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गांधी की न्यासिता : पुनर्निर्माण की राह

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जो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संपत्ति एकत्र करता है, उसे अपनी पूर्ति के बाद, शेष संपत्ति का प्रबंध एक ट्रस्टी या न्यासी की तरह समाज कल्याण के लिए करना चाहिए़

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रवींद्र नाथ महतो, स्पीकर, झारखंड विधानसभा

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delhi@prabhatkhabar.in

महान लोगों की जयंतियां उन महापुरुषों की याद तो दिलाती ही हैं, समाज, राष्ट्र एवं देशवासियों के लिए आत्मावलोकन का अवसर भी प्रदान करती हैं कि जिन महापुरुषों को हम अपने नायकों के रूप में पूजते हैं, उनके दिखाये रास्ते पर चलने के लिए हम किस प्रकार प्रयासरत है़ं महात्मा गांधी न केवल आधुनिक भारत के राष्ट्र निर्माता थे, बल्कि ऐसे युगपुरुष भी थे, जिनके विचारों से मानव जीवन का कोई भी पक्ष अनछुआ नहीं रहा है़

गांधीजी के विचार एवं दर्शन इतने बहुआयामी हैं कि एक छोटे से लेख में उसकी चर्चा संभव नहीं है़ इसलिए, आज उनके ट्रस्टीशिप अथवा न्यासिता के विचार पर चर्चा करने का प्रयास किया है़ गांधीजी ने बेंथम की उपयोगितावाद एवं जाॅन रस्किन के विचारों को समावेशित कर इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया़ यद्यपि वे ईशोपनिषद् के प्रथम श्लोक को इसका आधार मानते थे़ जिसका अर्थ है, ‘इस जगत में जो भी जीवन है, वह ईश्वर का बनाया हुआ है़ इसलिए ईश्वर के नाम से त्याग करके तू यथा प्राप्त भोग किया कर. किसी के धन की वासना न कर.’ उनके अनुसार, जो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संपत्ति एकत्र करता है, उसे आवश्यकता पूर्ति के बाद, शेष संपत्ति का प्रबंध एक ट्रस्टी अथवा न्यासी की तरह समाज कल्याण के लिए करना चाहिए़

औद्योगिक क्रांति और यूरोपीय जागरण से मानव के दृष्टिकोण में आमूल-चूल परिवर्तन आया़ मानव जीवन के सभी पक्षों को दिशा-निर्देश देने वाली पारंपरिक विश्व दृष्टि का स्थान तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टि ने ले ली़ जैसे, पारंपरिक या जागरण पूर्व की विश्व दृष्टि में, धरती को जीवधारी के समान माना जाता था और मानव जीवन को इसी आधार पर नियोजित किया जाता था़ ऐसा करते हुए प्रकृति का सम्मान व उसकी आराधना भी की जाती थी़ उसके नियमों के साथ पूरे ताल-मेल से रहने का प्रयास किया जाता था़ लेकिन, जब भौतिक विज्ञान ने प्रकृति के नियमों को और सटीक तरीके से समझने में सक्षम बना दिया, तो मनुष्य के दृष्टिकोण में नाटकीय बदलाव आया़

अपने इस नव अर्जित ज्ञान के दंभ में मनुष्य ने प्रकृति को लेकर उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाया. धरती को महज एक विशाल मशीन और मनुष्य के उपभोग के भौतिक संसाधनों का भंडार माना जाने लगा़ विज्ञान और टेक्नोलाॅजी का सहारा ले प्रकृति पर हावी होकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास शुरू किया गया़ जीवन के अर्थ और उद्देश्य को नये सिरे से परिभाषित किया गया़ परिणामस्वरूप, धर्म और आध्यात्मिकता का स्थान भौतिकवाद ने ले लिया़ ज्ञान, जिसे परंपरागत रूप से जीवन का एक सहायक माध्यम माना जाता था, अब ताकत और आधिपत्य स्थापित करने का हथियार बन गया़ फ्रांसिस बेकन का यह कथन, ‘ज्ञान ही शक्ति है,’ मनुष्य के इसी दंभ को परिलक्षित करता है़

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एडवर्ड कार्पेटर, लियो टाॅलस्टाॅय जैसे बुद्धिजीवियों ने इस नयी सभ्यता की कड़ी आलोचना की़ गांधीजी इन विचारों से अपने विद्यार्थी जीवन से ही प्रभावित रहे एवं कालांतर में उन्होंने जो विश्व दृष्टि विकसित की, उसे अपनी पहली पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ या ‘इंडियन होम रूल’ में प्रतिपादित किया़ इसमें उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता की आलोचना की एवं हिंसा को इस बीमारी का मूल कारण माना़ उनका मानना था कि उपभोक्तावाद और हिंसा पर आधारित वर्तमान विश्व व्यवस्था मानव सभ्यता को विनाश की ओर ले जायेगी़ अतः विश्व को चिर स्थायित्व प्रदान करने के लिए अहिंसा, न्याय और शांति के सिद्धांतों पर आधारित एक वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा़

ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि सामान्यतः यह मान्यता है कि व्यवहार अथवा व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दो परस्पर भिन्न और विरोधी वस्तुएं है़ं यह मान्यता अगर झूठी न हो, तो कहना होगा कि हमारे भाग्य में केवल निराशा ही लिखी हुई है़ ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, ऐसा एक भी व्यवहार नहीं है, जिससे हम धर्म को दूर रख सके़ं ट्रस्टीशिप बुनियादी तौर पर, अहिंसा के विचार पर आधारित है़ अहिंसा की स्वाभाविक परिणति सत्याग्रह है़ गांधीजी से बार-बार यह सवाल पूछा गया कि ट्रस्टीशिप को कैसे हासिल किया जाये़

इस पर उनका कहना था कि समझा-बुझाकर और असहयोग के जरिये ट्रस्टीशिप को लाया जा सकता है़ उनसे पूछा गया कि अगर ट्रस्टी, ट्रस्टी की तरह व्यवहार करने में असफल रहता है, तो ऐसे में क्या राज्य का हस्तक्षेप करना उचित होगा? गांधीजी ने अपने उत्तर में राज्य द्वारा इस प्रयोजनार्थ न्यूनतम हिंसा के प्रयोग को उचित ठहराया़ निश्चित रूप से इस बात की सावधानी रखी जानी आवश्यक है कि राज्य का स्वरूप अगर दमनकारी हो, तो राज्य का हस्तक्षेप इस माॅडल को ‘राजकीय पूंजीवाद’ की ओर ले जायेगा़

महात्मा गांधी के इस सिद्धांत का उपयोग आचार्य विनोबा भावे ने आजादी के तुरंत बाद भू-दान आंदोलन में किया, जो काफी हद तक सफल भी रहा़ स्वयं गांधीजी ने इसका उपयोग 1918 में अहमदाबाद के कपड़ा मिलों के मिल मालिकों एवं मजदूरों के बीच हुए विवाद के समाधान के लिए किया़ ट्रस्टीशिप को लेकर गांधीजी की विचारधारा अक्तूबर, 1925 में ‘यंग इंडिया’ में ‘सात पापों की सूची’ नाम से प्रकाशित हुई़ इसमें गांधीजी ने मानव जीवन को जिन पापों से बचाने का मार्ग सुझाया था वे हैं, बिना मेहनत के संपत्ति, बिना अंतरात्मा के सुख, बिना विचारधारा के ज्ञान, बिना नैतिकता के व्यापार, बिना मानवता के विज्ञान, बिना त्याग के पूजा, और बिना सिद्धांत के राजनीति.

महात्मा गांधी की यह विश्व दृष्टि उच्चतम न्यायालय के पर्यावरण संबंधी विभिन्न निर्णयों में ‘सार्वजनिक न्यास के सिद्धांतों’ द्वारा प्रतिपादित की गयी है़ इसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि पूंजीपतियों द्वारा जिन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग विनिर्माण के कार्यों में किया जाता है, उनके वास्तविक मूल्यों की गणना प्रकृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए़

वर्तमान में, गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को कई बार क्रोनी कैपिटलिज्म को उचित ठहराने के लिए किया जाता है और इस सिद्धांत को काॅरपोरेट सोशल रिस्पाॅन्सबिलिटी से जोड़कर देखने का प्रयास किया जाता है़ नव पारंपरिक पूंजीवाद के इन प्रयासों से सावधान रहने की आवश्यकता है़ गांधीजी के ट्रस्टीशिप का सिद्धांत मात्र दया और करुणा पर आधारित नहीं था, यह मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के स्थान पर, स्वामी विवेकाननंद के सहयोगात्मक समाजवाद की स्थापना का प्रयास था़ आज महामारी ने जिस तरह मानव अस्तित्व के लिए चुनौती पेश की है, ऐसे में सह-अस्तित्व, शांति और भाईचारा का गांधीजी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत हमें नयी राह दिखाता है़

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