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पहचानों की परस्पर लड़ाई का चुनाव

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पहचान के असमंजस ने लगभग सभी राज्यों में लगभग सभी पार्टियों के राजनीतिक अवसरवाद का खुलासा कर दिया है.

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वर्तमान चुनावी हंगामा अदम्य पहचानों के बीच जोरदार लड़ाई है, विचारधाराओं के बीच नहीं. राजनीतिक दल और उनके नेता दुख दूर करने के प्रगतिशील प्रस्तावों पर भी बहुत कम बोलते हुए हाशिये के भारतीयों को संबोधित नहीं करते. समृद्ध भारत में संपत्ति के उचित वितरण का कोई वादा सामने नहीं रखा जा रहा है. इसके बजाय वे अपने वैचारिक मतदाताओं के वर्ग को परिभाषित करने के लिए राष्ट्रीय विविधता का दोहन करते हैं.

बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उभरती भाजपा ने तय किया है कि विविधता से भरा भारत समान सांस्कृतिक और राजनीतिक छतरी के नीचे ही तेजी से विकास कर सकता है. हर राज्य में डबल इंजन की सरकार के चुनाव का इसका नारा सहकारी संघवाद के बरक्स राजनीतिक केंद्रवाद के स्थापत्य को प्रमुखता देता है.

यह मान लिया गया है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हाथ में राज्यों की सत्ता भी हो, ताकि सभी नीतियां बिना बाधा लागू हो सकें. लेकिन भाजपा के एक समान भारत के विचार को न केवल क्षेत्रीय क्षत्रपों, बल्कि कांग्रेस और वाम जैसे राष्ट्रीय दलों की भी उग्र चुनौती मिल रही है, जो मतदाताओं से उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक पहचान को बचाने का आह्वान कर रहे हैं.

असम में भाजपा की सरकार है और वह पूर्वी भारत में अपने राजनीतिक साम्राज्य को मजबूत करने के लिए बंगाल जीतने की आंकाक्षी है. दिल्ली स्थानांतरित होने से पहले कोलकाता ब्रिटिश शासन की राजधानी था और अब भी भद्रलोक के नेतृत्व में देश की बौद्धिक राजनीति होने का दावा करता है. अमित शाह और उनके दस्ते ने बंगाल जीतने के साथ तमिलनाडु, पुद्दुचेरी और केरल में दो अंकों में सीटें पाने का लक्ष्य रखा है.

देश की कुल 4121 विधानसभाओं में से सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूप से विविधतापूर्ण पांच राज्यों के इस चुनाव में 624 सीटों पर मतदान होगा. इनमें से भाजपा के पास अभी केवल 65 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस के पास 115 और ममता बनर्जी के पास 211 विधायक हैं. तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक और द्रमुक के पास तीन-चौथाई से अधिक सीटें हैं. केरल में वाम गठबंधन और कांग्रेस गठबंधन के खाते में लगभग सौ प्रतिशत सीटें हैं, जबकि भाजपा का केवल एक विधायक है.

अमित शाह की रणनीतिक प्रतिभा से संचालित मोदी की भाजपा लक्ष्य-आधारित अभियान चला रही है. वे पहले संख्या तय करते हैं और फिर उसके हिसाब से नारों, संसाधनों, लोगों और रणनीति की व्यवस्था करते हैं. साल 2016 में जीतीं तीन सीटों के बरक्स उन्होंने इस बार 200 का आंकड़ा पार करने का फैसला किया है. असम में शाह ने पार्टी को 2016 से 40 सीटें अधिक जीतकर शतक बनाने का निर्देश दिया है.

लेकिन सभी राज्यों में जीत का सूत्र एक ही है. यह जय श्रीराम से शुरू होता है और विकास के साथ समाप्त होता है. इनके बीच प्रचारकों को इस बात पर जोर देने को कहा गया है कि इन राज्यों में भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण की राजनीति और वंशवाद के वर्चस्व के कारण बीते 70 सालों से विकास अवरुद्ध रहा है. पश्चिम बंगाल में ही राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के बीच असली लड़ाई लड़ी जा रही है.

यहां प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा भी दांव पर है. ममता बनर्जी आक्रामकता के साथ अपनी क्षेत्रीय पहचान को सामने रख रही हैं, तो भाजपा भी राज्य को केसरिया छतरी के नीचे लाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है. ममता बनर्जी के दस साल के शासन की थकान और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का लाभ उठाते हुए भाजपा दो सालों से हिंदू वोटों को लामबंद करने में लगी है.

इसने पहले कहीं भी इतनी ऊर्जा और वित्तीय संसाधन नहीं झोंका है. तृणमूल कांग्रेस ने इस चुनाव को बाहरी बनाम भीतरी की लड़ाई बना दिया है और वह भाजपा पर अकेली महिला मुख्यमंत्री के विरुद्ध षड्यंत्र रचने और बंगाल की सांस्कृतिक एकता से खिलवाड़ करने का आरोप लगा रही है.

पहचान के असमंजस ने लगभग सभी राज्यों में लगभग सभी पार्टियों के राजनीतिक अवसरवाद का खुलासा कर दिया है. भाजपा पूरे विपक्ष पर अल्पसंख्यकों और अवैध आप्रवासन के प्रति नरमी का आरोप लगाती है, पर इसने भी असम में अपना रवैया नरम कर दिया है. बंगाल में वह नागरिकता संशोधन कानून लागू करने का वादा कर रही है, लेकिन स्थानीय हिंदुओं व मुस्लिमों की नाराजगी से बचने के लिए असम में वह चुप है.

दक्षिण में क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय एक समानता के लिए संघवाद पर अपने रुख को नहीं छोड़ना चाहती हैं. तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्ना द्रमुक ने संसद में नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष में मतदान किया था, पर अब वह धार्मिक पहचान से परहेज करनेवाली अपनी द्रविड़ छाप बनाये रखने के लिए इस कानून की वापसी चाहती है. प्रधानमंत्री मोदी ने तमिल संस्कृति से जुड़ने के महत्व को समझा है.

अपने हालिया ‘मन की बात’ संबोधन में उन्होंने दुनिया की सबसे पुरानी भाषा तमिल को न सीख पाने के लिए अफसोस जताया. असम में उन्होंने कांग्रेस पर उन लोगों का साथ देने का आरोप लगाया, जो असम चाय को बर्बाद करना चाहते हैं. कोरोना टीका लगवाते समय उन्होंने असम का गमछा पहना था और नर्सें केरल और पुद्दुचेरी से थीं. इसे टीकाकारों ने क्षेत्रीय पहुंच बनाने की कोशिश के रूप में देखा है.

केरल के वाम गठबंधन ने सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश पर अपना रुख बदल दिया है. अब यह मुद्दा फिर केंद्र में है. भाजपा के खुले हिंदू-समर्थक अभियान की प्रतिक्रिया में गठबंधन सरकार में मंत्री के सुरेंद्रन ने अदालत के आदेश को लागू कराने के लिए अफसोस जताया है. राज्य में कांग्रेस और सीपीएम की तुलना में भाजपा अधिक सीटों पर लड़ रही है. भाजपा दक्षिण में वांछित असर शायद न डाल सके, पर असम और बंगाल में इसका प्रदर्शन क्षेत्रीय राजनीति के भविष्य को तय करेगा.

भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है, पर कई राज्यों में वह ऐसे स्थानीय नेता नहीं बना सकी है, जो मोदी के बिना चुनाव जीत सकें. साल 2014 के बाद भाजपा ने छोटे राज्यों को जीता है, पर वह कई बड़े राज्यों में हार गयी. पार्टी कुछ राज्यों में मामूली बहुमत से सरकार चला रही है. फिर भी, 2019 में मोदी ने लोकसभा चुनाव में बहुत भारी जीत हासिल की थी. लोगों ने उन्हें राष्ट्रीय नेता मानते हुए उनका समर्थन किया है, पर वे राज्यों के चुनाव में ‘वोकल फॉर लोकल’ हैं. भारत को एक राजनीतिक भाषा बोलने के लिए भाजपा को अपनी क्षेत्रीय बोलियों को गढ़ना होगा.

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