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आजादी के 73 साल बाद भी मार्ह जाति को नहीं मिली पहचान

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दक्षिण भारत से आजीविका की खोज में सोन-कोयल की तराइयों से होकर गढ़वा पहुंचे थे मार्ह जाति के लोग

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गढ़वा : मार्ह समाज के लोगों को आजादी के सात दशक बीतने के बाद भी आजतक इनकी जातिगत पहचान नहीं मिल पायी है. सरकार की किसी अनुसूची में शामिल नहीं होने के कारण इन्हें आजतक जाति प्रमाण नहीं मिल पा रहा है. वे अन्य संवैधानिक अधिकारों का लाभ भी नहीं ले पा रहे हैं. यह खामियाजा मार्ह जाति के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी भुगत रहे हैं.

अपने जातिगत पहचान नहीं मिलने से मार्ह समाज के लोगों में सरकार के प्रति काफी रोष देखने को मिल रहा है. समाज के कुछ जागरूक लोगों ने पिछले कुछ साल से अपनी पहचान को लेकर कागजी लड़ाई शुरू किया है. इसके परिणामस्वरूप राज्य पिछड़ा आयोग की टीम ने इस जाति के विषय में अध्ययन शुरू किया है. पलामू गजेटियर व इतिहासकारों के मुताबिक मार्ह समाज के लोगों का ईसा काल के पूर्व से ही झारखंड में रहने का प्रमाण मिलता है. फिलहाल मार्ह जाति के लोग गढ़वा और गुमला जिला में रह रहे हैं.

गढ़वा व गुमला मिला कर जनसंख्या 1963

सरकारी आंकड़ों में दोनों जगहों को मिला कर कुल जनसंख्या 1963 आंकी गयी है. इसमें गढ़वा में 581 व गुमला में 1382 बतायी गयी है. इनकी जीवनशैली आदिम जनजातियों से मिलती-जुलती हैं. लेकिन सरकार ने इन्हें आदिम जनजाति अथवा अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने से इनकार कर दिया है. फिलहाल सरकार ने इन्हें पिछड़ा वर्ग में शामिल करने पर विचार शुरू किया है. इसको लेकर इस समय राज्य पिछड़ा आयोग की टीम ने गुमला और गढ़वा दोनों जिला में जाकर मार्ह जाति की जीवनशैली का अध्ययन किया है. इसमें उनके रहन-सहन, रीति-रिवाज, परंपरा और पूजा-पद्धित का अध्ययन किया गया है.

ईसा पूर्व से है झारखंड में रहने का इतिहास

मार्ह जाति के लोग ईसा से करीब 500 साल पूर्व सोन-कोयल की तराई से होकर वर्तमान गढ़वा में आजीविका की खोज में पहुंचे थे. इस संबंध में विभिन्न इतिहासकारों के मुताबिक तब सघन जंगल वाले इस इलाके में कोल-करात आदिम जनजाति के लोग रहा करते थे. उनका खानाबदोश जीवन था. इन आदिम जनजातियों का जीवन यापन वन्य पदार्थों या जंगली जानवरों का शिकार कर होता था.

जब मार्ह जाति के लोग यहां पहुंचे, तो शांतिप्रिय जीवन जीनेवाले कोल-किरातों ने बिना इनसे संघर्ष के बजाय आबाद इलाके छोड़कर वे सघन वन में सिमटते चले गये. इधर मार्ह जाति के लोगों ने पहली बार जंगल साफ कर उसे कृषि के अनुकूल बनाया और खानाबदोश जीवन की बजाय एक ही स्थान पर रहना शुरू किया. यद्यपि मार्ह समाज के पूर्वज भी जंगली जानवरों का शिकार व वन्य पदार्थों का सेवन करते थे.

लेकिन वे साथ ही कृषि कार्य कर झारखंड के इस इलाके में पहली बार न सिर्फ अन्न पैदा करना शुरू किये. बल्कि पशु पालन शुरू किया, कुआं, तालाब खोदे और उन्होंने घर भी बनाया. यहां उनका कई शताब्दियों तक सुखमय जीवन बीता. लेकिन दूसरी शताब्दी में जब यहां रक्सैलों का आगमन हुआ, तो उन्होंने मार्ह जातियों को मारकर भगा दिया. तब मार्ह जातियों को यहां सबकु छ छोड़कर अपने भागना पड़ा.

उस समय वे किसी तरह कुछ सामान और मवेशियों को लेकर भाग पाये थे. तब से झारखंड के गढ़वा व गुमला के अलावा छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के कुछ गिने-चुने इलाके में इनके वंशजों को देखने-सुनने में मिल रहा है. गढ़वा, पलामू जिला के गांवों में बड़े-बुजुर्ग आज भी मार्ह-मार्हिन की कहानी सुनाते हैं. गढ़वा जिले में अनेक टीले आज भी मौजूद हैं, जिनके विषय में कहा जाता है कि उसके नीचे मार्ह समाज द्वारा छुपाया गया वर्तन व सिक्का आदि गड़ा हुआ है.

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर शुरू हुई है पहल

प्रभात खबर ने एक जुलाई एवं 15 जुलाई 2018 को दो किस्तों में मार्ह जाति के विषय में ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट प्रकाशित की थी. बड़गड़ प्रखंड के बोडरी गांव निवासी मार्ह समाज के अनिरुद्ध प्रसाद सिंह ने इसका हवाला देकर इसे सर्वोच्च न्यायालय को भेज कर अपनी पहचान दिलाने के लिए गुहार लगायी थी. सर्वोच्च न्यायालय ने अनिरुद्ध सिंह के उक्त आवेदन को केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय को भेज कर इसपर कार्रवाई करने के लिए निर्देशित किया था. वहां से जनजातीय कार्य मंत्रालय में इसे राज्यों से संबंधित मामला बताते हुए झारखंड सरकार को इसे अग्रसारित किया. इसके आलोक में मार्ह जाति को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने के लिए अध्ययन करने की पहल शुरू की गयी है.

posted by : sameer oraon

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