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हमें रंगभेद से मुक्त होना होगा

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भले हम 21वीं सदी में पहुंच गये हों, नस्लवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये हैं. अब भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो पुरानी सोच पर कायम हैं कि उनकी नस्ल अन्य से श्रेष्ठ है.

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प्रधान संपादक

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प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

ब्रिटेन के प्रिंस हैरी और उनकी पत्नी मेगन मर्केल का अमेरिका की मशहूर होस्ट ओप्रा विन्फ्रे को दिया इंटरव्यू इन दिनों चर्चा में है. इस इंटरव्यू में मेगन मर्केल ने कहा था कि शाही परिवार के एक सदस्य ने उनके पति प्रिंस हैरी से उनके होने वाले बच्चे के रंग को लेकर चिंता जतायी थी. उन्होंने बताया कि उनके बेटे आर्ची के रंग को लेकर उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था. अपने इंटरव्यू में मेगन भावुक होकर यह कहती नजर आयीं कि शाही परिवार को उनके बेटे के रंग से परेशानी थी.

जब उनका बेटा पैदा होने वाला था, तो उसके रंग को लेकर सभी लोगों ने चिंता व्यक्त की थी. इस बारे में कई बार चर्चा भी होती थी. शाही परिवार के लोगों ने बेटे के रंग को लेकर प्रिंस हैरी से भी बात की थी. हालांकि, मेगन ने परिवार के उन सदस्यों के नाम बताने से इनकार कर दिया, जो उनके बच्चे के रंग को लेकर टिप्पणी किया करते थे. दरअसल, मेगन की मां अफ्रीकी मूल की अमेरिकी हैं और उनके पिता गौरे अमेरिकी हैं. इसलिए शाही परिवार के कुछ सदस्यों को मेगन और हैरी के बेटे के रंग को लेकर चिंता थी.

इस इंटरव्यू में मेगन मर्केल ने कहा कि प्रिंस हैरी के साथ शादी के बाद उन्हें अलग-थलग कर दिये जाने और राज परिवार का साथ न मिलने के कारण उनके मन में आत्महत्या तक के ख्याल आने लगे थे. उनके इस इंटरव्यू के बाद राजघराने की ओर से कहा गया कि इंटरव्यू में रंगभेद से संबंधित मुद्दे को बहुत गंभीरता से लिया गया है. बयान में कहा गया कि पूरा शाही परिवार यह जान कर दुखी है कि हैरी और मेगन के लिए पिछले कुछ वर्ष कितने चुनौतीपूर्ण रहे हैं.

इस इंटरव्यू में जो मुद्दे उठाये गये हैं, खासतौर पर नस्लवाद संबंधी, वे चिंतित करने वाले हैं और इन्हें बहुत गंभीरता से लिया गया है और शाही परिवार द्वारा उनका निजी तौर पर समाधान किया जायेगा. यह और अन्य अनेक घटनाएं बताती हैं कि भले हम 21वीं सदी में पहुंच गये हों, नस्लवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये हैं. अब भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो पुरानी सोच पर कायम हैं कि उनकी नस्ल अन्य से श्रेष्ठ है. अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है, लेकिन वह अब तक नस्लवाद से मुक्त नहीं हो पाया है.

कुछ समय पहले वहां एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को नस्लभेद का शिकार होना पड़ा था और उसकी मौत हो गयी थी. यह मुद्दा इतना तूल पकड़ा था कि केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि यूरोप में भी रंगभेद के खिलाफ ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ यानी अश्वतों की जिंदगी भी अहम है जैसा आंदोलन चला था. अभी हाल में अमेरिका के 200 साल से अधिक के लोकतांत्रिक इतिहास में कमला हैरिस उपराष्ट्रपति के पद तक पहुंचने वाली पहली दक्षिण एशियाई और अश्वेत मूल की पहली महिला बनी हैं. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमेरिकी सेना के रिटायर्ड जनरल लॉयड ऑस्टिन को देश के रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी है. इससे पहले आज तक कोई अश्वेत रक्षा मंत्री नहीं बनाया गया.

नस्लवाद के तत्व दुनियाभर में मौजूद है. हाल में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच टेस्ट मैच के दौरान कुछ ऑस्ट्रेलियाई दर्शकों ने भारतीय खिलाड़ियों पर नस्लीय टिप्पणियां की थीं, जिसके कारण मैच थोड़ी देर के लिए रोक देना पड़ा था. भारतीय खिलाड़ी मैदान के बीच में जमा हो गये, जब स्क्वायर लेग बाउंड्री पर खड़े सिराज ने ‘ब्राउन डॉग’ जैसे अपशब्द कहे जाने की शिकायत की.

इसके पहले भी जसप्रीत बुमराह और मोहम्मद सिराज पर नस्लीय टिप्पणी की गयीं थीं, लेकिन हमें इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि यह सिर्फ पश्चिमी देशों की समस्या है. भारत में भी रंगभेद की जड़ें बहुत गहरी हैं. हमारे समाज की धारणा है कि गोरा होना श्रेष्ठता की निशानी है और सांवला या काला व्यक्ति दोयम दर्जे का है. शादी के विज्ञापनों पर आप नजर डालें, तो पायेंगे कि सभी परिवारों को केवल गोरी बहू चाहिए.

शादी के विज्ञापनों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति अथवा परिवार हो जो सांवली वधू चाहता हो. यह रंगभेद नहीं तो और क्या है? भारतीय समाज में भी सुंदरता का पैमाना गोरा रंग है. लड़का भले ही काला कलूटा हो, बहू दूधिया गोरी चाहिए. स्थिति यह हो गयी है कि लड़की सांवली हुई, तो मां-बाप हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं. ऐसे भी कई मामले सामने आये हैं कि लड़कियों ने इस काले गोरे के चक्कर में आत्महत्या तक कर ली है. भारतीय समाज में यह भ्रांति भी है कि गर्भावस्था के दौरान महिला के खानपान से बच्चे के रंग पर भी असर पड़ता है. चूंकि सबको गोरा बच्चा चाहिए, यही वजह है दादी नानी गर्भवती महिला को संतरे खाने की सलाह देती हैं और जामुन जैसे फल खाने पर एकदम पाबंदी रहती है.

कुछ अरसा पहले वेस्टइंडीज के क्रिकेट खिलाड़ी डैरेन सैमी ने आरोप लगाया था कि इंडियन प्रीमियर लीग में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ से खेलते हुए उनके खिलाफ नस्लीय टिप्पणी की गयी थी. हमारे देश में भी अफ्रीकी देशों के लोगों को उनके रंग के कारण हिकारत की नजर से देखा जाता है. ऐसी घटनाएं आम हैं, जब अकारण किसी अफ्रीकी छात्र को किसी शहर में पीट दिया जाता है. राजधानी दिल्ली और कई अन्य शहरों में अफ्रीकी देशों के छात्र काफी बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं और अक्सर लोग उनके रंग को लेकर टिप्पणी करते हैं.

उनका काला रंग इस प्रकार के अपमानजनक बर्ताव का मूल कारण होता है. कुछ समय पहले देश में ऐसी घटनाएं बहुत बढ़ गयी थीं, तो अफ्रीकी देशों के राजदूतों ने मिल कर इन घटनाओं को भारत सरकार के समक्ष उठाया था और इसे नस्लभेद बताया था. और तो और, अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नाक-नक्शा भिन्न होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है. मैं जब बीबीसी में कार्य करता था, तो मुझे कई वर्ष ब्रिटेन में रहने और भारतवंशी समाज को करीब से देखने और समझने का मौका मिला.

मैंने पाया कि वहां के भी भारतीय समाज में भी रंगभेद रचा-बसा है. वहां गोरी बहू तो स्वीकार्य है, लेकिन अश्वेत बहू उन्हें भी स्वीकार्य नहीं होती, जबकि अश्वेत उस समाज का अभिन्न अंग है. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस देश में नस्लभेद व रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी ने जन्म लिया हो, उस समाज में नस्लभेद की जड़ें बहुत गहरी हैं.

दक्षिण अफ्रीका के एक शहर पीटरमारित्जबर्ग के रेलवे स्टेशन पर सन् 1893 में महात्मा गांधी के खिलाफ नस्लभेद की घटना हुई थी. इसी शहर के रेलवे स्टेशन पर एक गोरे सहयात्री ने मोहन दास करमचंद गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था. इसी घटना ने उन्हें आगे चल कर महात्मा गांधी बना दिया और नस्लभेद व रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया.

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