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कोरोना काल में समाज का चिंतन

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महामारी झेल रहे भारतीय समाज के जीवन का दोहरापन और आंतरिक विरोधाभास हमारे समय की चिंतन परंपरा के बिखरे स्वरूप का स्थानीय अनुवाद ही लगता है.

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शशांक चतुर्वेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना केंद्र

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shashank.chaturvedi@tiss.edu

प्रख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने अकाल के संदर्भ में कहा था कि इस तरह के संकट के आने से पहले अच्छे विचारों का अकाल आता है. कोरोना संकट काल ने शायद समाज के चिंतन में व्याप्त अकाल पर पर्याप्त रोशनी डाली है. इस रोशनी में समाज के भीतर का जो कुछ भी दिख रहा है वह बहुत आश्वस्त करनेवाला नहीं है. महामारी से जूझ रहे विश्व में नित्य नये प्रयोग हो रहे हैं.

हल्दी दूध, काढ़ा और च्यवनप्राश को अमृत औषधीय गुणों से भरपूर ‘दवा’ के रूप में परोसा जा रहा है. स्थानीय स्वघोषित आयुर्वेद के पंडितों से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक ने हमारे अंदर गहरे व्याप्त भय और व्यग्रता को भुनाने के लिए इन उत्पादों को बाजार में उतारा है. हर घर में सर्वसुलभ और सहज ही दादी-नानी से अगली पीढ़ी को हस्तांतरित होनेवाले सामूहिक ज्ञान परंपरा को बाजार के हाथों आसानी से सौंप हम भी निश्चिंत हो गये हैं.

दरअसल, महामारी झेल रहे भारतीय समाज के जीवन का दोहरापन और आंतरिक विरोधाभास हमारे समय की चिंतन परंपरा के बिखरे स्वरूप और उसके गहरे संकट के वैश्विक स्वरूप का स्थानीय अनुवाद ही लगता है. पिछले कुछ सौ वर्षों से स्थानीय प्राकृतिक और वैचारिक जलवायु में जन्मे विश्व की अनेक ज्ञान परंपराओं के प्रति आधुनिक संस्थाओं का संशय का भाव रहा है. दूसरी ओर, आयातित चिंतन परंपराओं से बिना संवाद के ही पूरे समाज की आत्मसमर्पण कर देने की उद्दात्त भावना मुखर रही है. इन सब का प्रतिफल ऐसे समाज का जन्म है जिसकी वैचारिकता में द्वंद्व और खोखलापन नग्न अवस्था में सामने खड़ा है.

कोरोना संक्रमण के मध्य व्यक्ति के भीतर चल रहे उहापोह को टटोलें, तो समाज में व्याप्त संकट की कई परतें उभरती हैं. उसकी एक परत मनोविज्ञान और धर्म के ज्ञान परंपराओं से सामंजस्य न बैठा पाने की है. भारत और उसके जैसे उपनिवेशवाद का दंश झेल चुके समाज के आंतरिक विरोधाभास की एक अन्य परत नयी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के मध्य ‘स्व’ को ज्ञान सृजनात्मकता की ओर नये सिरे से उन्मुख करने की है. महामारी के मध्य हम सब भय के उतावलेपन में ‘स्व’ के खंडित भाव से स्वयं को तलाशने की जद्दोजहद कर रहे हैं.

इस समाज का संघर्ष ऐसी चिंतन परंपरा से है, जिसे हम आधुनिक पश्चिम में औद्योगिक युग के उभार से जोड़ कर समझते हैं. वैश्विक फलक पर फैले पश्चिम आयातित आधुनिक उदारवादी चिंतन परंपरा के मूल में व्यक्तिवाद केंद्र में है. पश्चिम में मनुष्य की चेतना और उसकी सार्वभौमिकता के सर्वव्यापकता को आधार बनाकर एक खास तरह की चिंतन परंपरा और उस पर आधारित समाज की रूपरेखा तैयार हुई. इस चिंतन परंपरा की पृष्ठभूमि ही अर्थ क्षेत्र में पूंजीवाद, उदारवाद व समाजवाद, राजनीति क्षेत्र में लोकतंत्र और सामाजिक जीवन में व्यक्तिवाद आधारित परिवार व समाज की परिकल्पना को मूर्त रूप देना है.

हाल के वर्षों में, उत्तर उपनिवेश काल में वैश्विक स्तर पर इस चिंतन परंपरा का संकट गहरा होता गया है. समाज का यह संकट तब और गहरा जान पड़ता है जब वैचारिक संकट से जूझ रहे वैश्विक समाज में प्रत्युत्तर में जड़ता और मूढ़ता से परिपूर्ण विचार रखे जा रहे हों. आधुनिक समाज में मनुष्य के मुक्तिकामी होने की आकांक्षा उड़ान भरते ही सर्वसुलभ अस्मिताओं का ठौर तलाशने लगती है. दलित, स्त्री, मजदूर, आदिवासी आदि की अस्मिता का प्रश्न समाज की सामूहिक चेतना में अभी भी वह स्थान नहीं ले सका है जिसकी दरकार है.

ऐसा नहीं है कि इन सभी प्रश्नों पर पहले कोई विमर्श नहीं हुआ हो या विश्व पंचायत न बैठी हो. परंतु हाल के दशकों में ज्ञान सृजन के लिए रचनात्मक माहौल लगातार संकुचित हो रहे हैं. अखलाक अहान के शब्दों में कहें तो, ज्ञान की राजनीति में ‘सोच पर ऐसा पहरा बैठा हुआ है कि हम समाज को कुछ भी नया दे पाने में अक्षम सिद्ध हुए हैं.’ विभिन्न चिंतन परंपराओं के बीच संवाद की पहल होते ही वाद की दीवार इतनी ऊंची हो जाती है कि उसके परे जाना लगभग असंभव प्रतीत होता है.

महामारी के मध्य यदि समाज की विभिन्न चिंतन परंपराओं के बीच फिर से संवाद की स्थिति बनाने की पहल होती है, तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से उसे बहुत कुछ ग्रहण करने को मिलेगा. आंदोलन के मध्य सभी वाद और प्रतिवाद सहज संवाद की शैली में न सिर्फ वैचारिक आदान-प्रदान कर रहे थे, बल्कि त्रुटि सुधार के लिए प्रयत्नशील भी थे. हिंद स्वराज लिखने से पहले इंडिया हाउस, लंदन में गांधी-सावरकर संवाद हो या फिर देश में कांग्रेस के भीतर जाति और वर्ग पर तीखी बहस, सभी में एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा प्रकट होती है. गांधी के अपने ही समयकाल में टैगोर और नेहरू से कटु आलोचना की स्थिति भी पैदा होती है. लेकिन कभी भी संवादहीनता नहीं पनपती.

हैदराबाद विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के विद्वान रघुराम राजू का मानना है कि भारतीय चिंतन परंपराओं में विगत कुछ शताब्दियों में हुए बदलावों से उसका मूल स्वरूप लगभग खत्म हो चुका है, बस उसका कुछ अवशेष बचा है. इन खंडित अवशेषों को सहजने में सावधानी बरतनी होगी. उसे पुनर्स्थापित करने की बलात चेष्टा करने की बजाय हमें कुछ नया गढ़ने का प्रयत्न करते रहना होगा, जिसमें समाज के अंतिम व्यक्ति की मुक्ति को अनिवार्य शर्त बनाया जाये. हालांकि, ज्ञान परंपराओं के लिए धर्म और विज्ञान से संवाद स्थापित करना फिर भी एक चुनौती ही रहेगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by : Pritish Sahay

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