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कोरोना संक्रमण काल में विज्ञान

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कुछ अर्थों में, आधुनिक विज्ञान के अंह का दंश झेल रहे पूरे विश्व को वर्तमान संकट में विज्ञान की सीमितता के बखूबी दर्शन हुए. ऐसे समय में विज्ञान की ज्ञान परंपरा के पुनःमूल्यांकन की बात भी हो रही है.

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शशांक चतुर्वेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना केंद्र

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shashank.chaturvedi@tiss.edu

कोरोना संक्रमण काल में आधुनिक ज्ञान परंपरा की धुरी विज्ञान, कुछ हद तक अस्थिर हो गया है. ऐसा नहीं है कि आधुनिक विज्ञान को इस प्रकार की अस्थिरता का सामना पहली बार करना पड़ रहा है. 19वीं सदी के अंत में कला, साहित्य और ज्ञान सृजन के क्षेत्र में स्वछंदतावाद (रोमांटिसिज्म) इसका एक उदाहरण है. 15वीं और 16वीं शताब्दी से लगातार ही आधुनिक ज्ञान के विमर्श को विभिन्न दृष्टिकोणों से कटघरे में खड़ा किया गया है. यूरोप में नवजागरण ने जहां इस ज्ञान परंपरा को रिलिजन की परिधि से दूर ले जाकर एकयांत्रिकी, एकरेखीय दिशा में खड़ा किया, वहीं इससे उपजे समाज विज्ञान ने तर्क केंद्रित विज्ञान को सार्वजनिक जीवन के केंद्र में स्थापित किया. राष्ट्र-राज्य परिकल्पना में विज्ञान की निश्चित भागीदारी तय की गयी. विकास के राज्यपोषित स्वप्न से विज्ञान का संबंध, वैचारिक प्रतिबद्धताओं से परे, एक अनिवार्य शर्त माना गया.

यह मानववाद का चरम बिंदु ही था, जब इस वैज्ञानिक विकास को व्यक्ति की स्वतंत्रता, अधिकार और समानता से लक्षित किया गया. जॉन ग्रे अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘स्ट्रॉडॉग्स’ में इसे बखूबी स्थापित करते हैं, ‘आधुनिक विज्ञान का जो स्वरुप हमारे सामने आया, वह मोटे तौर पर यूरोपीय ईसाई धर्म के एक हिस्से के मूल सिद्धांतों का ही नवीन संस्करण था.’ संक्रमण काल के इस चुनौतीपूर्ण दौर में दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का मुखिया फिनायल के इंजेक्शन से और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधान सेवक ने लाॅकडाउन से वायरस के प्रसार पर रोक लगाने की अनूठी पहल की.

सभी खबरिया चैनल और सोशल मीडिया के माध्यम, विज्ञान का लैब प्रतीत हो रहे हैं. वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर हमें सुझाया गया कि मास्क सिर्फ उनके लिए आवश्यक है , जो संक्रमित है. फिर जल्द ही यह स्थापित किया गया कि यह सभी के लिए अनिवार्य है. यहां से बहस ने एक नयी दिशा पकड़ी कि किस प्रकार का मास्क वायरस को नाक में दम करने से रोक सकेगा. एन95 से गमछे तक का वैज्ञानिक अन्वेषण और निष्कर्ष हमने कुछ एक सप्ताह में तय कर लिया. सोशल डिस्टेंसिंग पर भी लंबी बहस जारी है कि कितने गज की दूरी हमें कोरोना से दूर रखेगी.

इतना ही नहीं, विज्ञान से उपजे ज्ञान ने हमें समझाया कि सैनिटाइजर ही वह अचूक बाण है जिससे हम कोरोना को अंगूठा दिखा सकते हैं. अभी लोगों ने इसे बाजार से खरीदा ही था कि साबुन और पानी से हाथ धोने को वैज्ञानिकों ने सर्वोत्तम घोषित कर दिया. क्या कोरोना हवा से भी फैल सकता है या जिसे एक बार संक्रमण हो गया, उसे दोबारा संक्रमित होने का कितना खतरा है, इस पर भी जानकारी की भरमार है. परंतु, असमंजस भी उतना ही है. बायोकेमिस्ट्री और माइक्रोबायोलॉजी अभी कोरोना संक्रमण के विज्ञान की कई परतों को खोल पाने में असफल साबित हुए हैं. इससे विचलित बहुत से वैज्ञानिक अब इन विधाओं को पुनर्प्रतिपादित करने की बात कर रहे हैं. कुछ अर्थों में, आधुनिक विज्ञान के अंह का दंश झेल रहे पूरे विश्व को वर्तमान संकट में विज्ञान की सीमितता के बखूबी दर्शन हुए. ऐसे समय में विज्ञान की ज्ञान परंपरा के पुनःमूल्यांकन की बात भी हो रही है.

हाल ही में, हॉवर्ड मेडिकल स्कूल के विक्रम पटेल ने विज्ञान से उपजे ज्ञान की सीमा को रेखांकित करते हुए कहा, ‘आधुनिकता के साथ आये इस दंभ कि हम सब कुछ जानते हैं, इसलिए सबकुछ नियंत्रित कर सकते हैं, से आगे जाकर कुछ स्थापित वैज्ञानिक अब विज्ञान की सीमितता को स्वीकार करने, उसे पुनर्परिभाषित करने तथा मानवीय विमर्श में ‘हम सब कुछ नहीं जान सकते’ को पुनर्स्थापित करने पर जोर देने लगे हैं. विख्यात पर्यावरणविद, अनुपम मिश्र ने आधुनिक ज्ञान परंपरा के आंतरिक संकट को रेखांकित करते हुए कहा था, ‘पिछले दो सौ बरसों में नये किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने सदियों से अर्जित पारंपरिक ज्ञान-विमर्शों को शून्य ही बना दिया है.’ आधुनिक विज्ञान के संकट का दूसरा आयाम सामाजिक न्याय से सीधा जुड़ता है.

एक लंबे समय से देश और पूरे विश्व में सामाजिक न्याय की लड़ाई मानवीय तर्क, बुद्धि और चेतना की कसौटी पर कसी गयी. इस क्रम में हम प्रकृति से अंतरंग सामंजस्य स्थापित करने में पूर्णतः असफल सिद्ध हुए हैं. ब्रूनो लातूर, एक्टर-नेटवर्क सिद्धांत के माध्यम से शायद यही दर्शाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि भविष्य में और शायद अब वर्तमान में ही, किसी भी विमर्श को मानव केंद्रित न करके सभी प्रकार के जीव और अजीव कारकों को संज्ञान में लेना होगा. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी’, के सामाजिक न्याय से कुछ कदम और आगे जाकर हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि मनुष्य समेत पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उसकी गणना न्याय के सिद्धांत में अनिवार्य रूप से की जाये.

शायद यह सही समय है कि हम विनोबा के दिये दो मंत्रों को फिर से याद कर लें. पहला, अज्ञान भी एक प्रकार का ज्ञान है. विनोबा का इशारा आधुनिक चिंतन परंपरा में व्याप्त हठधर्मिता को रेखांकित करने और समर्पण भाव से ज्ञान अर्जित करने की तरफ है. दूसरा, ‘समाज की सभी संस्थाएं नारायण-परायण बनें’, हमें सामूहिक दायित्व का बोध कराता है. इन संस्थाओं को, चाहे वे राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या वैज्ञानिक हों, अपनी सीमितताओं को संज्ञान में लेना ही होगा. अतः इस क्रम में न सिर्फ विज्ञान बल्कि, सामाजिक विज्ञान को भी एक बार फिर से नये प्रयास करने होंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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