर फिर से चलना होगा

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कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के बीच अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उपाय की तलाश ने नीति-निर्माताओं के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें खींच दी है. उत्पाद, उत्पादन और बाजार के विकास की संभावनाओं के बीच शहरों से गांव की ओर बढ़ रहे बेरोजगार मजदूरों की भीड़ को काम देना भी बड़ी चुनौती है.

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अशोक भगत

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सचिव, विकासभारती

vikashbharti1983@gmail.com

कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के बीच अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उपाय की तलाश ने नीति-निर्माताओं के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें खींच दी है. उत्पाद, उत्पादन और बाजार के विकास की संभावनाओं के बीच शहरों से गांव की ओर बढ़ रहे बेरोजगार मजदूरों की भीड़ को काम देना भी बड़ी चुनौती है. ऐसी अवस्था में हमें मुख्यधारा के बौद्धिक जगत में स्थापित हो चुकी मान्यताओं और समाधानों की जगह लीक से हटकर सोचने की जरूरत है, क्योंकि यह विश्वव्यापी संकट अब तक की सभी विपदाओं से अलग है.

दशकों से आदिवासी गांवों में रहकर रोजमर्रा की जरूरतों का समाधान खोजने के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि अर्थव्यवस्था के वैश्विक चक्र के साथ ही अब हमें स्थानीय स्तर के अर्थचक्र को वैकल्पिक समाधान के रूप में अपनाना होगा. उत्पादन, बिक्री, बाजार और रोजगार के नेटवर्क को बरकरार रखते हुए हमें उन संभावनाओं पर भी गौर करने की जरूरत है, जो इन सबसे परे हैं. गांवों, विशेषकर आदिवासी गांवों, में बहुत से ऐसे उत्पाद भी निर्मित किये जाते हैं, जिनका न तो कोई बाजार है और न ही बड़े पैमाने पर उनकी बिक्री हो पाती है.

वे स्थानीय उपयोगिताओं पर निर्भर होते हैं और उत्पादन के साथ ही स्थानीय खपत की सटीक गांरटी लिये होते हैं. इससे बड़ी आबादी के जीवन का निर्वाह भी होता रहता है. ये उत्पाद बाजार की संभावनाओं को भी व्यापक करते हैं. आज भी ये करोड़ों लोगों की जीविका का आधार हैं. प्राकृतिक चिकित्सा भी ऐसा ही विकल्प है, जो जेब पर बोझ बढ़ाये बिना जीवन की आशा बढ़ा देता है. अर्थव्यवस्था का ग्राफ चढ़ने और उनके गोते लगाने से भी इनका बहुत रिश्ता नहीं है. हमें संकट की इस घड़ी में अर्थव्यवस्था के इस देसी आधार को सहारे के रूप में अपनाने की जरूरत है. नीति आयोग से लेकर राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं तक को इस बारे में सोचना चाहिए.

शहरों से गांवों की ओर बढ़ रहे प्रवासी मजदूरों को कुछ दिनों के आराम के बाद फिर से शहरों में रोजगार की तलाश में जाने के लिए मजबूर करना न्यायसंगत नहीं होगा. उनके कौशल के आधार पर स्थानीय स्तर पर ही रोजगार और विकास के साधन मुहैया कराना उचित रहेगा. मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था की परिधि पर वैकल्पिक अर्थरचना के निर्माण में इनकी सहायता ली जा सकती है. गांव को अर्थव्यवस्था की धुरी बनाकर ये लोग क्रयशक्ति बढ़ा सकते हैं. फिर इसी विकास के जरिये महानगरों या बड़े शहरों के औद्योगिक केंद्रों के लिए बाजार को व्यापक आधार दे सकते हैं.

दशकों पहले असुविधाओं के भंवर में फंसकर पलायन करनेवाले लोगों को अपने गांव में कोई आर्थिक संरचना शुरू करने में अब मामूली दिक्कत ही आयेगी, क्योंकि आज गांव भी सड़कों से ठीक से जुड़ गये हैं. लगभग हर गांव में बिजली है. हां, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई को पाटना अभी बाकी है. इसलिए गांव आधारित वैकल्पिक आर्थिक पुनर्रचना की रणनीति अर्थव्यवस्था को भी हमेशा के लिए संजीवनी दे सकती है. कृषि की बेहतरी और इजरायल की तरह कृषि आधारित उद्योगों के जरिये बेहतर भविष्य का निर्माण भी इसी में निहित है. हमारे उद्योगपतियों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए और शहरों की जगह गांवों में उद्योग लगाने को प्राथमिकता देनी चाहिए.

प्रखंड स्तर पर सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क की स्थापना से सूचना तकनीक के समावेशीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है. प्रधानमंत्री आवास योजना में तेजी लाकर भी शहर से गांव की ओर बढ़ रहे मजदूरों के हुजूम को रोजगार दिया जा सकता है. श्रम आधारित उद्योगों के विकास के अतिरिक्त सिंचाई के साधनों को बढ़ावा देकर भी रोजगार के नये अवसर पैदा किये जा सकते हैं. हमें गांवों के स्तर पर अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सहकारीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से पूंजी जुटाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए. अनेक उपक्रमों की जिम्मेदारी मजदूरों की सहकारी सहयोग समितियों को सौंपी जा सकती है. गांव को अर्थव्यवस्था की धुरी बनाने का शंखनाद तो महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के वैकल्पिक हथियार के तौर पर पहले ही कर दिया था.

आजादी के बाद उनके प्रिय शिष्य और विख्यात अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा ने भारत का सघन दौरा कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक रणनीति के रूप में अपनाने का सैद्धांतिक अधिष्ठान किया. तोप के मुकाबले चरखे का हथियार गांव को आर्थिक केंद्र बनाने का ही अस्त्र था. संकट के इस काल में दुनियाभर में समाधान के नये-नये रास्ते सुझाये जा रहे हैं. विकास और समृद्धि की संभावनाओं से ग्रहण हटाने के लिए भारत में समांतर नीतियों की पैरोकारी हो रही है. ऐसी अवस्था में हम क्यों न काल की कसौटी पर बार-बार खरे उतर चुके गांधी की राह पर फिर से चलकर अपनी अर्थव्यवस्था को जीवनी शक्ति प्रदान करें. हमारी वन संपदा, हमारे प्राकृतिक संसाधन, पीढ़ियों से चले आ रहे हुनर, देसी की चाहत, स्थानीय की जरूरत और घर-घर की खपत इसका आधार बनेगी. हमारी छिपी संभवानाएं उभरेंगी और विकेंद्रीकरण के सपनों के बीच बाजार के आंकड़ों का ग्राफ भी उड़ान भरेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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